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शनिवार, 7 मार्च 2020

Hindi Kahaniya

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                                       छिपा रहस्य 

कनाडा में मॉन्ट्रियल नाम का बड़ा शहर है। वहां कई छोटी-छोटी सड़कें भी है भी है ।उनमें से एक है एडवर्ड स्ट्रीट। उस सड़क को पियरे जितनी अच्छी तरह जानता था उतनी अच्छी तरह और कोई भी नहीं जानता था। उसका एक कारण था ।पिछले 30 सालों से पीयरे उस सड़क पर बसे सभी परिवारों को दूध बांटता था।
              पिछले 15 सालों से पीयरे कि दूध गाड़ी को एक बड़ा सफेद घोड़ा खींचता था ।घोड़े का नाम जोजफ था। शुरू में जब वह घोड़ा दूध कंपनी के पास आया तब उसका कोई नाम नहीं था।कंपनी ने पीयरे को सफेद घोड़े के इस्तेमाल की इजाजत दे दी। पियरे ने प्यार से घोड़े की गर्दन को सचलाया और उसकी आंखों में झांक कर देखा।
         'यह एक समझदार,भला और वफादार घोड़ा है,' पियरे ने कहा। 'मैं इनका नाम संत जोसफ के नाम पर रखूंगा क्योंकि वह एक नेक और दयालु इंसान थे।'
            साल भर के अंदर ही घोड़े ने सड़क का पूरा रास्ता रट लिया। पियरे अक्सर शेखी बघारता, 'मैं तो लगाम छूता तक नहीं हूं ।मेरे घोड़े को तो लगाम की जरूरत ही नहीं है ।
            तड़के सुबह 5:00 बजे ही पीयरे दूध की कंपनी में रोजाना पहुंच जाता। तब गाड़ी में दूध लादा जाता और फिर जोजफ उसे खींचता। पियरे अपनी सीट पर बैठते ही जोजफ को पुचकारता और घोड़ा अपना मुंह उसकी ओर घुमा देता। आसपास खड़े अन्य ड्राइवर कहते, 'सब कुछ ठीक-ठाक है पियरे जाओ।'इसके बाद पियरे और जोजफ इत्मीनान के साथ सड़क पर निकल पड़ते ।
        पियरे के इशारे के बिना ही गाड़ी अपने आप एडवर्ड स्ट्रीट पहुंच जाती । फिर घोड़ा पहले घर पर रुकता और पियरे को नीचे उतारकर दरवाजे के सामने एक बोतल दूध रखने के लिए करीब 30 सेकंड की मोहलत देता। घोड़ा फिर दूसरे घर पर रुकता ।
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           इस तरह पियरे और घोड़ा पूरी एडवर्ड की लंबाई को पार करते। फिर गाड़ी को घुमाकर दोनों वापस आते। सचमुच जोजफ बहुत होशियार घोड़ा था।
           अस्तबल में पियरे, जोजफ की तारीफ करते न थकता । 'मैं कभी उसकी लगाम छूता तक नहीं हूं।कहां-कहां रुकना है यह उसे अच्छी तरह मालूम है ।अगर जोजफ घोड़ा गाड़ी खींच रहा है, तो मेरी जगह अगर कोई अंधा आदमी भी हो, तो काम चल जाएगा।'
         वर्षों तक यही सिलसिला चलता रहा। पियरे और जोजफ धीरे-धीरे बूढ़े होने लगे  पियरे कि मूंछे अब पक कर सफेद हो गई थी ।जोजफ भी अब अपने घुटनों को उतना ऊंचा नहीं उठा पाता था। अस्तबल के सुपरवाइजर जैक को उनके बुढ़ापे का पता तब चला जब एक दिन पियरे लाठी के सहारे चलता हुआ आया।
      'क्या बात है पियरे,' जैक ने हंसकर पूछा। 'क्या तुम्हारी टांगों में दर्द है? 'हां जैक', पियरे ने जवाब दिया। "मैं अब बूढ़ा हो रहा हूं और पैर भी दर्द करने लग गए हैं।"
 'बस! तुम अपने घोड़े को दरवाजे पर दूध की बोतले रखना सिखा दो,' जैक ने कहा ।बाकी सारा काम तो वह करता ही है।
         एडवर्ड स्ट्रीट पर बसे सभी 40 परिवारों को पियरे अच्छी तरह जानता था। घर के नौकरों को मालूम था कि पियरे लिख-पढ़ नहीं सकता,इसलिए वह उसके लिए कोई चिट्ठी नहीं छोड़ते थे।अगर कभी दूध की और बोतलों की जरूरत होती,तो वह घोड़ा गाड़ी की आवाज सुनकर दूर से ही चिल्लाते, "पियरे,आज एक और बोतल देना।"
      पियरे की याददाश्त बहुत अच्छी थी।वापस अस्तबल पहुंचकर बिना गलती किए वह जैक को दूध का सारा हिसाब बता देता। जैक अपनी डायरी में तुरंत हिसाब नोट कर लेता था ।
           एक दिन दूध कंपनी का मैनेजर सुबह-सुबह अस्तबल का मुआयना करने पहुंचा। जैक ने पियरे की ओर इशारा करते हुए मैनेजर से कहा, 'जरा देखिए तो!पियरे किस तरह अपने घोड़े से बात करता है और घोड़ा भी कितने प्यार से अपना मुंह घुमाकर पियरे की बात सुनता है।पियरे और घोड़े में बड़ी गहरी दोस्ती है। इस रहस्य को बस यही दोनों जानते हैं।'
           कभी कभी तो ऐसा लगता है जैसे दोनों हम पर हैं रहे हो। पियरे भला आदमी है, पर बेचारा अब बूढ़ा हो रहा है। क्या मैं आपसे अर्ज करूं कि अब आप उसे रिटायर कर दें और उसकी पेंशन बांध दें? उसने उत्सुकता से पूछा।
           'बात तो तुम्हारी ठीक है,' मैनेजर ने कहा। 'पियरे अपना काम तीस साल से कर रहा है और कभी कहीं से कोई शिकायत नहीं आई है। उससे कहो कि अब वह घर पर बैठकर आराम करें।उसे हर महीने पूरी तनख्वाह मिलती रहा करेगी।'
          परंतु पियरे ने रिटायर होने से इनकार कर दिया। उसे इस बात से गहरा धक्का लगा कि वह अपने प्यारे घोड़े जोजफ से रोज नहीं मिल पाएगा। 'हम दोनों ही अब बूढ़े हो रहे हैं।' उसने जैक से कहा। 'हम दोनों अगर इकट्ठे ही रिटायर हो तो अच्छा होगा। मैं आपसे वादा करता हूं कि जब मेरा घोड़ा रिटायर होगा तब मैं भी काम छोड़ दूंगा।'
      जैक एक भला आदमी था। वह पियरे की बात समझ गया। पियरे और जोज के बीच रिश्ता ही कुछ ऐसा था जिसे देख दुनिया मुस्कुराने लगे।ऐसा लगता था मानो दोनों एक दूसरे का सहारा हो। जब पियरे गाड़ी की सीट पर बैठा हो,जोजफ गाड़ी खींच रहा हो, तब दोनों में से कोई भी बूढ़ा नहीं लगता था। लेकिन काम खत्म होने के बाद पियरे लंगड़ाते हुए सड़क पर इस तरह धीरे धीरे चलता, जैसे वह बहुत बूढ़ा आदमी हो।उधर घोड़े का भी मूल लटक जाता। वह हारा थका सा अस्तबल वापस जाता।
         सुबह-सुबह एक दिन जब पियरे आया तो जैक ने उसे एक बुरी खबर सुनाइ।'पियरे, आज सुबह जोजफ सोकर ही नहीं उठा। वह बहुत बुरा गया था। 25 साल की उम्र में घोड़े की वैसी हालत हो जाती है जैसे 75 साल के बूढ़े आदमी की होती है।
      'हां,' पियरे ने धीरे से कहा। 'अब जोजफ को कभी नहीं देख पाऊंगा।'
 'नहीं, तुम उसे देख सकते हो,' जैक ने दिलासा देते हुए कहा 'वह अभी अस्तबल में है और उसके चेहरे पर बड़ी शांति है । तुम जाकर उसे देख तो लो।'
         पियरे घर लौटने के लिए वापस मुड़ा, तुम समझोगे नहीं,जैक।'जैक ने उसका कंधा थपथपाया, 'फिक्र न करो। हम तुम्हारे लिए जोजफ जैसा ही एक और घोड़ा ढूंढ देंगे और महीने भर में तुम जोजफ की तरह उसे पूरा रास्ता सिखा देना....हैं न.....।'
           पियरे बरसों से एक मोटी टोपी पहनता था। टोपी के हुड से उसकी आंखें ढँक जाती थी। उसे उन आंखों में एक निर्जीव भाव दिखाई दिया। पियरे कि आंखों से उसके दिल का दर्द झलक रहा था। ऐसा लगता था जैसे उसका दिल रो रहा हो।
          'आज छुट्टी ले लो पियरे,'जैक ने कहा। परन्तु पियरे पहले ही घर वापस चल पड़ा था। अगर कोई उसके पास होता तो वह अवश्य पियरे की आंखों से लुढ़कते आंसू देखता और उसका सुबकना सुनता।पियरे एक कोना पार कर सीधा सड़क पर आ गया। उधर तेज़ी से आते ट्रक के ड्राइवर ने जोर से हॉर्न बजाया और दबा कर ब्रेक लगाया,लेकिन पियरे को कुछ सुनाई नहीं दिया।
                पांच मिनट बाद एंबुलेंस आई।उसके ड्राइवर ने कहा, 'यह आदमी मर चुका है।'
 तब तक जैक और दूध कंपनी के कई लोग वहां पहुंचे और पियरे के मृत शरीर को देखने लगे।
 ट्रक ड्राइवर ने गुस्से में कहा,'यह आदमी खुद ब खुद रख के सामने आ गया । शायद ट्रक दिखा ही नहीं। वह ट्रक के सामने इस तरह आया जैसे उसे कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा हो-जैसे वह एकदम अंधा हो।'
                      एंबुलेंस का डॉक्टर जब लाश की ओर झुका, 'अंधा! वह आदमी तो सचमुच अंधा था।जरा उसकी आंखों का मोतियाबिंद तो देखो?यह  कम से कम पांच साल से अंधा होगा।' फिर उसने जैक को तरफ मुड़ कर कहा, 'तुम कहते हो कि यह आदमी तुम्हारे लिए काम करता था? तुम्हें नहीं मालूम कि वह अंधा था?
'नहीं....नहीं,'जैक ने हलके से कहा। यह रहस्य हम में से किसी को नहीं पता था। सिर्फ उसके दोस्त जोजफ को पता था.....। उन दोनों के बीच की आपसी बात थी। सिर्फ.........उन दोनों के बीच की।'

