UA-158808998-1 Hindi Kahaniya - फूलो का कुर्ता - यशपाल - Hindi Kahaniya

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रविवार, 1 मार्च 2020

Hindi Kahaniya - फूलो का कुर्ता - यशपाल

Hindi Kahaniya -   फूलो का कुर्ता - यशपाल 

                                     
Hindi Kahaniya -   फूलो का कुर्ता - यशपाल

Hindi Kahaniya -   फूलो का कुर्ता - यशपाल 

                             

1.फूलो का कुर्ता

  मुझे यदि संकीर्णता और संघर्ष से भरे नगरो में ही अपना जीवन बिताना पड़ता तो मैं या तो आत्महत्या कर लेता या पागल  हो जाता। भाग्य से बरस में तीन मास के लिए कालेज में अवकाश हो जाता है और मैं नगरो के वैमनस्यपूणं संघर्ष से भाग कर पहाड़ में अपने गाँव चला जाता हुं।
‌                                      मेरा गांव आधुनिक क्षुब्धता से बहुत दूर,हिमालय के आंचल में है। भगवान की दया से रेल,मोटर और तार के अभिशाप ने इस गांव को अभी तक नहीं छुआ है। पहाड़ी भूमि अपना प्राकृतिक श्रृंगार लिए है। मनुष्य उसकी  उत्पादन शक्ति से संतुष्ट है ।
 हमारे यहां गांव बहुत छोटे छोटे हैं। कहीं-कहीं तो बहुत ही छोटे ,दस-बीस घर से लेकर पांच-छ: घर तक और बहुत पास-पास।  एक गाँव पहाड़  की तलहटी में है तो दूसरा उसकी ढलान पर। मुंह पर हाथ लगा कर पुकारने से दूसरे गांव तक बात कह दी जा सकती है। गरीबी है, अशिक्षा भी है परंतु वैमनस्य और  असंतोष कम है।
  बंकू साह की छप्पर से छायी दुकान गाँव की सभी आवश्यकता पूरी कर  देती है। उनकी दुकान का बरामदा ही गाँव की चौपाल या क्लब है। बरामदे के सामने दालान में पीपल के नीचे खेलते हैं और ढोर बैठकर जुगाली भी करते रहते हैं।
                                                 सुबह से जोर की बारिश हो रही थी ।बाहर जाना संभव न था इसलिए आजकल  के एक प्रगतिशील लेखक का उपन्यास पढ़ रहा था।
कहानी थी एक निर्धन कुलीन युवक का विवाह एक शिक्षित युवति से हो गया था। नगर के जीवन में युवक की आमदनी से गुजारा चलता ना देख कर युवती ने भी नौकरी कर कुछ कमाना चाहा परंतु यह बात युवक के आत्मसम्मान को स्वीकार न थी। उनके संतान पैदा हो गयी; होनी ही थी । एक-दो और फिर तीन बच्चे।महगाई के जमाने में भूखे मरने की नौबत आ गई। उनका बीमार हो जाना । अपनी  स्त्री की राय से नवयुवक का एक सेठ जी के यहां नौकरी करना और उनका खुशहाल हो जाना।
‌                           एक दिन राज खुला की नवयुवक की खुशहाली का मोल उनकी अपनी योग्यता नहीं, उनकी पत्नी की इज्जत थी। पति नेटने का यत्न किया। पत्नी ने गिड़गिड़ा कर क्षमा मांगी जो - कुछ किया इन बच्चे के लिए किया। पत्नी ने केवल बच्चों को पाल सकने के लिए प्राण- भिक्षा मांगी । पति सोचने लगा- मेरी इज्जत का मोल अधिक है या तीन बच्चों के प्राणो का!
‌ मैंने ग्लानि से पुस्तक पटक दी। सोचा - यह है हमारी गिरावट की सीमा! आज ऐसा साहित्य बन रहा है जिसमें में व्यभिचार  के लिए सफाई दी जाती है। यह साहित्य हमारी संस्कृति का अधार  बनेगा !हमारा जीवन कितना छिछला और संकीर्ण होता चला जा रहा है। स्वार्थ के बावलेपन छीना झपटी और मारोमार हमें बदहवास किए दे रही है। हम अपनी उस मानवता, नैतिकता और स्थिरता को खो चुके हैं । जिसका विकास हमारे आत्मा दृष्टा ऋषियों ने संकीर्ण सांसारिकता से मुक्त होकर किया था। हम स्वार्थ की पट्टी आंखों पर बांधकर भारत की आत्मज्ञान की संस्कृति के परम शांति के मार्ग को खो बैठे हैं ।.......................क्या पेट और रोटी सब कुछ है? इसके परे मनुष्यता, संस्कृति और नैतिकता कुछ नहीं है ?ऐसे ही विचार मन में उठ रहे थे।
‌     
बारिश थम कर  धूप निकल आई थी। घर में दवाई के लिए कुछ अजवायन की जरूरत थे। घर से निकल पड़ा कि बंकू साह से ले आऊ।
                                          बंकू साह की दुकान के बरामदे में पाच सात आदमी बैठे थे । हुक्का चल रहा था । सामने गांव के बच्चे कीड़ा कीड़ी का खेल खेल रहे थे । इस शाह की पाच बरस की लड़की फूलों भी उन्हीं में थी।
पाच बरस की लड़की का पहनावा और ओढ़ना क्या! एक कुर्ता कंधे से लटका था। फूलों की सगाई हमारे गांव से फलाग भर दूर `चूला` गांव में संतू से हो गई थी।
      संतु की उम्र रही होगी,  यही सात बरस।सात बरस का लड़का क्या करेगा घर है में दो भैंस  एक गाय और दो बैल थे । ढोर चरने जाते तो संतु छड़ी लेकर उन्हें देखता और खेलता भी रहता; ढोर काहे को किसी के खेत में जाए । सांझ को उन्हें घर हाक लाता।

