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शनिवार, 7 मार्च 2020

Yashpal ki kahaniya

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Image Source- wikipedia

यशपाल का जन्म 3 दिसम्बर 1903 को पंजाब में, फ़ीरोज़पुर छावनी में एक साधारण खत्री परिवार में हुआ था। उनकी माँ श्रीमती प्रेमदेवी वहाँ अनाथालय के एक स्कूल में अध्यापिका थीं। यशपाल के पिता हीरालाल एक साधारण कारोबारी व्यक्ति थे। उनका पैतृक गाँव रंघाड़ था, जहाँ कभी उनके पूर्वज हमीरपुर से आकर बस गए थे। पिता की एक छोटी-सी दुकान थी और लोग उन्हें ‘लाला’ कहते-पुकारते थे। बीच-बीच में वे घोड़े पर सामान लादकर फेरी के लिए आस-पास के गाँवों में भी जाते थे। अपने व्यवसाय से जो थोड़ा-बहुत पैसा उन्होंने इकट्ठा किया था उसे वे, बिना किसी पुख़्ता लिखा-पढ़ी के, हथ उधारू तौर पर सूद पर उठाया करते थे। अपने परिवार के प्रति उनका ध्यान नहीं था। इसीलिए यशपाल की माँ अपने दो बेटों—यशपाल और धर्मपाल—को लेकर फ़िरोज़पुर छावनी में आर्य समाज के एक स्कूल में पढ़ाते हुए अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के बारे में कुछ अधिक ही सजग थीं। यशपाल के विकास में ग़रीबी के प्रति तीखी घृणा आर्य समाज और स्वाधीनता आंदोलन के प्रति उपजे आकर्षण के मूल में उनकी माँ और इस परिवेश की एक निर्णायक भूमिका रही है। यशपाल के रचनात्मक विकास में उनके बचपन में भोगी गई ग़रीबी की एक विशिष्ट भूमिका थी।

1.अखबार में नाम

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जून का महीना था, दोपहर का समय और धूप कड़ी थी। ड्रिल-मास्टर साहब ड्रिल करा रहे थे।

मास्टर साहब ने लड़कों को एक लाइन में खड़े होकर डबलमार्च करने का आर्डर दिया। लड़कों की लाइन ने मैदान का एक चक्कर पूरा कर दूसरा आरम्भ किया था कि अनन्तराम गिर पड़ा।

मास्टर साहब ने पुकारा, ‘हाल्ट!’

लड़के लाइन से बिखर गये।

मास्टर साहब और दो लड़कों ने मिलकर अनन्त को उठाया और बरामदे में ले गये। मास्टर साहब ने एक लड़के को दौड़कर पानी लाने का हुक्म दिया। दो-तीन लड़के स्कूल की कापियां लेकर अनन्त को हवा करने लगे। अनन्त के मुंह पर पानी के छींटे मारे गये। उसे होश आते-आते हेडमास्टर साहब भी आ गये और अनन्तराम के सिर पर हाथ फेरकर, पुचकारकर उन्होंने उसे तसल्ली दी।

स्कूल का चपरासी एक तांगा ले आया। दो लड़कों के साथ ड्रिल मास्टर अनन्तराम को उसके घर पहुंचाने गये। स्कूल-भर में अनन्तराम के बेहोश हो जाने की खबर फैल गयी। स्कूल में सब उसे जान गये।

लड़कों के धूप में दौड़ते समय गुरदास लाइन में अनन्तराम से दो लड़कों के बाद था। यह घटना और काण्ड हो जाने के बाद वह सोचता रहा, ‘अगर अनन्तराम की जगह वही बेहोश होकर गिर पड़ता, वैसे ही उसे चोट आ जाती तो कितना अच्छा होता?’ आह भरकर उसने सोचा, ‘सब लोग उसे जान जाते और उसकी खातिर होती।’

श्रेणी में भी गुरदास की कुछ ऐसी ही हालत थी। गणित के मास्टर साहब सवाल लिखाकर बेंचों के बीच में घूमते हुए नजर डालते रहते थे कि कोई लड़का नकल या कोई दूसरी बेजा हरकत तो नहीं कर रहा। लड़कों के मन में यह होड़ चल रही होती कि सबसे पहले सवाल पूरा करके कौन खड़ा हो जाता है।

गुरदास बड़े यत्न से अपना मस्तिष्क कापी में गड़ा देता। उंगलियों पर गुणा और योग करके उत्तर तक पहुंच ही रहा होता कि बनवारी सवाल पूरा करके खड़ा हो जाता। गुरदास का उत्साह भंग हो जाता और दो-तीन पल की देर यों भी हो जाती। कभी-कभी सबसे पहले सवाल कर सकने की उलझन के कारण कहीं भूल भी हो जाती। मास्टर साहब शाबाशी देते तो बनवारी और खन्ना को और डांटते तो खलीक और महेश का ही नाम लेकर। महेश और खलीक न केवल कभी सवाल पूरा करने की चिन्ता करते, बल्कि उसके लिए लज्जित भी न होते।

नाम जब कभी लिया जाता तो बनवारी, खन्ना, खलीक और महेश का ही, गुरदास बेचारे का कभी नहीं। ऐसी ही हालत व्याकरण और अंग्रेजी की क्लास में भी होती। कुछ लड़के पढ़ाई-लिखाई में बहुत तेज होने की प्रशंसा पाते और कोई डांट-डपट के प्रति निर्द्वन्द्व होने के कारण बेंच पर खड़े कर दिये जाने से लोगों की नजर में चढ़कर नाम कमा लेते। गुरदास बेचारा दोनों तरफ से बीच में रह जाता।

इतिहास में गुरदास की विशेष रूचि थी। शेरशाह सूरी और खिलजी की चढ़ाइयों और अकबर के शासन के वर्णन उसके मस्तिष्क में सचित्र होकर चक्कर काटते रहते, वैसे ही शिवाजी के अनेक किले जीतने के वर्णन भी। वह अपनी कल्पना में अपने-आपको शिवाजी की तरह ऊंची, नोकदार पगड़ी पहने, छोटी दाढ़ी रखे और वैसा ही चोगा पहने, तलवार लिये सेना के आगे घोड़े पर सरपट दौड़ता चला जाता देखता।

इतिहास को यों मनस्थ कर लेने या इतिहास में स्वयं समा जाने पर भी गुरदास को इन महत्वपूर्ण घटनाओं की तारीखें और सन् याद न रहते थे क्योंकि गुरुदास के काल्पनिक ऐतिहासिक चित्रों में तारीखों और सनों का कोई स्थान न था। परिणाम यह होता कि इतिहास की क्लास में भी गुरदास को शाबाशी मिलने या उसके नाम पुकारे जाने का समय न आता।

सबके सामने अपना नाम पुकारा जाता सुनने की गुरदास की महत्वाकांक्षा उसके छोटे-से हृदय में इतिहास के अतीत के बोझ के नीचे दबकर सिसकती रह जाती। तिस पर इतिहास के मास्टर साहब का प्राय: कहते रहना कि दुनिया में लाखों लोग मरते जाते हैं परन्तु जीवन वास्तव में उन्हीं लोगों का होता है जो मरकर भी अपना नाम जिन्दा छोड़ जाते हैं, गुरदास के सिसकते हृदय को एक और चोट पहुंचा देता।