                                                                                                  By- क्वेंटिन रेनॉल्ड


                                   सोना - महादेवी वर्मा

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सोना की आज अचानक स्मृति हो आने का कारण है। मेरे परिचित स्वर्गीय डॉक्टर धीरेंद्र नाथ बसु की पौत्री सुष्मिता ने लिखा है 'गत वर्ष अपने पड़ोसी से मुझे एक हिरण मिला था। बीते कुछ महीनों में हम उससे बहुत इसने करने लगे हैं, परंतु अब मैं अनुभव करती हूं कि सघन जंगल में सम्बद्ध रहने के कारण तथा बड़े हो जाने के कारण उसे घूमने के लिए अधिक विस्तृत स्थान चाहिए। क्या कृपा करके आप उसे स्वीकार करेंगी? सचमुच में आपकी बहुत आभारी रहूंगी,क्योंकि आप जानती हैं मैं उसे ऐसे व्यक्ति को नहीं देना चाहती जो उससे बुरा व्यवहार करे। मेरा विश्वास है,आपके यहां उसकी भली भांति देखभाल हो सकेगी ।
        कई वर्ष पूर्व मैंने निश्चय किया था कि अब हिरण नहीं पालूंगी परंतु आज उस नियम को भंग किए बिना इस कोमल प्राण की रक्षा संभव नहीं है ।
           सोना इसी प्रकार अचानक आई थी, परंतु वह अब तक अपनी शैशवावस्था भी पार नहीं कर सकी थी। सुनहरे रंग की रेशमी लक्ष्यों की गांठ के समान उसका कोमल लघु शरीर था ।छोटा सा मुंह और बड़ी-बड़ी पानीदार आंखें ।देखती तो लगता था कि अभी छलक पड़ेगी। लंबे कान, पतली सुडौल टांगे, जिन्हें देखते ही उनमें प्रस्तुत गति की बिजली की लहर देखने वालों की आंखों में कौंध जाती थी ।सब उसके सरल, शिशु रूप से इतने प्रभावित हुए कि किसी चंपकवर्णा रूपसी के उपयुक्त सोना, सुवर्णा ,स्वर्णलेखा आदि नाम उसका परिचय बन गए ।
         परंतु उस बेचारे हरिण-शावक की कथा तो मिट्टी की ऐसी व्यथा कथा है, जिसे मनुष्य की निषठुरता गढ़ती है। बेचारी सोना भी मनुष्य की इसी निष्ठुर मनोरंजन प्रियता के कारण अपने अरण्य परिवेश और स्वजाति से दूर मानव समाज में पड़ी थी ।
       प्रशांत वनस्थली में जब अलस भाव से रोमंथन करता हुआ बैठा मृग-समूह शिकारियों के आहट से चौक कर भागा, तब सोना की मां सद्य: प्रसूता होने के कारण भागने में असमर्थ रही। सद्य: जात मृग शिशु तो भाग नहीं सकता था , अतः मृगी मां ने अपनी संतान को अपने शरीर की ओट में सुरक्षित रखने के प्रयास में प्राण दिए।
        पता नहीं दया के कारण या कौतूकप्रियता के कारण शिकारी मृत हिरनी के साथ उसके रक्त से सने और ठंडे स्तनों से चिपके हुए शावक को जीवित उठा लाये। उनमें से किसी के परिवार की सदय ग्रहणी और बच्चों ने उसे पानी मिला दूध पिला पिला कर दो चार दो चार दिन जीवित रखा।
                सुष्मिता बसु के समान ही किसी बालिका को मेरा स्मरण हो आया और वह उस अनाथ शावक को मुमुरषु अवस्था में मेरे पास ले आई। शावक अवांछित तो था ही उसके बचने की आशा भी धूमिल थी ,परंतु उसे मैंने स्वीकार कर लिया। स्निग्ध सुनहरे रंग के कारण सब उसे सोना कहने लगे। दूध पिलाने की शीशी, ग्लूकोज, बकरी का दूध आदि सबकुछ एकत्र करके उसे पालने का कठिन अनुष्ठान आरंभ हुआ।
                उसका मूंह इतना छोटा था कि उनमें शीशी का निप्पल समाता ही नहीं था। उस पर उसे पीना भी नहीं आता था। फिर धीरे-धीरे उसे पीना ही नहीं दूध की बोतल पहचानना भी आ गया। आंगन में कूदते फानते हुए भी भक्तिन को बोतल साफ करते देखकर वह दौड़ आती और अपनी तरल चकित आंखों से उसे ऐसे देखने लगती मानो वह कोई सजीव मित्र हो ।
               उसने रात में मेरे पलंग के पाए से सटकर बैठना सीख लिया था,पर वहां गंदा न करने की आदत कुछ दिनों के अभ्यास से पढ़ सकी।अंधेरा होते ही वह मेरे पलंग के पास आ बैठी और फिर सवेरा होने पर ही वह बाहर निकलती।
               उसका दिन भर का कार्यकलाप भी एक प्रकार से निश्चित था।विद्यालय और छात्रावास की विद्यार्थियों के निकट पहले वह कौतुक का कारण रही, परंतु कुछ दिन बीत जाने पर वह उनकी ऐसी प्रिय साथिन बन गई,जिसके बिना उनका किसी काम में मन ही नहीं लगता था ।
          उसे छोटे बच्चे अधिक प्रिय थे,क्योंकि उनके साथ खेलने का अधिक अवकाश रहता था। वे पंक्तिबद्ध  खड़े होकर सोना सोना पुकारते और वह उनके ऊपर से छलांग लगाकर एक ओर से दूसरी ओर कूदती रहती। वह सर्कस जैसा खेल कभी घंटों चलता, क्योंकि खेल के घंटों में बच्चों की एक कक्षा के उपरांत दूसरी आती रहती।
            मेरे प्रति स्नेह प्रदर्शन के कई प्रकार थे। बाहर खड़े होने पर सामने या पीछे से छलांग लगाती मेरे सिर के ऊपर से दूसरी ओर निकल जाती। प्रायः देखने वालों को भय होता था कि मेरे सिर पर चोट न लग जाए,परंतु वह पैरों को इस प्रकार सिकोड़े  रहती और मेरे सिर को इतनी ऊंचाई से लांघती थी कि चोट लगने की कोई संभावना ही नहीं रहती थी।
                भीतर आने पर वह मेरे पैरों से अपना शरीर रगड़ने लगती। मेरे बैठे रहने पर वह साड़ी का छोर मुंह में भर लेती और कभी पीछे चुपचाप खड़े होकर छोटी ही चबा डालती। डांटने पर वह अपनी बड़ी गोल और चकित  आंखों से ऐसे अनिर्वचनीय जिज्ञासा भरकर एकटक देखने लगती की हंसी आ जाती ।
          अनेक विद्यार्थियों की भारी-भरकम गुरुजी से सोना को क्या लेना देना था। वह तो उस दृष्टि को पहचानती थी, जिसमें उसके लिए स्नेह छलकता था और उन हाथों को जानती थी जिन्होंने यत्न पूर्वक दूध की बोतल उसके मुख से लगाई थी ।