बारिश थमने पर संतु अपने ढोरों को ढलवाने की हरियाली में हाक कर ले जा रहा था। बंकू साह की दुकान के सामने पीपल के नीचे बच्चों को खेलते देखा तो उधर ही आ गया।
                             संतु को खेल में आया देखकर सुनार का छ:बरस का लड़का हरिया चिल्ला उठा "आहा  ,फूलों का दूल्हा आया! "

              दूसरे बच्चे भी उसी तरह चिल्लाने लगे।
बच्चे बड़े बूढ़ों को देखकर बिना बताए समझाए भी सब कुछ सीख और जान जाते हैं  यूं ही मनुष्य के ज्ञान और संस्कृति की परंपरा चलती रहती है । फूलों पाच बरस की बच्ची थी तो क्या; वह जानती थी ,दूल्हे से लज्जा करनी चाहिए। उसने अपनी मां को गांव की सभी भली स्त्रियों को लज्जा से घूंघट और पर्दा करते देखा था । उसके संस्कारों ने उसे समझा दिया था, लज्जा से मुंह ढक लेना उचित है।
         
                                               बच्चों के चिल्लाने से फूलों लजा गई परंतु वह करती तो क्या । एक कुरता ही तो उसके कंधे से लटक रहा था । उसने दोनों हाथों से कुर्ते का आंचल उठाकर अपना मुंह छुपा लिया।

छप्पर के सामने, हुक्के को घेर कर कर बैठे प्रोढ़ आदमी फूलों की इस लज्जा को देख कर कह कहा लगाकर हंस पड़े।
              काका राम सिंह ने फूलों को प्यार से धमकाकर कुर्ता नीचे करने के लिए समझाया।
शरारती लड़के मजाक समझकर `हो - हो` करने लगे।

बंकू साह के यहां दवाई के लिए थोड़ी अजवायन लेने आया था परंतु फूलों की सरलता से मन चुटिया गया । यूं ही लौट चला।
                       सोचता जा रहा था- बदली स्थिति में ही परंपरागत संस्कार से ही नैतिकता और लज्जा की रक्षा करने के प्रयत्न में क्या- से -क्या हो जाता है । प्रगतिशील लेखकों की उघाड़ी- उघाड़ी बातें........।

हम फूलों के कुर्ते के आंचल में शरण पाने का प्रयत्न कर उघड़ते चले जा रहे हैं और नया लेखक हमारे चेहरे से कुर्ता नीचे खींच देना चाहता है.............।
                                                        By - Yashpal