गुरदास अपने माता-पिता की सन्तानों में तीन बहनों का अकेला भाई था। उसकी मां उसे राजा बेटा कहकर पुकारती थी। स्वयं पिता रेलवे के दफ्तर में साधारण क्लर्की करते थे। कभी कह देते कि उनका पुत्र ही उनका और अपना नाम कर जायेगा। ख्याति और नाम की कमाई के लिए इस प्रकार निरन्तर दी जाती रहने वाली उत्तेजनाओं के बावजूद गुरदास श्रेणी और समाज में अपने-आप को किसी अनाज की बोरी के करोड़ों एक ही से दानों में से एक साधारण दाने से अधिक अनुभव न कर पाता था।

ऐसा दाना कि बोरी को उठाते समय वह गिर जाये तो कोई ध्यान नहीं देता। ऐसे समय उसकी नित्य कुचली जाती महत्वाकांक्षा चीख उठती कि बोरी के छेद से सड़क पर उसके गिर जाने की घटना ही ऐसी क्यों न हो जाए कि दुनिया जान ले कि वह वास्तव में कितना बड़ा आदमी है और उसका नाम मोटे अक्षरों में अखबारों में छप जाए। गुरदास कल्पना करने लगता कि वह मर गया है परन्तु अखबारों में मोटे अक्षरों में छपे अपने नाम को देखकर, मृत्यु के प्रति विद्रूप से मुस्करा रहा है, मृत्यु उसे समाप्त न कर सकी।

आयु बढ़ने के साथ-साथ गुरदास की नाम कमाने की महत्वाकांक्षा उग्र होती जा रही थी, परन्तु उस स्वप्न की पूर्ति की आशा उतनी ही दूर भागती जान पड़ रही थी। बहुत बड़ी-बड़ी कल्पनाओं के बावजूद वह अपने पिता पर कृपा-दृष्टि रखनेवाले एक बड़े साहब की कृपा से दफ्तर में केवल क्लर्क ही बन पाया।

जिन दिनों गुरदास अपने मन को समझाकर यह सन्तोष दे रहा था कि उसके मुहल्ले के हजार से अधिक लोगों में से किसी का भी तो नाम कभी अखबार में नहीं छपा, तभी उसके मुहल्ले के एक नि:सन्तान लाला ने अपनी आयु भर का संचित गुप्तधन प्रकट करके अपने नाम से एक स्कूल स्थापित करने की घोषणा कर दी।

लालाजी का अखबार में केवल नाम ही प्रशंसा-सहित नहीं छपा, उनका चित्र भी छपा। गुरदास आह भरकर रह गया। साथ ही अखबार में नाम छपवाकर, नाम कमाने की आशा बुझती हुई चिनगारियों पर राख की एक और तह पड़ गयी। गुरदास ने मन को समझाया कि इतना धन और यश तो केवल पूर्वजन्म के कर्मों के फल से ही पाया जा सकता है। इस जन्म में तो ऐसे अवसर और साधन की कोई आशा उस जैसों के लिए हो ही नहीं सकती थी।

उस साल वसन्त के आरम्भ में शहर में प्लेग फूट निकला था। दुर्भाग्य से गुरदास के गरीब मुहल्ले में गलियां कच्ची और तंग होने के कारण, बीमारी का पहला शिकार, उसी मुहल्ले में दुलारे नाम का व्यक्ति हुआ।

मुहल्ले की गली के मुहाने पर रहमान साहब का मकान था। रहमान साहब ने आत्म-रक्षा और मुहल्ले की रक्षा के विचार से छूत की बीमारी के हस्पताल को फोन करके एम्बुलेंस गाड़ी मंगवा दी। बहुत लोग इकट्ठे हो गये। दुलारे को स्ट्रेचर पर उठाकर मोटर पर रखा गया और हस्पताल पहुंचा दिया गया। म्युनिसिपैलिटी ने उसके घर की बहुत जोर से सफाई की। मुहल्ले के हर घर में दुलारे की चर्चा होती रही।

गुरदास संध्या समय थका-मांदा और झुंझलाया हुआ दफ्तर से लौट रहा था। भीड़ में से अखबारवाले ने पुकारा, ‘आज शाम की ताजा अखबार। नाहर मुहल्ले में प्लेग फूट निकला। आज की खबरें पढ़िये।’

अखबार में अपने मुहल्ले का नाम छपने की बात से गुरदास सिहर उठा। उसके मस्तिष्क में चमक गया… ओह, दुलारे की खबर छपी होगी। अखबार प्राय: वह नहीं खरीदता था परन्तु अपने मुहल्ले की खबर छपी होने के कारण उसने चार पैसे खर्च कर अखबार ले लिया। सचमुच दुलारे की खबर पहले पृष्ठ पर ही थी। लिखा था, ‘बीमारी की रोक-थाम के लिए सावधान।’ और फिर दुलारे का नाम और उसकी खबर ही नहीं, स्ट्रेचर पर लेटे हुए, घबराहट में मुंह खोले हुए दुलारे की तस्वीर भी थी।

गुरदास ने पढ़ा कि बीमारी का इलाज देर से आरम्भ होने के कारण दुलारे की अवस्था चिन्ताजनक है। पढ़कर दुख हुआ। फिर ख्याल आया इस आदमी का नाम अखबार में छप जाने की क्या आशा थी? पर छप ही गया।

अपना-अपना भाग्य है, एक गहरी सांस लेकर गुरदास ने सोचा। दुलारे की अवस्था चिन्ताजनक होने की बात से दुख भी हुआ। फिर ख्याल आया देखो, मरते-मरते नाम कर ही गया। मरते तो सभी हैं पर यह बीमारी की मौत फिर भी अच्छी! ख्याल आया, कहीं बीमारी मुझे भी न हो जाये। भय तो लगा पर यह भी ख्याल आया कि नाम तो जिसका छपना था, छप गया। अब सबका नाम थोड़े ही छप सकता है।

खैर, दुलारे अगर बच न पाया तो अखबार में नाम छप जाने का फायदा उसे क्या हुआ? मजा तो तब है कि बेचारा बच जाए और अपनी तस्वीर वाले अखबार को अपनी कोठरी में लटका ले…!

गुरदास को होश आया तो उसने सुना, ‘इधर से सम्भालो! ऊपर से उठाओ!’ कूल्हे में बहुत जोर से दरद हो रहा था। वह स्वयं उठ न पा रहा था। लोग उसे उठा रहे थे।

‘हाय! हाय मां!’ उसकी चीखें निकली जा रही थी। लोगों ने उठा कर उसे एक मोटर में डाल दिया।

हस्पताल पहुंचकर उसे समझ में आया कि वह बाजार में एक मोटर के धक्के से गिर पड़ा था। मोटर के मालिक एक शरीफ वकील साहब थे। उस घटना के लिए बहुत दुख प्रकट कर रहे थे। एक बच्चे को बचाने के प्रयत्न में मोटर को दायीं तरफ जल्दी से मोड़ना पड़ा। उन्होंने बहुत जोर से हार्न भी बजाया और ब्रेक भी लगाया पर ये आदमी चलता-चलता अखबार पढ़ने में इतना मगन था कि उसने सुना ही नहीं।

गुरदास कूल्हे और घुटने के दरद के मारे कराह रहा था। कुछ सोचना समझना उसके बस की बात ही न थी।

डाक्टर ने गुरदास को नींद आने की दवाई दे दी। वह भयंकर दरद से बचकर सो गया। रात में जब नींद टूटी तो दरद फिर होने लगा और साथ ही ख्याल भी आया कि अब शायद अखबार में उसका नाम छप ही जाये। दरद में भी एक उत्साह-सा अनुभव हुआ और दरद भी कम लगने लगा। कल्पना में गुरदास को अखबार के पन्ने पर अपना नाम छपा दिखायी देने लगा।

सुबह जब हस्पताल की नर्स गुरदास के हाथ-मुंह धुलाकर उसका बिस्तर ठीक कर रही थी, मोटर के मालिक वकील साहब उसका हाल-चाल पूछने आ गये।

वकील साहब एक स्टूल खींचकर गुरदास के लोहे के पलंग के पास बैठ गये और समझाने लगे, ‘देखो भाई, ड्राइवर बेचारे की कोई गलती नहीं थी। उसने तो इतने जोर से ब्रेक लगाया कि मोटर को भी नुकसान पहुंच गया। उस बेचारे को सजा भी हो जायेगी तो तुम्हारा भला हो जायेगा? तुम्हारी चोट के लिए बहुत अफसोस है। हम तुम्हारे लिये दो-चार सौ रुपये का भी प्रबन्ध कर देंगे। कचहरी में तो मामला पेश होगा ही, जैसे हम कहें, तुम बयान दे देना; समझे…!’