          यदि सोना को अपने स्नेह की अभिव्यक्ति के लिए मेरे सिर के ऊपर से कूदना आवश्यक लगेगा तो वह कुदेगी ही। मेरी किसी अन्य परिस्थिति से प्रभावित होना, उसके लिए संभव नहीं था।
                      कुत्ता स्वामी और सेवक का अंतर जानता है और स्नेह या क्रोध की प्रत्येक मुद्रा से परिचित रहता है ।स्नेह से बुलाने पर वह गदगद होकर निकट आ जाता है और क्रोध करते ही सभीत और दयनीय बन कर दुबक जाता है, पर हिरण्य अंतर नहीं जानता। अत: उसका पालने वाले से डरना कठिन है। यदि उस पर क्रोध किया जाए तो वह अपनी चकित आंखों में और अधिक विस्मय भरकर पालने वाले की दृष्टि से दृष्टि मिला कर खड़ा रहेगा,मानो पूछता हो क्या यह उचित है। वह केवल इसने पहचानता है जिसकी स्वीकृति बताने के लिए उसकी विशेष चेष्टाएं हैं।
         मेरी बिल्ली गोधूलि ,कुत्ते हेमंत-बसंत ,कुतिया फ्लोरा सबसे पहले इस नए अतिथि को देखकर रुष्ट हुए,परंतु सोना ने थोड़े ही दिनों में सबसे सख्य स्थापित कर लिया। फिर तो वह घास पर लेट जाती और कुत्ते और बिल्ली उस पर उछलते कूदते रहते। कोई उसके कान खींचता, कोई पैर और जब वे इस खेल में तन्मय हो जाते तब वह अचानक चौकड़ी भरकर भागती और वे गिरते-पड़ते उसके पीछे दौड़ लगाते ।
     वर्ष भर समय बीत जाने पर सोना हरिणी में परिवर्तित होने लगी। उसके शरीर के पिताभ रोएं ताम्रवर्णी झलक देने लगे। टांगे अधिक सुडौल और खुरों के कालेपन में चमक आ गई। ग्रीवा अधिक बंकिम और लचीली हो गई। पीठ में भराव वाला उतार-चढ़ाव और स्निग्धता दिखाई देने लगी । परंतु सबसे अधिक विशेषता तो उसकी आंखों और दृष्टि में मिलती थी। आंखों के चारों ओर खिंची  कज्जलकोर में नीले गोलक और दृष्टि ऐसी लगती थी मानो नीलम के बल्बों में उजली विद्युत का स्फूरण हो ।
           इसी बीच फ्लोरा ने भक्तिन की कुछ अंधेरी कोठरी के एकांत कोने में चार बच्चों को जन्म दिया और वह खेल के संगियों को भूलकर अपनी नवीन सृष्टि के संरक्षण में व्यस्त हो गई ।एक-दो दिन सोना अपनी सखी को खोजती रही,फिर उसको इतने लघु जीवो से घिरा देख उसकी स्वभाविक चकित दृष्टि गंभीर विस्मय से भर गई
          एक दिन देखा फ्लोरा कहीं बाहर घूमने गई है और सोना भक्तिन की कोठरी में निश्चिंत लेटी है ।पिल्ले आंखें बंद कर रहने के कारण ची-ची करते हुए सोना की उदर में दूध खोज रहे थे। तब से सोना के नित्य के कार्यक्रम में पिल्लों के बीच में लेट जाना भी सम्मिलित हो गया। आश्चर्य की बात यह थी कि फ्लोरा हेमंत -बसंत या गोधुली को तो अपने बच्चों के पास फटकने भी नहीं देती थी परंतु सोना के संरक्षण में उन्हें छोड़कर आश्वस्त भाव से इधर-उधर घूमने चली जाती थी ।
          संभवतः वह सोना की स्नेही और अहिंसक प्रकृति से परिचित हो गई थी।
                पिल्लों के बड़े होने पर और उनकी आंखें खुल जाने पर सोना ने उन्हें भी अपने पीछे घूमने वाली सेना में सम्मिलित कर लिया और मानो इस वृद्धि के उपलक्ष्य में आनंद उत्सव मनाने के लिए अधिक देर तक मेरे सिर से आरपार चौकड़ी भरती रही।
                     उसी वर्ष गर्मियों में मेरा बद्रीनाथ की यात्रा का कार्यक्रम बना। प्रायः मैं अपने पालतू जीव के कारण प्रवास में कम रहती हूं ।उनकी देखरेख के लिए सेवक रहने पर भी मैं उन्हें छोड़कर आश्वस्त नहीं हो पाती। भक्तिन,अनुरूप आदि तो साथ जाने वाले थे ही। पालतू जीवो में से मैंने फ्लोरा को साथ ले जाने का निश्चय किया, क्योंकि वह मेरे बिना नहीं रह सकती थी।
                   सोना की सहज चेतना में न मेरी यात्रा जैसी स्थिति का बोध था न प्रत्यावर्तन का,उसी से उसकी निराश जिज्ञासा और विश्नोई का अनुमान मेरे लिए साहस था।
                पैदल आने-जाने के निश्चय के कारण बद्रीनाथ की यात्रा में ग्रीष्म अवकाश समाप्त हो गया। जुलाई को लौटकर जब मैं बंगले के द्वार पर आ खड़ी हुई तब बिछड़े हुए पालतू जीवो में कोलाहल होने लगा।
                 गोधूलि मेरे कंधे पर आ बैठी । हेमंत,बसंत मेरे चारों ओर परिक्रमा करके हर्ष की ध्वनियों से मेरा स्वागत करने लगे ।पर मेरी दृष्टि से ना को खोजने लगी। क्योंकि वह अपना उल्लास व्यक्त करने के लिए मेरे सिर के ऊपर से छलांग नहीं लगाती। सोना कहां है, पूछने पर माली आंखें पोंछने लगा और चपरासी चौकीदार एक-दूसरे का मुंह देखने लगे। वे लोग आने के साथ ही मुझे कोई दुखद समाचार नहीं देना चाहते थे, परंतु माली की भावुकता ने बिना बोले ही उसे दे डाला।
          ज्ञात हुआ कि छात्रावास के सन्नाटे और फ्लोरा के तथा मेरे अभाव के कारण इतनी अस्थिर हो गई थी कि इधर-उधर कुछ खोजती सी वह प्रायः कंपाउंड से बाहर निकल जाती थी । इतनी बड़ी हिरनी को पालने वाले तो कम थे ,परंतु उसका खाद्य और स्वाद प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्तियों का बाहुल्य था ।इसी आशंका से माली ने उसे मैदान में एक लंबी रस्सी से बांधना आरंभ कर दिया था ।
           एक दिन न जाने किस स्तब्धता की स्थिति में बंधन की सीमा भूलकर वह बहुत ऊंचाई तक उछली और मुंह के बल आ गिरी ।वही उसकी अंतिम सांस और अंतिम उछाल थी।
         सब सुनहले रेशम की गठरी से शरीर को गंगा में प्रवाहित कर आये और इस प्रकार किसी निर्जन वन में जन्मी और जन संकुलता में  पली सोना की करुण कथा का अंत हुआ ।
          सब सुनकर मैंने निश्चय किया था कि अब हिरन नहीं पालूंगी, पर संयोग से फिर हिरण पालना पड़ रहा है।