                        2.दुःख का अधिकार


Hindi Kahaniya -   फूलो का कुर्ता - यशपाल

Hindi Kahaniya -   फूलो का कुर्ता - यशपाल 



मनुष्यों की पोशाकेन उन्हें विभिन्न श्रेणियों में बांट देती है। प्रायः पोशाक ही समाज में मनुष्य का अधिकार और उसका दर्जा निश्चित करती है। वह हमारे लिए अनेक बन्द दरवाजे खोल देती है परन्तु कभी ऐसी भी परिस्थिति आ जाती है कि हम जरा नीचे झुककर समाज की अनुभूति को समझना चाहते हैं, उस समय वह पोशाक ही बन्धन और बड़प्पन बन जाती है। जैसे वायु की लहरें कटी हुई पतंग को सहसा भूमि पर नहीं गिर जाने देती उसी तरह खास परिस्थितियों में हमारी पोशाक हमें झुक सकने से रोके रहती है।
             बाजार में, फुटपाथ पर कुछ खरबूजे डलिया पर कुछ जमीन पर बिक्री के लिए रखे थे । खरबूजे के समीप एक अधेड़ उम्र की औरत  बैठी रो रही थी ।  खरबूजे बिक्री के लिए थे, परंतु उन्हें खरीदने के लिए कोई कैसे आगे बढ़ता । खरबूजे को बेचने वाली तो कपड़े से मुंह छिपाए सिर को घुटने पर रखे फफक फफक कर रो रही थी।
               पड़ोस की दुकानों के तख्तों पर बैठे या बाजार में खड़े लोग घृणा से उस स्त्री के संबंध में बात कर रहे थे । उस स्त्री का रोना देख कर मन में एक व्यथा सी उठी पर उसके रोने का कारण जानने का उपाय क्या था ।
                  फुटपाथ पर उसके समीप बैठ सकने में मेरी पोशाक ही व्यवधान बन खड़ी हो गई । एक आदमी ने घृणा से एक तरफ ठोकते हुए कहा , "क्या जमाना है । जवान लड़के को मरे पूरा दिन नहीं बीता और यह बेहया दुकान लगाकर बैठी है ।" दूसरे साहब अपनी दाढ़ी खुजाते हुए कह रहे थे, 'अरे जैसी नियत होती है अल्लाह भी वैसी ही बरकत देता है । सामने के फुटपाथ पर खड़े एक आदमी ने दिया सलाई की तीली से कान खुजाते हुए कहा, 'अरे इन लोगों का क्या है । यह कमीने लोग रोटी के टुकड़े पर जान देते हैं । इनके लिए बेटा-बेटी,खसम, लुगाई ,धर्म-ईमान सब रोटी का टुकड़ा है । परचून की दुकान पर बैठे लाल जी ने कहा, ' अरे भाई उनके लिए मरे जिए का कोई मतलब ना हो पर दूसरे के धर्म ईमान का तो ख्याल रखना चाहिए ।जवान बेटे के मरने पर 13 दिन का सूतक होता है और यहां सड़क पर बाजार में आकर खरबूजे बेचने बैठ गई है । हजार आदमी आते जाते हैं । कोई क्या जानता है कि इसके घर में सूतक है । कोई इसके खरबूजे खा ले ले तो उसका धर्म ईमान कैसे रहेगा? क्या अंधेर है।
पास पड़ोस की दुकानों से पूछने से पता लगा उसका 23 बरस का जवान लड़का था । घर में उसकी बहू और पोता पोती है । लड़का शहर के पास डेढ़ बीघा जमीन में कछियारी करके परिवार का निर्वाह करता था। खरबूजो की डलिया बाजार में पहुंचाकर कभी लड़का स्वयं सौदे के पास बैठ जाता कभी मां बैठ जाती।
      लड़का परसों सुबह मुंह-अंधेरे बेलों में से पके खरबूजे चुन रहा था।  गीली मेड़ की तरावट में विश्राम करते हुए एक सांप पर लड़के का पैर पड़ गया। सांप ने लड़के को डस लिया।
      लड़के की बुढ़िया मां बावली होकर ओझा को बुला लाई झाड़ना फुकना हुआ। नाग देव की पूजा हुई । पूजा के लिए दान दक्षिणा चाहिए । घर में कुछ आटा और अनाज था, दान दक्षिणा में उठ गया। मां बहू और बच्चे भगवाना से लिपट लिपट कर रोए और भगवाना जो एक दफे चुप हुआ तो फिर ना बोला। सर्प के विष से उसका सब बदन काला पड़ गया था।
             जिंदा आदमी नंगा भी रह सकता है । परंतु मुर्दे को नंगा कैसे विदा किया जाए। उसके लिए बाजार की दुकान से नया कपड़ा तो लाना ही होगा। चाहे उसके लिए मां के हाथों की छन्नी ककना ही क्यों न बिक जाए भगवाना परलोक चला गया घर में जो कुछ चूनी भूसी थी सोउसे विदा करने में चली गई बाप नहीं रहा तो क्या। लड़के सुबह उठते ही भूख से बिलबिलाने लगे। दादी ने उन्हें खाने के लिए खरबूजे दे दिए ,लेकिन बहू को क्या देती । बहू का बदन बुखार से तवे की तरह तप रहा था। अब बेटे के बिना बुढ़िया को दुवन्नी-चवन्नी भी कौन उधार देता। बुढ़िया रोते-रोते और आंखें पोछते-पोछते भगवाना के बटोरे हुए खरबूजे डलिया में समेटकर बाजार की ओर चली।और चारा भी क्या था?
  बुढ़िया खरबूजे बेचने का साहस करके आई थी, परंतु सिर पर चादर लपेटे हुए फफक-फफक कर रो रही थी।
कल जिसका बेटा चल बसा, आज बाजार में सौदा बेचने चली है, हाय रे पत्थर दिल।
उस पुत्र वियोगिनी के दुःख का अंदाजा लगाने के लिए पिछले साल अपने पड़ोस में पुत्र की मृत्यु से दुखी माता की बात सोचने लगा। वह संभ्रांत महिला पुत्र की मृत्यु के बाद अढ़ाई मास तक पलंग से उथ न सकी थी। उन्हें 15-15  मिनट बाद पुत्र वियोग से मूर्छा आ जाती थी और मूर्छा ना आने की अवस्था में आंखों से आंसू ना रुकते थे। दो-दो डॉक्टर हरदम सिरहाने बैठे रहते थे । हरदम सिर पर बर्फ रखी जाती थी। शहर भर के लोगों के मन उस पुत्र शॉप से द्रवित हो उठते थे।
      जब मन को सूझ का रास्ता नहीं मिलता तो बेचैनी से कदम तेज हो जाते हैं । उसी हालत में नाक ऊपर उठाए राह चलने से ठोकरें खाता मैं चला जा रहा था । सोच रहा था .......
शोक करने,गम मनाने के लिए भी सहूलियत चाहिए और... दुखी होने का भी एक अधिकार होता है ।
     