गुरदास वकील साहब की बात सुन रहा था पर ध्यान उसका वकील साहब के हाथ में गोल-मोल लिपटे अखबार की ओर था। रह न सका तो पूछ बैठा, ‘वकील साहब, अखबार में हमारा नाम छपा है? हमारा नाम गुरदास है। मकान नाहर मुहल्ले में है।’

वकील साहब की सहानुभूति में झुकी आंखें सहसा पूरी खुल गयीं, ‘अखबार में नाम?’ उन्होंने पूछा, ‘चाहते हो? छपवा दें?’

‘हां साहब, अखबार में तो जरूर छपना चाहिए।’ आग्रह और विनय से गुरदास बोला।

‘अच्छा, एक कागज पर नाम-पता लिख दो।’ वकील साहब ने कलम और एक कागज गुरदास की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘अभी नहीं छपा तो कचहरी में मामला पेश होने के दिन छप जायेगा, ऐसी बात है।’

गुरदास को लंगड़ाते हुए ही कचहरी जाना पड़ा। वकील साहब की टेढ़ी जिरह का उत्तर देना सहज न था, आरम्भ में ही उन्होंने पूछा- ‘तुम अखबार में नाम छपवाना चाहते थे?’

‘जी हाँ।’ गुरदास को स्वीकार करना पड़ा।

‘तुम्हें उम्मीद थी कि मोटर के नीचे दब जानेवाले आदमी का नाम अखबार में छप जायेगा?’ वकील साहब ने फिर प्रश्न किया।

‘जी हाँ!’ गुरदास कुछ झिझका पर उसने स्वीकार कर लिया।

अगले दिन अखबार में छपा, ‘मोटर दुर्घटना में आहत गुरदास को अदालत ने हर्जाना दिलाने से इनकार कर दिया। आहत के बयान से साबित हुआ कि अखबार में नाम छपाने के लिए ही वह जान-बूझकर मोटर के सामने आ गया था…’

गुरदास ने अखबार से अपना मुँह ढाँप लिया, किसी को अपना मुँह कैसे दिखाता…।

2.आदमी का बच्चा

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दो पहर तक डौली कान्वेंट (अंग्रेज़ी स्कूल) में रहती है। इसके बाद उसका समय प्रायः पाया ‘बिंदी’ के साथ कटता है। मामा दोपहर में लंच के लिए साहब की प्रतीक्षा करती

है। साहब जल्दी में रहते हैं। ठीक एक बजकर सात मिनट पर आये, गुसलखाने में हाथ-मुंह धोया, इतने में मेज पर खाना आ जाता है। आधे घंटे में खाना समाप्त कर, सिगार सुलगा साहब कार में मिल लौट जाते हैं। लंच के समय डौली खाने के कमरे में नहीं आती, अलग खाती है।

संध्या साढ़े पांच बजे साहब मिल से लौटते हैं तो बेफिक्र रहते हैं। उस समय वे डौली को अवश्य याद करते हैं। पांच-सात मिनट उससे बात करते हैं और फिर मामा से बातचीत करते हुए देर तक चाय पर बैठे रहते हैं। मामा दोपहर या तीसरे पहर कहीं बाहर जाती हैं तो ठीक पांच बजे लौट कर साहब के लिए कार मिल में भेज देती हैं। डौली को बुला साहब के मुआयने के लिए तैयार कर लेती हैं। हाथ-मुंह धुलवा कर डौली की सुनहलापन लिये, काली-कत्थई अलकों में वे अपने सामने कंघी कराती हैं। स्कूल की वर्दी की काली-सफेद फ्रॉक उतारकर, दोपहर में जो मामूली फ्रॉक पहना दी जाती है उसे बदल नयी बढ़िया फ्राक उसे पहनायी जाती है। बालों में रिबन बांधा जाता है। सैंडल के पालिश तक पर मामा की नज़र जाती है।

बग्गा साहब मिल में चीफ इंजीनियर हैं। विलायत पास हैं। बारह सौ रुपया महीना पाते हैं। जीवन से संतुष्ट हैं परंतु अपने उत्तरदायित्व से भी बेपरवाह नहीं। बस एक ही लड़की है डौली। पांचवें वर्ष में है। उसके बाद कोई संतान नहीं हुई। एक ही संतान के प्रति अपना कर्तव्य पूरा कर सकने से साहब और मामा को पर्याप्त संतोष है। बग्गा साहब की नज़रों में संतान के प्रति उत्तरदायित्व का आदर्श ऊंचा है। वे डौली को बेटी या बेटा सब कुछ समझकर संतोष किये हैं। यूनिवर्सिटी की शिक्षा तो वह पायेगी ही। इसके बाद शिक्षा-क्रम पूरा करने के लिए उसका विलायत जाना भी आवश्यक और निश्चित है। संतान के प्रति शिक्षा के उत्तरदायित्व का यह आदर्श कितनी संतानों के प्रति पूरा किया जा सकता है? साहब कहते हैं- ‘यों कीड़े-मकोड़े की तरह पैदा करके क्या फायदा?’ मामा-मिसेज़ बग्गा भी हामी भरती हैं- ‘और क्या?’

‘डौली! ...डौली! ...डौली!...’ मामा तीन दफे पुकार चुकी थीं। चौथी दफे, उन्होंने आया को पुकारा। कोई उत्तर न पा वे खिसिया कर स्वयं बरामदे से निकल आयीं। अभी उन्हें स्वयं भी कपड़े बदलने थे। देखा- बंगले के पिछवाड़े से, जहां धोबी और माली के क्वार्टर हैं, आया डौली को पकड़े, लिये आ रही है। मामा ने देखा और धक्क से रह गयीं। वे समझ गयीं- डौली अवश्य माली के घर गयी होगी। दो-तीन दिन पहले मालिन के बच्चा हुआ था। उसे गोद में लेने के लिए डौली कितनी ही बार जिद्द कर चुकी थी। डौली के माली की कोठरी में जाने से मामा भयभीत थीं। धोबी के लड़के को पिछले ही सप्ताह खसरा निकला था।

लड़की उधर जाती तो उन बेहूदे बच्चों के साथ शहतूत के पेड़ के नीचे धूल में से उठा-उठाकर शहतूत खाती। उन्हें भय था, उन बच्चों के साथ डौली की आदतें बिगड़ जाने का। आया इन सब अपराधों का उत्तरदायित्व अपने ऊपर अनुभव कर भयभीत थी। मेम साहब के सम्मुख उनकी बेटी की उच्छृंखलता से अपनी बेबसी दिखाने के लिए वह डौली से एक कदम आगे, उसकी बांहें थामे यों लिये आ रही थी जैसे स्वच्छंदता से पत्ती चरने के लिए आतुर बकरी को जबरन कान पकड़ घर की ओर लाया जाता है।

मामा के कुछ कह सकने से पहले ही आया ने ऊंचे स्वर में सफाई देना शुरू किया- ‘हम ज़रा सैंडिल पर पालिश करें के तईं भीतर गयेन। हम से बोलीं कि हम गुसलखाने जायेंगे। इतने में हम बाहर निकल कर देखें तो माली के घर पहुंची हैं। हमको तो कुछ गिनती ही नहीं। हम समझाएं तो उलटे हमको मारती है...’