                                                                                              By - Mahadevi Verma

लेखिका परिचय- महादेवी वर्मा का जन्म सन 1907 में फर्रुखाबाद में हुआ था ।उन्होंने गद्य और पद्य दोनों में सुंदर रचनाएं की है। स्मृति की रेखाएं ,अतीत के चलचित्र ,पथ के साथी, मेरा परिवार ,इन की प्रसिद्ध गद्य रचनाएं हैं। सन 1987 ईस्वी में प्रयाग में में प्रयाग में इनका निधन हो गया।



                       एक स्त्री का पत्र- रविन्द्र नाथ टैगोर

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पूज्यवर,
         आज 15 साल हो गए हमारे ब्याह को । हम तब से साथी ही रहे।अब तक चिट्ठी लिखने का मौका नहीं मिला। तुम्हारे घर की मछली बहुत जगन्नाथपुरी आई थी तीर्थ जगन्नाथपुरी आई थी तीर्थ करने ।
              आई तो जाना की दुनिया और भगवान के साथ मेरा एक और नाता भी है ,इसलिए आज चिट्ठी लिखने का साहस कर रही हूँ। इसे मझली बहू की चिट्ठी न समझना ।
           वह दिन याद आता है, जब तुम लोग मुझे देखने आए थे। मुझे बारहवां साल लगा था।सुदूर गांव में हमारा घर था ।पहुंचने में कितनी मुश्किल हुई तुम सबको ।मेरे घर के लोग आवभगत करते करते हो गए।
               विदाई की करूण धुन गूंज उठी। मैं मझली बहू बनकर तुम्हारे घर आई ।सभी औरतों ने नई दुल्हन को जांच परख कर देखा ।सब को मानना पड़ा बहुत सुंदर है ।
         मैं सुंदर हूं, यह तो तुम लोग जल्दी भूल गए। पर मुझ में बुद्धि है,यह बात तुम लोग चाह कर भी ना भूल सके।मां कहती थी, औरतों के लिए तेज दिमाग भी एक बला है।
         लेकिन मैं क्या करूं। तुम लोगों ने तो उठते बैठते कहा, 'यह बहुत तेज है ।'
       लोग बुरा भला कहते हैं सो कहते रहें। मैंने सब माफ कर दिया ।
        मैं छुप-छुपकर कविता लिखती थी। कविताएं थी तो मामूली, लेकिन उनमें मेरी अपनी आवाज थी। वे कविताएं तुम्हारे रीति-रिवाजों के बंधनों से आजाद थीं।
             मेरी नन्ही बेटी को छीनने के लिए मौत मेरे बहुत पास आयी। उसे ले गई पर, मुझे छोड़ गई ।मां बनने का दर्द मैंने उठाया, पर मां कहलाने का सुख न पा स्किन।
      इस हादसे को भी पार किया । फिर से जुट गई रोजमर्रा के कामकाज में । गाय-भैंस ,सानी-पानी में लग गई ।तुम्हारे घर का माहौल रुखा और घुटन भरा था । यह गाय-भैंस ही मुझे अपने से लगते थे ।इसी तरह शायद जीवन बीत जाता।
         आज का यह पत्र लिखा ही नहीं जाता ।लेकिन अचानक मेरी गृहस्थी में जिंदगी का एक बीज आ गीरा। यह बीज जड़ पकड़ने लगा और गृहस्थी की पकड़ ढीली होने लगी । जेठानी जी की बहन ,बिंदु अपनी मां के गुजरने पर, हमारे घर आ गयी।
         मैंने देखा तुम सभी परेशान थे ।जेठानी जी के पीहर की लड़की,न रूपवती न धनवती। जेठानी दीदी इस समस्या को लेकर उलझ गयी। एक तरफ बहन का प्यार तो एक तरफ ससुराल की नाराजगी।
              अनाथ लड़की के साथ ऐसा रूखा बर्ताव होते देख मुझसे रहा ना गया । मैंने बिंदु को अपने पास जगह दी।जेठानी दीदी ने चैन की सांस ली ।गलती का बोझ मुझ पर आ पड़ा ।
          पहले मेरा स्नेह पाकर बिन्दु सकुचाती थी पर धीरे-धीरे वह मुझे बहुत प्यार करने लगी । बिंदु ने प्रेम का विशाल सागर मुझपर उड़ेल दिया। मुझे कोई इतना प्यार और सम्मान दे सकेगा, यह मैंने सोचा भी न था।
           बिंदु को जो प्यार दुलार मुझसे मिला वह तुम लोगों को फूंटी आंखों न सुहाया  याद आता है वह दिन, जब बाजूबंद गायब हुआ। बिंदु पर चोरी का इल्जाम लगाने में तुम लोगों को पल भर भी झिझक न हुई हुई भी झिझक न हुई हुई ।
      बिंदु के बदन पर जरा सी लाल घमौरी क्या निकली, तुम लोग झूठ बोले-चेचक। किसी इल्जाम का सुबूत न था। सुबूत के लिए उसका बिंदु होना ही काफी था ।
       बिंदु बड़ी होने लगी । साथ-साथ तुम लोगों की नाराजगी भी बढ़ने लगी। जब लड़की को घर निकालने की हर कोशिश नाकाम हुई तब तुमने उसका ब्याह तय कर दिया।
      लड़के वाले लड़की देखने तक ना आए। तुम लोगों ने कहा ब्याह लड़की के घर से होगा ।यही उनके घर का रिवाज है ।
        सुनकर मेरा दिल कांप उठा । ब्याह के दिन तक बिंदु अपनी दीदी के पांव पकड़कर बोली, "दीदी मुझे इस तरह मत निकालो। मैं तुम्हारी गौशाला में पड़ी रहूंगी ।जो कहोगी सो करूंगी ...।"
       बेसहारा लड़की सिसकती हुई मुझसे बोली,"दीदी क्या मैं सचमुच अकेली हो गई हूं?" मैंने कहा, "ना बिंदी ना। तुम्हारी जो भी दशा हो, मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं। जेठानी दीदी की आंखों में आंसू थे ।उन्हें रोक कर वह बोली, "बिंदिया याद रख पति ही पत्नी का परमेश्वर है"
        तीन दिन हुए बिंदु के ब्याह को ।सुबह गाय भैंस को देखने गौशाला में गई तो देखा एक कोने में पड़ी थी बिन्दु।  मुझे देख कर फफककर रोने लगी।
      बिन्दू ने कहा कि उसका पति पागल है। बेरहम सास और पागल पति से बचकर वह बड़ी मुश्किल से भागी।
        गुस्से और घृणा से मेरे तन बदन में आग लग गई। मैं बोल उठी, "इस तरह का धोखा भी भला कोई ब्याह है ? तू मेरे पास ही रहेगी ।देखूं तुझे कौन ले जाता है।"
            तुम सबको मुझ पर बहुत गुस्सा आया। सब कहने लगे, "बिंदु झूठ बोल रही है।" कुछ ही देर में बिंदु के ससुराल वाले उसे लेने आ पहुंचे ।
         मुझे अपमान से बचाने के लिए बिंदु खुद ही उन लोगों के सामने आ खड़ी हुई । वे लोग बिंदु को ले गए। मेरा दिल दर्द से चीख उठा ।
        मैं बिंदु को रोक न सकी। मैं समझ गई कि चाहे बिंदु मर भी जाए वह अब कभी हमारी शरण में नहीं आएगी ।
         तभी मैंने सुना कि बड़ी बुआ जी जगन्नाथपुरी तीर्थ करने जाएगी। मैंने कहा, "मैं भी साथ जाऊंगी।" तुम सब यह सुनकर खुश हुए।
            मैंने अपने भाई शरत को बुला भेजा ।उससे बोली,"भाई अगले बुधवार को मैं पूरी जाऊंगी जैसे भी हो बिंदु को भी उसी गाड़ी में बिठाना होगा।
       उसी दिन शाम को शरत लौट आया ।उसका पीला चेहरा देखकर मेरे सीने पर सांप लोट गया। मैंने सवाल किया, 'उसे राजी नहीं कर पाए?'
       उसकी जरूरत नहीं।बिंदु ने कल अपने आप को आग लगाकर आत्महत्या कर ली।शरत ने उत्तर दिया। मैं स्तब्ध रह गई। मैं तीर्थ करने जगन्नाथपुरी आयी हूं। बिन्दु को यहां तक आने की जरूरत नहीं पड़ी। लेकिन मेरे लिए यह जरूरी था ।
       जिसे लोग दुख कष्ट कहते हैं वह मेरे जीवन में नहीं था। तुम्हारे घर में खाने पीने की कभी कमी नहीं हुई। तुम्हारे बड़े भैया का चरित्र जैसा भी हो, तुम्हारे चरित्र में कोई खोट ना था ।मुझे कोई शिकायत नहीं है ।लेकिन अब मैं लौट कर तुम्हारे घर नहीं जाऊंगी ।मैंने बिंदु को देखा ।घर गृहस्ती में लिपटी औरत का परिचय पा चुकी। अब मुझे उसकी जरूरत नहीं ।मैं तुम्हारी चौखट लांघ चुकी ।इस वक्त मैं अनन्त नीले समुद्र के सामने खड़ी हूं ।
          तुम लोगों ने अपने रीति रिवाजों के परदे में मुझे बंद कर दिया था। न जाने कहां से बिंदु ने इस पर्दे के पीछे झांककर मुझे देख लिया और उसी बिंदु की मौत ने हर पर्दा गिरा कर मुझे आजाद किया। मझली बहू खत्म हुई ।
       क्या तुम सोच रहे हो कि मैं अब बिंदु की तरह मरने वाली हूं। मैं तुम्हारे साथ ऐसा पुराना मजाक नहीं करूंगी।
        मीराबाई भी मेरी तरह औरत थी उसके बंधन भी कम नहीं थे ।उनसे मुक्ति पाने के लिए उसे आत्महत्या तो नहीं करनी पड़ी। मुझे अपने आप पर भरोसा है ।मैं जी सकती हूँ। मैं जीऊंगी ।
                                                                                                       -तुम लोगों के आश्रय से मुक्त