                          By- yashpal


Hindi Kahaniya -   फूलो का कुर्ता - यशपाल

Hindi Kahaniya -   फूलो का कुर्ता - यशपाल 


यशपाल का जन्म 3 दिसम्बर 1903 को पंजाब में, फ़ीरोज़पुर छावनी में एक साधारण खत्री परिवार में हुआ था। उनकी माँ श्रीमती प्रेमदेवी वहाँ अनाथालय के एक स्कूल में अध्यापिका थीं। यशपाल के पिता हीरालाल एक साधारण कारोबारी व्यक्ति थे। उनका पैतृक गाँव रंघाड़ था, जहाँ कभी उनके पूर्वज हमीरपुर से आकर बस गए थे। पिता की एक छोटी-सी दुकान थी और लोग उन्हें ‘लाला’ कहते-पुकारते थे। बीच-बीच में वे घोड़े पर सामान लादकर फेरी के लिए आस-पास के गाँवों में भी जाते थे। अपने व्यवसाय से जो थोड़ा-बहुत पैसा उन्होंने इकट्ठा किया था उसे वे, बिना किसी पुख़्ता लिखा-पढ़ी के, हथ उधारू तौर पर सूद पर उठाया करते थे। अपने परिवार के प्रति उनका ध्यान नहीं था। इसीलिए यशपाल की माँ अपने दो बेटों—यशपाल और धर्मपाल—को लेकर फ़िरोज़पुर छावनी में आर्य समाज के एक स्कूल में पढ़ाते हुए अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के बारे में कुछ अधिक ही सजग थीं। यशपाल के विकास में ग़रीबी के प्रति तीखी घृणा आर्य समाज और स्वाधीनता आंदोलन के प्रति उपजे आकर्षण के मूल में उनकी माँ और इस परिवेश की एक निर्णायक भूमिका रही है। यशपाल के रचनात्मक विकास में उनके बचपन में भोगी गई ग़रीबी की एक विशिष्ट भूमिका थी।

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