इस पेशबंदी के बावजूद भी आया को डांट पड़ी।

‘दिस इज़ वेरी सिली!’ मामा ने डौली को अंग्रेज़ी में फटकारा। अंग्रेज़ी के सभी शब्दों का अर्थ न समझ कर भी डौली अपना अपराध और उसके प्रति मामा की उद्विग्नता समझ गयी।

तुरंत साबुन से हाथ-मुंह धुलाकर डौली के कपड़े बदले गये। चार बज कर बीस मिनट हो चुके थे, इसलिए आया जल्दी-जल्दी डौली को मोजे और सैंडल पहना रही थी और मामा स्वयं उसके सिर में कंघी कर उसकी लटों के पेचों को फीते से बांध रही थी। स्नेह से बेटी की पलकों को सहलाते हुए उन्हें अचानक गर्दन पर कुछ दिखलाई दिया- जूं! वज्रपात हो गया। निश्चय ही जूं माली और धोबी के बच्चों की संगत का परिणाम थी। आया पर एक और डांट पड़ी और नोटिस दे दी गयी कि यदि फिर डौली आवारा, गंदे बच्चों के साथ खेलती पायी गयी तो वह बर्खास्त कर दी जाएगी।

बेटी की यह दुर्दशा देख मां का हृदय पिघल उठा। अंग्रेज़ी छोड़ वे द्रवित स्वर में अपनी ही बोली में बेटी को दुलार से समझाने लगीं- ‘डौली तो प्यारी बेटी है, बड़ी ही सुंदर, बड़ी ही लाड़ली बेटी। हम इसको सुंदर-सुंदर कपड़े पहनाते हैं। डौली, तू तो अंग्रेज़ों के बच्चों के साथ स्कूल जाती है न बस में बैठकर! ऐसे गंदे बच्चों के साथ नहीं खेलते न!’

मचल कर फर्श पर पांव पटक डौली ने कहा- ‘मामा, हमको माली का बच्चा ले दो, हम उसे प्यार करेंगे।’

‘छी...छी...!’ मामा ने समझाया, ‘वह तो कितना गंदा बच्चा है! ऐसे गंदे बच्चों के साथ खेलने से छी-छी वाले हो जाते हैं। इनके साथ खेलने से जुएं पड़ जाती हैं। वे कितने गंदे हैं, काले-काले धत्त! हमारी डौली कहीं काली है? आया, डौली को खेलने के लिए मैनेजर साहब के यहां ले जाया करो। वहां यह रमन और ज्योति के साथ खेल आया करेगी। इसे शाम को कम्पनी बाग ले जाना।’

डौली ने मां के गले में बांहें डाल विश्वास दिलाया कि अब वह कभी गंदे और छोटे लोगों के काले बच्चों के साथ नहीं खेलेगी। उस दिन चाय पीते-पीते बग्गा साहब और मिसेज़ बग्गा में चर्चा होती रही कि बच्चे न जाने क्यों छोटे बच्चों से खेलना पसंद करते हैं। ...एक बच्चे को ही ठीक से पाल सकना मुश्किल है। जाने कैसे लोग इतने बच्चों को पालते हैं। ...देखो तो माली को! कमबख्त के तीन बच्चे पहले हैं, एक और हो गया।

बग्गा साहब के यहां एक कुतिया विचित्र नस्ल की थी। कागज़ी बादाम का सा रंग, गर्दन और पूंछ पर रेशम के से मुलायम और लम्बे बाल, सीना चौड़ा। बांहों की कोहनियां बाहर को निकली हुई। पेट बिल्कुल पीठ से सटा हुआ। मुंह जैसे किसी चोट से पीछे को बैठ गया हो। आंखें गोल-गोल जैसे ऊपर से रख दी गयी हों। नये आने वालों की दृष्टि उसकी ओर आकर्षित हुए बिना न रहती। यही कुतिया की उपयोगिता और विशेषता थी। ढाई सौ रुपया इसी शौक का मूल्य था।

कुतिया ने पिल्ले दिये। डौली के लिए यह महान उत्सव था। वह कुतिया के पिल्लों के पास से हटना न चाहती थी। उन चूहे-जैसी मुंदी हुई आंखों वाले पिल्लों को मांगने वालों की कमी न थी परंतु किसे दें और किसे इनकार करें? यदि इस नस्ल को यों बांटने लगें तो फिर उसकी कद्र ही क्या रह जाय? कुतिया का मोल ढाई सौ रुपया उसके दूध के लिए तो होता नहीं!

साहब का कायदा था, कुतिया पिल्ले देती तो उन्हें मेहतर से कह गरम पानी में गोता दे मरवा देते। इस दफे भी वे यही करना चाहते थे परंतु डौली के कारण परेशान थे। आखिर उसके स्कूल गये रहने पर बैरे ने मेहतर से काम करवा डाला।

स्कूल से लौट डौली ने पिल्लों की खोज शुरू की। आया ने कहा- ‘पिल्ले मैनेजर साहब के यहां रमन को दिखाने के लिए भेजे हैं, शाम को आ जायेंगे।’

मामा ने कहा- ‘बेबी, पिल्ले सो रहे हैं। जब उठेंगे तो तुम उनसे खेल लेना।’

डौली पिल्लों को खोजती फिरी। आखिर मेहतर से उसे मालूम हो गया कि वे गरम पानी में डुबो कर मार डाले गये हैं।

डौली रो-रोकर बेहाल हो रही थी। आया उसे पुचकारने के लिए गाड़ी में कम्पनी बाग ले गयी। डौली बार-बार पूछ रही थी- ‘आया, पिल्लों को गरम पानी में डुबो कर क्यों मार दिया?’

आया ने समझाया- ‘डैनी (कुतिया) इतने बच्चों को दूध कैसे पिलाती? वे भूख से चेऊं-चेऊं कर रहे थे, इसीलिए उन्हें मरवा दिया।’ दो दिन तक डौली के पिल्लों का मातम डैनी और डौली ने मनाया फिर और लोगों की तरह वे भी उन्हें भूल गयीं।

माली ने नये बच्चे के रोने की ‘कें-कें’ आवाज़ आधी रात में, दोपहर में, सुबह-शाम किसी भी समय आने लगती। मिसेज़ बग्गा को यह बहुत बुरा लगता। झल्ला कर वे कह बैठतीं- ‘जाने इस बच्चे के गले का छेद कितना बड़ा है।’

बच्चे की कें-कें उन्हें और भी बुरी लगती जब डौली पूछने लगती- ‘मामा, माली का बच्चा क्यों रो रहा है?’