                                                                                                      By- Rabindranath Tagore

लेखक परिचय - रवींद्रनाथ टैगोर भारत के महान कथाकारों में से एक हैं। कविता,चित्र-कला और संगीत की दुनिया में भी उनका अपना विशेष स्थान है। लिखने का अति सरल ढंग अपनाते हुए उन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों जैसे किसानों और जमीदारों के विषय में लिखा। जातिवाद, भ्रष्टाचार और निर्धनता जैसी सामाजिक बुराइयां उनकी रचनाओं का अभिन्न अंग बनी रहीं। रविंद्र नाथ टैगोर का जन्म सन 1861 ईसवी में पश्चिम बंगाल के एक धनी जमींदार परिवार में हुआ था। अपने लंबे लेखन काल में उन्होंने 90 से अधिक लघु कथाओं की रचना की। स्त्री का पत्र उन्हीं कथाओं में से एक है। सन 1941 ईस्वी में में उनकी मृत्यु हुई।
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                                 कौन बनेगा निगन्थउ?


बहुत बहुत पहले की बात है। मणिपुर के कांगलईपाक राज्य में एक निगंथऊ और एक लेइमा, राजा और रानी रहते थे। सब उन्हें बहुत प्यार करते थे।
        निगंथऊ और लेइमा अपने मियम,प्रजा का बड़ा ख्याल रखते थे। 'हमारे मियम सुखी रहें', वे कहते । 'कांगलईपाक में शांति हो।' वहां के पशु-पक्षी भी अपने राजा-रानी को बहुत चाहते थे।  निगंथऊ और लेइमा हमेशा कहते: "कांगलईपाक में सभी को खुश रहना चाहिए  सिर्फ मनुष्यों को ही नहीं, पक्षियों, जानवरों और पेड़-पौधों को भी।"
                निगंथऊ और लेइमा के बच्चे नहीं थे। लोगों की एक ही प्रार्थना थी, 'हमारे निगंथऊ और लेइमा का एक पुत्र हो।हमें अपना तुंगी निगंथऊ मिल जाय, हमारा युवराज।
                फिर एक दिन, लेइमा ने एक पुत्र, एक मौचानिपा, को जन्म दिया । लोग बहुत खुश थे। सब अपने युवराज को देखने आए। बच्चे का सिर चूमकर उन्होंने कहा-"कितना सुंदर बेटा है, कितना सुंदर बेटा है।" राज्य में धूम मच गई ।लोग ढोलों की ताल पर नाच उठे, बांसुरी मीठी धुनें छेड़ी।
                उस वक्त उन्हें पता नहीं था कि अगले साल भी उसी तरह जश्न मनाया जाएगा। और उसके अगले साल फिर। हाँ, निगंथऊ और लेइमा का एक और बेटा हुआ। फिर एक और।
         अब उनके प्रिय राजा-रानी के तीन बेटे थे। सानाजाऊबा, सानायाइमा और सानातोम्बा।
        बारह साल बाद,उनकी एक पुत्री हुई। उसका नाम  सानातोम्बी रखा गया। बड़ी प्यारी थी, वह कोमल दिल वाली ।सभी उसे बहुत चाहते थे ।
        कई साल बीत गए बच्चे जवान हुए। एक दिन निगंथऊ ने मंत्रियों को बुलाकर कहा-'अब वक्त आ गया है। हमें घोषणा करनी होगी कि कौन तुम्हारा युवराज बनेगा, तुम्हारा तुंगी  निगंथऊ।
        'इतनी जल्दी क्यों?' आश्चर्य से मंत्रियों ने एक दूसरे से पूछा । पर जब उन्होंने करीब से निगंथऊ को देखा, उन्हें भी लगा कि हां, वह सचमुच बूढ़े हो चुके थे। यह देखकर वे दुखी हो गए।
       'अब मुझे तुम्हारा युवराज चुनना ही है,' निगंथऊ ने कहा ।
   मंत्री हक्के बक्के रह गए। 'पर है निगंथऊ, चुनाव की क्या जरूरत है? सानाजाउबा, आपका सबसे बड़ा पुत्र ही तो राजा बनेगा।'
        'हां' निगंथऊ ने जवाब दिया। 'पुराने जमाने में ऐसा होता था।सबसे बड़ा बेटा ही सबसे हमेशा राजा बनता था। लेकिन अब समय बदल गया है ।इसलिए हमें उसे चुनना है जो राजा बनने के लिए सबसे योग्य है।
     'चलो, राजा चुनने के लिए एक प्रतियोगिता रखते हैं,' लेइमा ने कहा।
        और तब कांगलइपाक में एक मुकाबला रखा गया, एक घुड़दौड़। जो भी उस खोगनंग तक,बरगद के पेड़ तक, सबसे पहले पहुंचेगा युवराज उसे ही बनाया जाएगा।
          लेकिन एक अजीब बात हुई।सानाजाऊबा, सानायाइमा और सानातोम्बा---तीनों ने दौड़ एक साथ खत्म की।कौन जीता,कौन हारा, कहना मुश्किल था।
       'देखो, देखो!' लोगों में शोर मच गया। 'कितने अच्छे घुड़सवार।'
          मगर सवाल वहीं का वहीं रहा--तुंगी निगंथऊ कौन बनेगा? 