बिंदी समीप ही बैठी बोल उठी- ‘रोयेगा नहीं तो क्या, मां के दूध ही नहीं उतरता।’

मामा और बिंदी को ध्यान नहीं था कि डौली उनकी बात सुन रही है। डौली बोल उठी- ‘मामा, माली के बच्चे को मेहतर से गरम पानी में डुबा दो तो फिर नहीं रोयेगा।’

बिंदी ने हंस कर धोती का आंचल होंठों पर रख लिया। मामा चौंक उठीं। डौली अपनी भोली, सरल आंखों में समर्थन की आशा लिये उनकी ओर देख रही थी।

‘दिस इज़ वेरी सिली डौली... कभी आदमी के बच्चे के लिए ऐसा कहा जाता है।’ मामा ने गम्भीरता से समझाया। परिस्थिति देख आया डौली को बाहर घुमाने ले गयी।

तीसरे दिन संध्या समय डौली मैनेजर साहब के यहां रमन और ज्योति के साथ खेल कर लौट रही थी। बंगले के दरवाज़े पर माली अपने नये बच्चे को कोरे कपड़े में लपेटे दोनों हाथों पर लिये बाहर जाता दिखाई दिया। उसके पीछे मालिन रोती चली आ रही थी।

आया ने मरे बच्चे की परछाईं पड़ने के डर से उसे एक ओर कर लिया। डौली ने पूछा- ‘यह क्या है? आया, माली क्या ले जा रहा है?’

‘माली का छोटा बच्चा मर गया है।’ धीमे-से आया ने उत्तर दिया और डौली को बांह से थाम बंगले के भीतर ले चली।

डौली ने अपनी भोली, नीली आंखें आया के मुख पर गड़ा कर पूछा- ‘आया, माली के बच्चे को क्या गरम पानी में डुबो दिया?’

‘छिः डौली, ऐसी बातें नहीं कहते!’ आया ने धमकाया, ‘आदमी के बच्चे को ऐसे थोड़े ही मारते हैं!’

डौली का विस्मय शांत न हुआ। दूर जाते माली की ओर देखने के लिए घूमकर उसने फिर पूछा- ‘तो आदमी का बच्चा कैसे मरता है?’

लड़की का ध्यान उस ओर से हटाने के लिए उसे बंगले के भीतर खींचते हुए आया ने उत्तर दिया- ‘वह मर गया, भूख से मर गया है। चलो मामा बुला रही हैं।’

डौली चुप न हुई, उसने फिर पूछा- ‘आया, हम भी भूख से मर जायेंगे?’

‘चुप रहो डौली!’ आया झुंझला उठी, ‘ऐसी बात करोगी तो मामा से कह देंगे।’

लड़की के चेहरे की सरलता से उसकी मां का हृदय पिघल उठा। उसकी घुंघराली लटों को हाथ से सहलाते हुए आया कहने लगी- ‘बैरी की आंख में राई-नोन! हाय मेरी मिस साहब, तुम ऐसे आदमी थोड़े ही हो! ...भूख से मरते हैं कमीने आदमियों के बच्चे।’

कहते-कहते आया का गला रुंध गया। उसे अपना लल्लू याद आ गया... दो बरस पहले...! तभी तो वह साहब के यहां नौकरी कर रही थी।

3.करवा का व्रत

Yashpal ki kahaniya
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कन्हैयालाल अपने दफ्तर के हमजोलियों और मित्रों से दो तीन बरस बड़ा ही था, परन्तु ब्याह उसका उन लोगों के बाद हुआ। उसके बहुत अनुरोध करने पर भी साहब ने उसे ब्याह के लिए सप्ताह-भर से अधिक छुट्टी न दी थी। लौटा तो उसके अन्तरंग मित्रों ने भी उससे वही प्रश्न पूछे जो प्रायः ऐसे अवसर पर दूसरों से पूछे जाते हैं और फिर वही परामर्श उसे दिये गये जो अनुभवी लोग नवविवाहितों को दिया करते हैं।

हेमराज को कन्हैयालाल समझदार मानता था। हेमराज ने समझाया-बहू को प्यार तो करना ही चाहिए, पर प्यार से उसे बिगाड़ देना या सिर चढ़ा लेना भी ठीक नहीं। औरत सरकश हो जाती है, तो आदमी को उम्रभर जोरू का गुलाम ही बना रहना पड़ता है। उसकी जरूरतें पूरी करो, पर रखो अपने काबू में। मार-पीट बुरी बात है, पर यह भी नहीं कि औरत को मर्द का डर ही न रहे। डर उसे ज़रूर रहना चाहिए... मारे नहीं तो कम-से-कम गुर्रा तो ज़रूर दे। तीन बात उसकी मानो तो एक में ना भी कर दो। यह न समझ ले कि जो चाहे कर या करा सकती है। उसे तुम्हारी खुशी-नाराजगी की परवाह रहे। हमारे साहब जैसा हाल न हो जाये। ...मैं तो देखकर हैरान हो गया। एम्पोरियम से कुछ चीजें लेने के लिये जा रहे थे तो घरवाली को पुकारकर पैसे लिये। बीवी ने कह दिया-' कालीन इस महीने रहने दो। अगले महीने सही', तो भीगी बिल्ली की तरह बोले ' अच्छा!' मर्द को रुपया-पैसा तो अपने पास में रखना चाहिये। मालिक तो मर्द है।

कन्हैया के विवाह के समय नक्षत्रों का योग ऐसा था कि ससुराल वाले लड़की की विदाई कराने के लिये किसी तरह तैयार नहीं हुये। अधिक छुट्टी नहीं थी इसलिये गौने की बात ' फिर' पर ही टल गई थी। एक तरह से अच्छा ही हुआ। हेमराज ने कन्हैया को लिखा-पढ़ा दिया कि पहले तुम ऐसा मत करना कि वह समझे कि तुम उसके बिना रह नहीं सकते, या बहुत खुशामद करने लगो।...अपनी मर्जी रखना, समझे। औरत और बिल्ली की जात एक। पहले दिन के व्यवहार का असर उस पर सदा रहता है। तभी तो कहते हैं कि ' गुर्बारा वररोजे अव्वल कुश्तन'- बिल्ली के आते ही पहले दिन हाथ लगा दे तो फिर रास्ता नहीं पकड़ती। ...तुम कहते हो, पढ़ी-लिखी है, तो तुम्हें और भी चौकस रहना चाहिये। पढ़ी-लिखी यों भी मिजाज दिखाती है।

निःश्वार्थ-भाव से हेमराज की दी हुई सीख कन्हैया ने पल्ले बाँध ली थी। सोचा- मुझे बाजार-होटल में खाना पड़े या खुद चौका-बर्तन करना पड़े, तो शादी का लाभ क्या? इसलिए वह लाजो को दिल्ली ले आया था। दिल्ली में सबसे बड़ी दिक्कत मकान की होती है। रेलवे में काम करने वाले, कन्हैया के जिले के बाबू ने उसे अपने क्वार्टर का एक कमरा और रसोई की जगह सस्ते किराये पर दे दी थी। सो सवा साल से मजे में चल रहा था।

लाजवन्ती अलीगढ़ में आठवीं जमात तक पढी थी। बहुत-सी चीजों के शौक थे। कई ऐसी चीजों के भी जिन्हें दूसरे घरों की लड़कियों को या नयी ब्याही बहुओं को करते देख मन मारकर रह जाना पड़ता था। उसके पिता और बड़े भाई पुराने ख्याल के थे। सोचती थी, ब्याह के बाद सही। उन चीजों के लिये कन्हैया से कहती। लाजो के कहने का ढंग कुछ ऐसा था कि कन्हैया का दिल इनकार करने को न करता, पर इस ख्याल से कि वह बहुत सरकश न हो जाये, दो बात मानकर तीसरी पर इनकार भी कर देता। लाजो मुँह फुला लेती। लाजो मुँह फुलाती तो सोचती कि मनायेंगे तो मान जाऊँगी, आखिर तो मनायेंगे ही। पर कन्हैया मनाने की अपेक्षा डाँट ही देता। एक-आध बार उसने थप्पड़ भी चला दिया। मनौती की प्रतीक्षा में जब थप्पड़ पड़ जाता तो दिल कटकर रह जाता और लाजो अकेले में फूट-फूटकर रोती। फिर उसने सोच लिया- ' चलो, किस्मत में यही है तो क्या हो सकता है?' वह हार मानकर खुद ही बोल पड़ती।

कन्हैया का हाथ पहली दो बार तो क्रोध की बेबसी में ही चला था, जब चल गया तो उसे अपने अधिकार और शक्ति का अनुभव होने लगा। अपनी शक्ति अनुभव करने के नशे से बड़ा नशा दूसरा कौन होगा ? इस नशे में राजा देश-पर-देश समेटते जाते थे, जमींदार गाँव-पर-गाँव और सेठ मिल और बैंक खरीदते चले जाते हैं। इस नशे की सीमा नहीं। यह चस्का पड़ा तो कन्हैया के हाथ उतना क्रोध आने की प्रतीक्षा किये बिना भी चल जाते।

मार से लाजो को शारीरिक पीड़ा तो होती ही थी, पर उससे अधिक होती थी अपमान की पीड़ा। ऐसा होने पर वह कई दिनों के लिये उदास हो जाती। घर का सब काम करती। बुलाने पर उत्तर भी दे देती। इच्छा न होने पर भी कन्हैया की इच्छा का विरोध न करती, पर मन-ही-मन सोचती रहती, इससे तो अच्छा है मर जाऊँ। और फिर समय पीड़ा को कम कर देता। जीवन था तो हँसने और खुश होने की इच्छा भी फूट ही पड़ती और लाजो हँसने लगती। सोच यह लिया था, ' मेरा पति है, जैसा भी है मेरे लिये तो यही सब कुछ है। जैसे यह चाहता है, वैसे ही मैं चलूँ।' लाजो के सब तरह अधीन हो जाने पर भी कन्हैया की तेजी बढ़ती ही जा रही थी। वह जितनी अधिक बेपरवाही और स्वच्छन्दता लाजो के प्रति दिखा सकता, अपने मन में उसे उतना ही अधिक अपनी समझने और प्यार का संतोष पाता।

क्वार के अन्त में पड़ोस की स्त्रियाँ करवा चौथ के व्रत की बात करने लगीं। एक-दूसरे को बता रही थीं कि उनके मायके से करवे में क्या आया। पहले बरस लाजो का भाई आकर करवा दे गया था। इस बरस भी वह प्रतीक्षा में थी। जिनके मायके शहर से दूर थे, उनके यहाँ मायके से रुपये आ गए थे। कन्हैया अपनी चिठ्ठी-पत्री दफ्तर के पते से ही मँगाता था। दफ्तर से आकर उसने बताया, ' तुम्हारे भाई ने करवे के दो रुपये भेजे हैं।'

करवे के रुपये आ जाने से ही लाजो को संतोष हो गया। सोचा, भैया इतनी दूर कैसे आते? कन्हैया दफ्तर जा रहा था तो उसने अभिमान से गर्दन कन्धे पर टेढ़ी कर और लाड़ के स्वर में याद दिलाया- ' हमारे लिए सरघी में क्या-क्या लाओगे...?'

और लाजो ने ऐसे अवसर पर लाई जाने वाली चीजें याद दिला दीं। लाजो पड़ोस में कह आई कि उसने भी सरघी का सामान मँगाया है। करवा चौथ का व्रत भला कौन हिन्दू स्त्री नहीं करती? जनम-जनम यही पति मिले, इसलिए दूसरे व्रतों की परवाह न करने वाली पढ़ी-लिखी स्त्रियां भी इस व्रत की उपेक्षा नहीं कर सकतीं।

अवसर की बात, उस दिन कन्हैया लंच की छुट्टी में साथियों के साथ कुछ ऐसे काबू में आ गया कि सवा तीन रुपये खर्च हो गये। वह लाजो का बताया सरघी का सामान घर नहीं ला सका। कन्हैया खाली हाथ घर लौटा तो लाजो का मन बुझ गया। उसने गम खाना सीखकर रूठना छोड़ दिया था, परन्तु उस साँझ मुँह लटक ही गया। आँसू पोंछ लिए और बिना बोले चौके-बर्तन के काम में लग गयी। रात के भोजन के समय कन्हैया ने देखा कि लाजो मुँह सुजाये है, बोल नहीं रही है, तो अपनी भूल कबूल कर उसे मनाने या कोई और प्रबंध करने का आश्वासन देने के बजाय उसने उसे डाँट दिया।

लाजो का मन और भी बिंध गया। कुछ ऐसा खयाल आने लगा-इन्ही के लिए तो व्रत कर रही हूँ और यही ऐसी रुखाई दिखा रहे हैं। ... मैं व्रत कर रही हूँ कि अगले जनम में भी 'इन' से ही ब्याह हो और मैं सुहा ही नहीं रही हूँ...। अपनी उपेक्षा और निरादर से भी रोना आ गया। कुछ खाते न बना। ऐसे ही सो गयी।

तड़के पड़ोस में रोज की अपेक्षा जल्दी ही बर्तन भांडे खटकने की आवाज आने लगी। लाजो को याद आने लगा-शान्ति बता रही थी कि उसके बाबू सरघी के लिये फेनियाँ लाये हैं, तार वाले बाबू की घरवाली ने बताया था कि खोए की मिठाई लाये हैं। लाजो ने सोचा, उन मर्दों को खयाल है न कि हमारी बहू हमारे लिये व्रत कर रही है; इन्हें जरा भी खयाल नहीं।

लाजो का मन इतना खिन्न हो गया कि सरघी में उसने कुछ भी न खाया। न खाने पर भी पति के नाम का व्रत कैसे न रखती। सुबह-सुबह पड़ोस की स्त्रियों के साथ उसने भी करवे का व्रत करने वाली रानी और करवे का व्रत करने वाली राजा की प्रेयसी दासी की कथा सुनने और व्रत के दूसरे उपचार निबाहे। खाना बनाकर कन्हैयालाल को दफ्तर जाने के समय खिला दिया। कन्हैया ने दफ्तर जाते समय देखा कि लाजो मुँह सुजाए है। उसने फिर डांटा- ' मालूम होता है कि दो-चार खाये बिना तुम सीधी नहीं होगी।'

लाजो को और भी रुलाई आ गयी। कन्हैया दफ्तर चला गया तो वह अकेली बैठी कुछ देर रोती रही। क्या जुल्म है। इन्ही के लिये व्रत कर रही हूँ और इन्हें गुस्सा ही आ रहा है। ...जनम-जनम ये ही मिलें इसीलिये मैं भूखी मर रही हूँ। ...बड़ा सुख मिल रहा है न!...अगले जनम में और बड़ा सुख देंगे!...ये ही जनम निबाहना मुश्किल हे रहा है। ...इस जनम में तो इस मुसीबत से मर जाना अच्छा लगता है, दूसरे जनम के लिये वही मुसीबत पक्की कर रही हूँ...।

लाजो पिछली रात भूखी थी, बल्कि पिछली दोपहर के पहले का ही खाया हुआ था। भूख के मारे कुड़मुड़ा रही थी और उसपर पति का निर्दयी व्यवहार। जनम-जनम, कितने जनम तक उसे ऐसा ही व्यवहार सहना पड़ेगा! सोचकर लाजो का मन डूबने लगा। सिर में दर्द होने लगा तो वह धोती के आँचल सिर बाँधकर खाट पर लेटने लगी तो झिझक गई-करवे के दिन बान पर नहीं लेटा या बैठा जाता। वह दीवार के साथ फर्श पर ही लेट रही।