     निगंथऊ और लेइमा ने अपने बेटे को बुलाया। निगंथऊ ने कहा- "सानाजाऊबा, सानायाइमा और सानातोम्बा, तुमने यह साबित कर दिया कि तुम तीनों ही अच्छे घुड़सवार हो। अब अपने-अपने तरीके से कुछ करो ताकि हम तुम में से युवराज चुन सके।"
        लड़कों ने राजा,रानी व लोगों को प्रणाम किया और अपने घोड़ों के पास चले गए। एक दूसरे को देख कर मुस्कुराए। मगर मन ही मन तीनों यही सोच रहे थे कि क्या खास किया जाए ।
           अचानक,हाथ में बरछा लिए, सानाजाउबा अपने घोड़े पर सवार हो गया। उसने चारों तरफ देखा। लोगों में सन्नाटा-सा छा गया।' सानाजाउबा सबसे बड़ा राजकुमार, अब क्या कर दिखाएगा?' उन्होंने सोचा।
            सानाजाउबा ने दूर खड़े शानदार खोगनंग को ध्यान से देखा। उसने घोड़े को एक एड़ लगाई और घोड़ा झट से दौड़ पड़ा। वह तेज और तेज पेड़ की ओर बढ़ा।
'शाबाश!शाबाश!'सब चिल्लाए। 'थाउरो! थाउरो!' और फिर एकदम शांत हो गए।
             सानाजाउबा धड़धड़ाता हुआ खोगनंग के पास पहुंचा। इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता, वह पेड़ को भेद कर घोड़े समेत उसके अंदर से निकल गया।
           'थाउरो! थाउरो! लोगों ने फिर चिल्लाया।
       अब दूसरे राजकुमार, सानायाइमा की बारी थी। वह भला क्या करेगा?
           सानायाइमा ने भी खोगनंग को गौर से देखा। फिर उसने भी घोड़ा दौड़ाया,बहुत तेज। सांस थामे सब चुपचाप देख रहे थे।पेड़ के नजदीक आकर उसने घोड़े को कूदने के लिए एड़ लगाई। दोनों ऊपर कूदे,इतने ऊंचे की एक अद्भुत छलांग में वे उस विशाल वृक्ष को पार कर दूसरी ओर पहुंच गए। देखने वाले दंग रह गए।
 "कमाल है!कमाल है!" वे चिल्लाये।
                 और अब बारी थी छोटे राजकुमार, सानातोम्बा, की। उसने भी खोगनंग की ओर घोड़ा दौड़ाया, और पलक झपकते ही उसे जड़ से उखाड़ डाला। बड़ी शान से फिर उसने पेड़ को उठाया और निगंथउ और लेइमा के सामने जाकर रख दिया।
          बाप रे,इतना हंगामा मच गया- 'थाउरो! थाउरो! शाबाश! शाबाश! की आवाजें पास के पहाड़ों से गूंज उठीं।
             अब आप ही बताओ तुंगी निगंथउ किसे बनाना चाहिए?
सानाजाउबा?
सानायाइमा?
सानातोम्बा?
 पेड़ को भेदकर कूदने वाला?
 पेड़ के ऊपर से छलांगलगाने वाला?
 या फिर,पेड़ को उखाड़ने वाला?
 ज्यादातर लोग सानातोम्बा को चाहते थे। क्या वह सबसे बलवान नहीं था? उसी ने तो इतने बड़े खोगनंग को आसानी से उठा लिया था।
           लोग बेचैन होने लगे। निगंथउ और लेइमा अपना फैसला सुनाने में क्यों इतनी देर लगा रहे थे? वे कर क्या रहे थे?
          निगंथउ और लेइमा सानातोम्बी  को देख रहे थे।पांच साल की उनकी बेटी उदास और अकेली खड़ी थी।वह जमीन पर पड़े खोगनंग को देख रही थी। पेड़ के आसपास पक्षी फड़फड़ा रहे थे। घबराए हुए, वे अपने घोंसले ढूंढ रहे थे।
          सानातोम्बी खोगनंग के पास गई। 'खोगनंग मर गया,' वह धीरे से बोली। उसे बरछे से चोट लगी, और अब वह मर गया।
 सन्नाटा छा गया।
लेइमा ने सानातोम्बी को पास जाकर उसे बाहों में भर लिया।फिर कहा 'निगंथउ वही है जो देखे कि राज्य में सब खुश हैं। निगंथउ वही है जो राज्य में किसी को भी नुकसान न पहुंचाएं।
 सब चौकन्ना होकर सुन रहे थे।
निगंथउ उठ खड़े हुए।उन्होंने अपने तीनों बेटों को देखा। फिर बेटी को देखा। उसके बाद अपनी प्रजा से कहा,'अगर कोई शासक बनने योग्य है,तो वह है छोटी सानातोम्बी। खोगनंग को चोट लगी तो उसे भी दर्द हुआ। उसी ने हमें याद दिलाया कि खोगनंग में भी जान है। सानातोम्बी दूसरों का दर्द समझती है। उसे मनुष्य, पेड़-पौधे,जानवर,पक्षी-- सबकी तकलीफ महसूस होती है।
         'मेरे बाद  सानातोम्बी ही राज्य संभालेगी। मैं उसे कांगलइपाक की अगली लेइमा घोषित करता हूं'निगंथउ ने ऐलान किया।
          सभी ने मुड़कर उस छोटी लड़की, अपनी होने वाली रानी, को देखा। पांच साल की बच्ची यूं खड़ी थी जैसे खुद एक नन्हा-सा खोगनंग हो। उसके चारों तरफ पक्षी फड़फड़ा रहे थे। कुछ उसके कंधों पर आ बैठे,कुछ सिर पर। उसने दानों से भरे अपने छोटे हाथ फैलाए, और धीरे-धीरे पास आकर पक्षी दाने चुगने लगे।