लाजो को पड़ोसिनों की पुकार सुनाई दी। वे उसे बुलाने आई थीं। करवा-चौथ का व्रत होने के कारण सभी स्त्रियाँ उपवास करके भी प्रसन्न थीं। आज करवे के कारण नित्य की तरह दोपहर के समय सीने-पिरोने, काढ़ने-बुनने का काम किया नहीं जा सकता था; करवे के दिन सुई, सलाई, और चरखा छुआ नहीं जाता। काज से छुट्टी थी और विनोद के लिए ताश या जुए की बैठक जमाने का उपक्रम हो रहा था। वे लाजो को भी उसी के लिये बुलाने आयी थीं। सिर-दर्द और मन के दुःख के करण लाजो जा नहीं सकी। सिर-दर्द और बदन टूटने की बात कहकर वह टाल गयी और फिर सोचने लगी-ये सब तो सुबह सरघी खाये हुये हैं। जान तो मेरी ही निकव रही है।...फिर अपने दुःखी जीवन के कारण मर जाने का खयाल आयाऔर कल्पना करने लगी कि करवा-चौथ के दिन उपवास किये-किये मर जाये, तो इस पुण्य से जरूर ही यही पति अगले जन्म में मिले...।

लाजो की कल्पना बावली हो उठी। वह सोचने लगी-मैं मर जाऊँ तो इनका क्या है, और ब्याह कर लेंगे। जो आएगी वह भी करवाचौथ का व्रत करेगी। अगले जनम में दोनों का इन्हीं से ब्याह होगा, हम सौतें बनेंगी। सौत का खयाल उसे और भी बुरा लगा। फिर अपने-आप समाधान हो गया-नहीं, पहले मुझसे ब्याह होगा, मैं मर जाऊँगी तो दूसरी से होगा। अपने उपवास के इतने भयंकर परिणाम की चिंता से मन अधीर हो उठा। भूख अलग व्याकुल किये थी। उसने सोचा-क्यों मैं अपना अगला जनम भी बरबाद करूँ? भूख के कारण शरीर निढाल होने पर भी खाने को मन नहीं हो रहा था, परन्तु उपवास के परिणाम की कल्पना से मन मन क्रोध से जल उठा; वह उठ खड़ी हुई।

कन्हैयालाल के लिये उसने सुबह जो खाना बनाया था उसमें से बची दो रोटियाँ कटोरदान में पड़ी थीं। लाजो उठी और उपवास के फल से बचने के लिये उसने मन को वश में कर एक रोटी रूखी ही खा ली और एक गिलास पानी पीकर फिर लेट गई। मन बहुत खिन्न था। कभी सोचती-ठीक ही तो किया, अपना अगला जनम क्यों बरबाद करूँ? ऐसे पड़े-पड़े झपकी आ गई।

कमरे के किवाड़ पर धम-धम सुनकर लाजो ने देखा, रोशनदान से प्रकाश की जगह अन्धकार भीतर आ रहा था। समझ गई, दफ्तर से लौटे हैं। उसने किवाड़ खोले और चुपचाप एक ओर हट गई।

कन्हैयालाल ने क्रोध से उसकी तरफ देखा-' अभी तक पारा नहीं उतरा! मालूम होता है झाड़े बिना नहीं उतरेगा !'

लाजो के दुखे हुये दिल पर और चोट पड़ी और पीड़ा क्रोध में बदल गई। कुछ उत्तर न दे वह घूमकर फिर दीवार के सहारे फर्श पर बैठ गई।

कन्हैयालाल का गुस्सा भी उबल पड़ा- ' यह अकड़ है! ...आज तुझे ठीक कर ही दूँ।' उसने कहा और लाजो को बाँह से पकड़, खींचकर गिराते हुये दो थप्पड़ पूरे हाथ के जोर से ताबड़तोड़ जड़ दिये और हाँफते हुये लात उटाकर कहा, ' और मिजाज दिखा?... खड़ी हो सीधी।'

लाजो का क्रोध भी सीमा पार कर चुका था। खींची जाने पर भी फर्श से उठी नहीं। और मार खाने के लिये तैयार हो उसने चिल्लाकर कहा,' मार ले, मार ले! जान से मार डाल! पीछा छूटे! आज ही तो मारेगा! मैने कौन व्रत रखा है तेरे लिये जो जनम-जनम मार खाऊंगी। मार, मार डाल...!'

कन्हैयालाल का लात मारने के लिये उठा पाँव अधर में ही रुक गया। लाजो का हाथ उसके हाथ से छूट गया। वह स्तब्ध रह गया। मुँह में आई गाली भी मुँह में ही रह गई। ऐसे जान पड़ा कि अँधेरे में कुत्ते के धोखे जिस जानवर को मार बैठा था उसकी गुर्राहट से जाना कि वह शेर था; या लाजो को डाँट और मार सकने का अधिकार एक भ्रम ही था। कुछ क्षण वह हाँफता हुआ खड़ा सोचता रहा और फिर खाट पर बैठकर चिन्ता में डूब गया। लाजो फर्श पर पड़ी रो रही थी। उस ओर देखने का साहस कन्हैयालाल को न हो रहा था। वह उठा और बाहर चला गया।

लाजो पर्श पर पड़ी फूट-फूटकर रोती रही। जब घंटे-भर रो चुकी तो उठी। चूल्हा जलाकर कम-से-कम कन्हैया के लिए खाना तो बनाना ही था। बड़े बेमन उसने खाना बनाया। बना चुकी तब भी कन्हैयालाल लौटा नहीं था। लाजो ने खाना ढँक दिया और कमरे के किवाड़ उड़काकर फिर फर्श पर लेट गई। यही सोच रही थी, क्या मुसीबत है जिन्दगी। यही झेलना था तो पैदा ही क्यों हुई थी?...मैने क्या किया था जो मारने लगे।

किवाड़ों के खुलने का शब्द सुनाई दिया। वह उठने के लिये आँसुओं से भीगे चेहरे को आँचल से पोंछने लगी। कन्हैयालाल ने आते ही एक नजर उसकी ओर डाली। उसे पुकारे बिना ही वह दीवार के साथ बिछी चटाई पर चुपचाप बैट गया।

कन्हैयालाल का ऐसे चुप बैठ जाना नई बात थी, पर लाजो गुस्से में कुछ न बोल रसोई में चली गई। आसन डाल थाली-कटोरी रख खाना परोस दिया और लोटे में पानी लेकर हाथ धुलाने के लिए खड़ी थी। जब पाँच मिनट हो गये और कन्हैयालाल नहीं आया तो उसे पुकारना ही पड़ा, ' खाना परस दिया है।'

कन्हैयालाल आया तो हाथ नल से धोकर झाड़ते हुये भीतर आया। अबतक हाथ धुलाने के लिए लाजो ही उठकर पानी देती थी। कन्हैयालाल दो ही रोटी खाकर उठ गया। लाजो और देने लगी तो उसने कह दिया ' और नहीं चाहिये।' कन्हैयालाल खाकर उठा तो रोज की तरह हाथ धुलाने के लिये न कहकर नल की ओर चला गया।

लाजो मन मारकर स्वयं खाने बैठी तो देखा कि कद्दू की तरकारी बिलकुल कड़वी हो रही थी। मन की अवस्था ठीक न होने से हल्दी-नमक दो बार पड़ गया था। बड़ी लज्जा अनुभव हुई, ' हाय, इन्होंने कुछ कहा भी नहीं। यह तो जरा कम-ज्यादा हो जाने पर डाँट देते थे।'

लाजो से दुःख में खाया नहीं गया। यों ही कुल्ला कर, हाथ धोकर इधर आई कि बिस्तर ठीक कर दे, चौका फिर समेट देगी। देखा तो कन्हैयालाल स्वयं ही बिस्तर झाड़कर बिछा रहा था। लाजो जिस दिन से इस घर में आई थी ऐसा कभी नहीं हुआ था।