                             दुःख का अधिकार-यशपाल 

मनुष्यों की पोशाकेन उन्हें विभिन्न श्रेणियों में बांट देती है। प्रायः पोशाक ही समाज में मनुष्य का अधिकार और उसका दर्जा निश्चित करती है। वह हमारे लिए अनेक बन्द दरवाजे खोल देती है परन्तु कभी ऐसी भी परिस्थिति आ जाती है कि हम जरा नीचे झुककर समाज की अनुभूति को समझना चाहते हैं, उस समय वह पोशाक ही बन्धन और बड़प्पन बन जाती है। जैसे वायु की लहरें कटी हुई पतंग को सहसा भूमि पर नहीं गिर जाने देती उसी तरह खास परिस्थितियों में हमारी पोशाक हमें झुक सकने से रोके रहती है।
             बाजार में, फुटपाथ पर कुछ खरबूजे डलिया पर कुछ जमीन पर बिक्री के लिए रखे थे । खरबूजे के समीप एक अधेड़ उम्र की औरत  बैठी रो रही थी ।  खरबूजे बिक्री के लिए थे, परंतु उन्हें खरीदने के लिए कोई कैसे आगे बढ़ता । खरबूजे को बेचने वाली तो कपड़े से मुंह छिपाए सिर को घुटने पर रखे फफक फफक कर रो रही थी।
               पड़ोस की दुकानों के तख्तों पर बैठे या बाजार में खड़े लोग घृणा से उस स्त्री के संबंध में बात कर रहे थे । उस स्त्री का रोना देख कर मन में एक व्यथा सी उठी पर उसके रोने का कारण जानने का उपाय क्या था ।
फुटपाथ पर उसके समीप बैठ सकने में मेरी पोशाक ही व्यवधान बन खड़ी हो गई । एक आदमी ने घृणा से एक तरफ ठोकते हुए कहा , "क्या जमाना है । जवान लड़के को मरे पूरा दिन नहीं बीता और यह बेहया दुकान लगाकर बैठी है ।" दूसरे साहब अपनी दाढ़ी खुजाते हुए कह रहे थे, 'अरे जैसी नियत होती है अल्लाह भी वैसी ही बरकत देता है । सामने के फुटपाथ पर खड़े एक आदमी ने दिया सलाई की तीली से कान खुजाते हुए कहा, 'अरे इन लोगों का क्या है । यह कमीने लोग रोटी के टुकड़े पर जान देते हैं । इनके लिए बेटा-बेटी,खसम, लुगाई ,धर्म-ईमान सब रोटी का टुकड़ा है । परचून की दुकान पर बैठे लाल जी ने कहा, ' अरे भाई उनके लिए मरे जिए का कोई मतलब ना हो पर दूसरे के धर्म ईमान का तो ख्याल रखना चाहिए ।जवान बेटे के मरने पर 13 दिन का सूतक होता है और यहां सड़क पर बाजार में आकर खरबूजे बेचने बैठ गई है । हजार आदमी आते जाते हैं । कोई क्या जानता है कि इसके घर में सूतक है । कोई इसके खरबूजे खा ले ले तो उसका धर्म ईमान कैसे रहेगा? क्या अंधेर है।
पास पड़ोस की दुकानों से पूछने से पता लगा उसका 23 बरस का जवान लड़का था । घर में उसकी बहू और पोता पोती है । लड़का शहर के पास डेढ़ बीघा जमीन में कछियारी करके परिवार का निर्वाह करता था। खरबूजो की डलिया बाजार में पहुंचाकर कभी लड़का स्वयं सौदे के पास बैठ जाता कभी मां बैठ जाती।
      लड़का परसों सुबह मुंह-अंधेरे बेलों में से पके खरबूजे चुन रहा था।  गीली मेड़ की तरावट में विश्राम करते हुए एक सांप पर लड़के का पैर पड़ गया। सांप ने लड़के को डस लिया।
      लड़के की बुढ़िया मां बावली होकर ओझा को बुला लाई झाड़ना फुकना हुआ। नाग देव की पूजा हुई । पूजा के लिए दान दक्षिणा चाहिए । घर में कुछ आटा और अनाज था, दान दक्षिणा में उठ गया। मां बहू और बच्चे भगवाना से लिपट लिपट कर रोए और भगवाना जो एक दफे चुप हुआ तो फिर ना बोला। सर्प के विष से उसका सब बदन काला पड़ गया था।
जिंदा आदमी नंगा भी रह सकता है । परंतु मुर्दे को नंगा कैसे विदा किया जाए। उसके लिए बाजार की दुकान से नया कपड़ा तो लाना ही होगा। चाहे उसके लिए मां के हाथों की छन्नी ककना ही क्यों न बिक जाए भगवाना परलोक चला गया घर में जो कुछ चूनी भूसी थी सोउसे विदा करने में चली गई बाप नहीं रहा तो क्या। लड़के सुबह उठते ही भूख से बिलबिलाने लगे। दादी ने उन्हें खाने के लिए खरबूजे दे दिए ,लेकिन बहू को क्या देती । बहू का बदन बुखार से तवे की तरह तप रहा था। अब बेटे के बिना बुढ़िया को दुवन्नी-चवन्नी भी कौन उधार देता। बुढ़िया रोते-रोते और आंखें पोछते-पोछते भगवाना के बटोरे हुए खरबूजे डलिया में समेटकर बाजार की ओर चली।और चारा भी क्या था?
  बुढ़िया खरबूजे बेचने का साहस करके आई थी, परंतु सिर पर चादर लपेटे हुए फफक-फफक कर रो रही थी।
कल जिसका बेटा चल बसा, आज बाजार में सौदा बेचने चली है, हाय रे पत्थर दिल।
उस पुत्र वियोगिनी के दुःख का अंदाजा लगाने के लिए पिछले साल अपने पड़ोस में पुत्र की मृत्यु से दुखी माता की बात सोचने लगा। वह संभ्रांत महिला पुत्र की मृत्यु के बाद अढ़ाई मास तक पलंग से उथ न सकी थी। उन्हें 15-15  मिनट बाद पुत्र वियोग से मूर्छा आ जाती थी और मूर्छा ना आने की अवस्था में आंखों से आंसू ना रुकते थे। दो-दो डॉक्टर हरदम सिरहाने बैठे रहते थे । हरदम सिर पर बर्फ रखी जाती थी। शहर भर के लोगों के मन उस पुत्र शॉप से द्रवित हो उठते थे।
      जब मन को सूझ का रास्ता नहीं मिलता तो बेचैनी से कदम तेज हो जाते हैं । उसी हालत में नाक ऊपर उठाए राह चलने से ठोकरें खाता मैं चला जा रहा था । सोच रहा था .......
शोक करने,गम मनाने के लिए भी सहूलियत चाहिए और... दुखी होने का भी एक अधिकार होता है ।
    

                                रांझणा का सच- कशिश 

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(नोट यह कोई कहानी नहीं है। धनुष और सोनम कपूर स्टारर बॉलीवुड फिल्म रांझणा की सच्चाई पे लिखा एक लेख मात्र है, लेकिन यह कई जिंदगी की सच्चाईयों और उनकी सच्ची कहानियों को कहीं न कहीं छुता है। इसे इस रिस्क के साथ ही पढ़ें )

 बॉलीवुड में एक फ़िल्म आयी थी "रांझणा"। धनुष,सोनम कपूर और अभय देओल की ये फ़िल्म अपने वक्त में नौजवानों के दिलों पर छा गयी थी। या यूं कहा जाए आज भी किसी नौजवान नौछेड़िये को दिखाया जाए तो फ़िल्म का कायल जरूर होगा। लेकिन मैं ये फ़िल्म देखने मे वक्त से थोड़ा पिछड़ गया। भला हुआ कि मैंने इस फील्म को उस कच्ची उम्र में नहीं देखा जहां से मेरे दिमाग मे फ़िल्म के अंत में सिर्फ ये आये की क्या प्रेम कहानी है। दर्द ,समर्पण और आंसुओं से भरी हुई। फ़िल्म के खत्म होते होते मेरे दिमाग में आधुनिक भारतीय इतिहास के 2 व्यक्तियों के चेहरे घूम गए । निर्देशक का नाम तो मुझे पता नहीं और यह जानना भी मेरे लिए उचित नहीं,लेकिन उसने इन दोनों के जीवन से कहानी को चुरा कर अपनी फिल्म को हिट कर लिया। आईये हम बात करते हैं असली किरदार की। हो सकता है आपमें से कइयों ने उनका नाम सुना हो या ना भी सुना हो ।
           पहला नाम है बिहार के कामरेड चन्द्रशेखर का। बचपन में पिता के गुज़र जाने के बाद इनकी मां ने इनका देख भाल किया था। इनकी बौध्दिक क्षमता का अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि यह सेना की प्रतिष्ठित परीक्षा NDA  पास करके अकेडमी में दाखिला लिए। यह परीक्षा हिंदी भाषी राज्य के लड़को के लिए कितना कठिन होता है आप समझ सकते हैं। युवा चन्द्रशेखर समाज के जहर से अनभिज्ञ अकेडमी में शिक्षा ग्रहण करते रहे। यह वही दौर था जब बिहार में माफिया गिरी और जातीय संघर्ष चरम पर था। चन्द्रशेखर जब भी घर आते तो अपने आस पड़ोस की खबर सुनते और वो खबर क्या होती होगी आप नब्बे के दशक के अखबारों के बिहार सम्बंधित हेडलाइन्स पढ़िए। किसी रात सोते में गोलियों की तड़तड़ाहट से गूंजता आकाश,रात भर दबे सहमे लोग, और जब सुबह होती तो पता चलता कि एक ही परिवार के सारे लोगों को गोलियों से भून दिया गया। पूरी बस्ती की झोपड़ियों में आग लगा दी गयी।यह दो ताकतवर समूहों के बीच होने वाला संघर्ष नहीं था। यह संघर्ष तब होता था जब एक आर्थिक और जातिगत रूप से पिछड़ा जब थाने में FIR लिखाने पहुंच जाता था कि साहब 2 दिन से उसकी बहन या उसकी पत्नी को फलां के गुर्गे उठा कर ले गए हैं। नतीज़ा यह होता था इंसाफ मिलने के बजाय उनकी झोपड़ी जला दी जाती थी। खौफ बना रहे है और दोबारा कोई शिकायत लेकर न आये दिनदहाड़े हत्या की जाती थी। खम्भे से बांधकर पिटा जाता था। अब आपको राउडी राठौर वाला बिहार का दृश्य याद आ गया होगा।लेकिन वो सिर्फ एक फ़िल्म था और यह जीवन व इसके समाज की हकीकत है।
                खिन्न कामरेड चन्द्रशेखर NDA छोड़कर गांव आ गए। मन बनाया की आवाज उठाया जाएगा। अगर यही है जीवन का सत्य तो अपनों के लिए लड़ा जाएगा। शुरू हुआ चन्द्रशेखर का क्रांतिकारी जीवन। वो पटना विश्वविद्यालय से पढ़ाई करते रहे और हर कदम पर सरकार के खिलाफ़ अपने लोगो के लिए संघर्ष करते रहे। पटना विश्वविद्यालय से 15 अप्रैल 1983 को एक बार उन्होंने अपनी माँ को लिखे एक पत्र में लिखा था कि- शायद तुम भी किसी दिन गोर्की(रूसी क्रान्तिकारी) के लिखे उपन्यास माँ का चरित्र बनों और मैं उसका बेटा उसका नायक जो कभी भी सड़ी हुई व्यवस्था से समझौता नहीं करता। पटना विश्वविद्यालय से वो आगे की पढ़ाई के लिए JNU पहुंचे। JNU के अपने एक भाषण में उन्होंने कहा था अगर बात व्यक्तिगत महत्वकांक्षा की है तो इच्छा है कि वो भगत सिंह की तरह अपने आदर्शों और कर्तव्यों के लिए जान न्यौछावर कर दे।  अपनी जबरदस्त भाषण शैली और तर्क से वो देश भर में छात्र आंदोलन और पिछड़ों वंचितों  के आवाज बने रहे।
                   1997 में 2 अप्रैल को सरकार के खिलाफ बेरोजगारी, भ्र्ष्टाचार आदि मुद्दों पर भारत बंद का ऐलान था। 31 मार्च 1997 को इसी सिलसिले में जेपी चौक पर एक रैली के दौरान सामन्तवाद की गोली का शिकार हुए। उसके बाद उनके विचारों की लड़ाई पूरे देश में उनकी मां कौशल्या देवी के नेतृत्व में लड़ी गयी। (गोर्की के उपन्यास में क्रांतिकारी बेटे के मारे जाने के बाद उसकी क्रांतिकारी विचारधारा को आगे ले जाने काम उनकी मां ने किया था)............
दूसरा नाम है जगदेव बाबू जिन्हें बिहार का लेनिन भी कहा जाता है। शुरूआती दिनों में उन्होने अपना कैरियर एक पत्रकार के रूप में शुरू किया। वो सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े रहे। अपने अखबार के माध्यम से वो पिछड़ों ,,वंचितों की आवाज बने रहे । राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के बीच वैचारिक  मतभेद होने पर लोहिया के साथ जुड़े रहे। इन्हीं के अथक प्रयासों से बिहार में पहली बार गैर कांग्रेसि सरकार बनी। लेकिन राजनीति में जैसा कि अक्सर होता है कमाए धोती वाला खाये टोपी वाला। पार्टी की नीतियों और विचारधारा के मसले पर  उन्होंने लोहिया का साथ छोड़कर अलग पार्टी 25 अगस्त 1967  को शोषित दल के नाम से गठन किया। अपने ऐतिहासिक भाषण में उन्होंने कहा कि-
"जिस लड़ाई की बुनियाद आज मैं डाल रहा हूँ वह लम्बी और कठिन होगी। चूंकि मैं क्रान्तिकारी पार्टी का निर्माण कर रहा हूँ इसलिए उनमें आने जाने वालों की कमी नहीं रहेगी परन्तु इसकी धारा रुकेगी नहीं। इसमें पहली पीढ़ी के लोग मारे जाएंगे,दूसरी पीढ़ी के लोग जेल जाएंगे तथा तीसरी पीढ़ी के लोग राज करेंगे। जीत अंततोगत्वा हमारी ही होगो।"
उनके  प्रचलित नारे थे---दस का शासन नब्बे पर नहीं चलेगा, नहीं चलेगा,
सौ में नब्बे शोषित हैं,नब्बे भाग हमारा है,
धन धरती और राजपाट में नब्बे भाग हमारा है।
मानव वाद की क्या पहचान ब्राह्मण भंगी एक समान,
पुनर्जन्म और भाग्यवाद,इनसे जन्मा ब्राह्मणवाद,
चपरासी हो या राष्ट्रपति की संतान सबको शिक्षा मीले एक समान,
सीधे सामन्तवाद और ब्राह्मणवाद पे इस तरह के प्रहार के कारण हमेशा राजनीति में वो मनुवादियों को खटकते रहे।
5 सितम्बर 1974 को जगदेव बाबू हजारों की संख्या में शोषित समाज का नेतृत्व करते हुए एक राज्यव्यापी सत्याग्रह के लिए अपने दल का काला झंडा लेकर आगे बढ़ने लगे। उनके हत्या की साजिश पहले ही कि जा चुकी थी। तरीका था कि उन्हें रोका जाएगा और वो विरोध करेंगे। भगदड़ होगा ,फिर पूलिस की लाठी चार्ज और बचने  की जरा भी गुंजाइश न रह जाये इसके लिए उनको गोली मारी जाएगी। जैसी पटकथा लिखी गयी थी वैसा ही हुआ। वो लाठियां खा कर भी अपना क्रांतिकारी भाषण देते रहे। आवाज बुलंद करते रहे । लेकिन गोली से कौन बच सकता है?पुलिस की गोली लगी और उन्हें इलाज मुहैया कराए जाने के बजाय पुलिस उठा कर थाने ले गयी। खून बहने के कारण वो प्यास से पानी पानी चिल्लाते रहे और थाने में ही दम तोड़ दिया। वो तारीख थी 5 सितम्बर 1974
रांझणा का कुंदन जो बनारस का एक सीधा सादा लड़का था लेकिन जुझारू था। न चाहते हुए भी वो जाने अनजाने दिल्ली JNU पहूंचता है। फिर उसके अंदर की क्रांतिकारी विचारधारा बाहर ऑति जाती है। आंदोलन का नायक बन जाता है। जनता उसके शब्दों पर झूमने लगती है। बिल्कुल उसी तरह जैसे कि  चन्द्रशेखर का जीवन चलता है । बस फर्क है वो फ़िल्म का एक चरित्र है तो उसमें मसाला है जबकि चंदशेखर असल जीवन के नायक हैं तो उनका जीवन सादा है,जहां एक ही गाना है सामन्त वाद मुर्दाबाद, इंकलाब जिंदा बाद। संगीत है बस खुद की सांसे और खुद की धड़कने।
रांझणा का कुंदन उसी साजिश के तहत मारा जाता है जैसे कि बिहार के लेनिन जगदेव बाबू को मार गया। फर्क बस इतना है कि वो फ़िल्म है तो वो वेंटिलेटर पर लेटा है ,उसकी महबूबा उसके लिए रो रही है और वो एक लंबा बैक ग्राइंड डायलाग मारकर दर्शक का दिल जीत लेता है। लेकिन इधर जिसने जीवन भर भूख और    शिक्षा की लड़ाई में लगा दिया हो जिसने वो पानी पानी करते मारा जाता है।
फैसला हम पर है की हम किसे आदर्श मानते है,क्योंकि हम आजाद हैं और यह जानने या न जानने के लिए भी आजाद है कि आजादी कैसे और क्यों मिली,कौन हैं जो 1947 के बाद भी आजादी को बचाते रहे,सही मायनों में अजादी को स्थापित करते रहे।
                                                                                               BY - कशिश 
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