लाजो ने शरमाकर कहा, ' मैं आ गई, रहने दो। किये देती हूँ।' और पति के हाथ से दरी चादर पकड़ ली। लाजो बिस्तर ठीक करने लगी तो कन्हैयालाल दूसरी ओर से मदद करता रहा। फिर लाजो को सम्बोधित किया, ' तुमने कुछ खाया नहीं। कद्दू में नमक ज्यादा हो गया है। सुबह और पिछली रात भी तुमने कुछ नहीं खाया था। ठहरो, मैं तुम्हारे लिये दूध ले आता हूँ।'

लाजो के प्रति इतनी चिन्ता कन्हैयालाल ने कभी नहीं दिखाई थी। जरूरत भी नहीं समझी थी। लाजो को उसने 'चीज' समझा था। आज वह ऐसे बात कर रहा था जैसे लाजो भी इन्सान हो; उसका भी खयाल किया जाना चाहिये। लाजो को शर्म तो आ ही रही थी पर अच्छा भी लग रहा था। उसी रात से कन्हैयालाल के व्यवहार में एक नरमी-सी आ गई। कड़े बोल की तो बात क्या, बल्कि एक झिझक-सी हर बात में; जैसे लाजो के किसी बात के बुरा मान जाने की या नाराज हो जाने की आशंका हो। कोई काम अधूरा देखता तो स्वयं करने लगता। लाजो को मलेरिया बुखार आ गया तो उसने उसे चौके के समीप नहीं जाने दिया। बर्तन भी खुद साफ कर लिये। कई दिन तो लाजो को बड़ी उलझन और शर्म महसूस हुई, पर फिर पति पर और अधिक प्यार आने लगा। जहाँ तक बन पड़ता घर का काम उसे नहीं करने देती, 'यह काम करते मर्द अच्छे नहीं लगते...।'

उन लोगों का जीवन कुछ दूसरी ही तरह का हो गया। लाजो खाने के लिये पुकारती तो कन्हैया जिद करता, ' तुम सब बना लो, फिर एक साथ बैठकर खायेंगे।' कन्हैया पहले कोई पत्रिका या पुष्तक लाता था तो अकेला मन-ही-मन पढ़ा करता था। अब लाजो को सुनाकर पढ़ता या खुद सुन लेता। यह भी पूछ लेता, ' तुम्हे नींद तो नहीं आ रही ? '

साल बीतते मालूम न हुआ। फिर करवाचौथ का व्रत आ गया। जाने क्यों लाजो के भाई का मनीआर्डर करवे के लिये न पहुँचा था। करवाचौथ के पहले दिन कन्हैयालाल दफ्तर जा रहा था। लाजो ने खिन्नता और लज्जा से कहा, ' भैया करवा भेजना शायद भूल गये।'

कन्हैयालाल ने सांत्वना के स्वर में कहा,' तो क्या हुआ? उन्होंने जरूर भेजा होगा। डाकखाने वालों का हाल आजकल बुरा है। शायद आज आ जाये या और दो दिन बाद आये। डाकखाने वाले आजकल मनीआर्डर के पन्द्रह-पन्द्रह दिन लगा देते हैं। तुम व्रत-उपवास के झगड़े में मत पड़ना। तबियत खराब हो जाती है। यों कुछ मंगाना ही है तो बता दो, लेते आयेंगे, पर व्रत-उपवास से होता क्या है ? ' सब ढकोसले हैं।'

'वाह, यह कैसे हो सकता है! हम तो जरूर रखेंगे व्रत। भैया ने करवा नहीं भेजा न सही। बात तो व्रत की है, करवे की थोड़े ही।' लाजो ने बेपरवाही से कहा।

सन्ध्या-समय कन्हैयालाल आया तो रूमाल में बँधी छोटी गाँठ लाजो को थमाकर बोला, ' लो, फेनी तो मैं ले आया हूँ, पर ब्रत-व्रत के झगड़े में नहीं पड़ना।' लाजो ने मुस्कुराकर रूमाल लेकर आलमारी में रख दिया।

अगले दिन लाजो ने समय पर खाना तैयार कर कन्हैया को रसोई से पुकारा, ' आओ, खाना परस दिया है।' कन्हैया ने जाकर देखा, खाना एक ही आदमी के लिये परोसा था- ' और तुम?' उसने लाजो की ओर देखा।

' वाह, मेरा तो व्रत है! सुबह सरघी भी खा ली। तुम अभी सो ही रहे थे।' लाजो ने मुस्कराकर प्यार से बताया।

' यह बात...! तो हमारा भी ब्रत रहा।' आसन से उठते हुये कन्हैयालाल ने कहा।

लाजो ने पति का हाथ पकड़कर रोकते हुये समझाया, ' क्या पागल हो, कहीं मर्द भी करवाचौथ का व्रत रखते हैं!...तुमने सरघी कहाँ खाई?'

'नहीं, नहीं, यह कैसे हो सकता है ।' कन्हैया नहीं माना,' तुम्हें अगले जनम में मेरी जरूरत है तो क्या मुझे तुम्हारी नहीं है? या तुम भी व्रत न रखो आज!'

लाजो पति की ओर कातर आँखों से देखती हार मान गई। पति के उपासे दफ्तर जाने पर उसका हृदय गर्व से फूला नहीं समा रहा था।

4.कुत्ते की पूंछ

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श्रीमती जी कई दिन से कह रही थीं- "उलटी बयार" फ़िल्म का बहुत चर्चा है, देख लेते तो अच्छा था।

देख आने में ऐतराज़ न था परन्तु सिनेमा शुरू होने के समय अर्थात साढ़े छः बजे तक तो दफ़्तर के काम से ही छुट्टी नहीं मिल पाती। दूसरे शो में जाने का मतलब है- बहुत देर में सोना, कम सोना और अगले दिन काम ठीक से न कर सकना लेकिन जब 'उलटी बयार' को सातवां हफ़्ता लग गया तो यह मान लेना पड़ा कि फ़िल्म अवश्य ही देखने लायक होगी।

रात साढ़े बारह बजे सिनेमा हॉल से निकलने पर ताँगे का दर कुछ बढ़ जाता है। आने-दो आने में कुछ बन-बिगड़ नहीं जाता लेकिन ताँगेवाले के सामने अपनी बात रखने के लिए कहा- "नहीं, पैदल ही चलेंगे। चाँदनी रात है। ग़नीमत से चार कदम चलने का मौक़ा मिला है।"

उजली चाँदनी में सूनी सड़क पर सामने चलती जाती अपनी बौनी परछाई पर क़दम रखते हुए चले जा रहे थे। ज़िक्र था, फ़िल्म में कहाँ तक स्वाभाविकता है और कितनी कला है? कला के विषय में स्त्रियों से भी बात की जा सकती है, खासकर जब परिचय नया हो! परन्तु स्वयं अपनी स्त्री से, जिसे आदमी रग-रोयें से पहचानता हो, बहस या विचार 'अदल-बदल, लेन-देन' विनिमय का क्या मूल्य?

श्रीमती को शिकायत है, दुनिया भर के सैकड़ों लोगों से बहस करके भी मैं उनसे कभी बहस नहीं करता। मैं उन्हें किसी योग्य नहीं समझता। इस अभियोग का बहुत माकूल जवाब मैंने सोच डाला-

"जिस आदमी से विचारों की पूर्ण एकता हो, उससे बहस कैसी?"

इस उत्तर से श्रीमती को बहुत दिन तक संतोष रहा कि चतुर समझे जाने वाले पति के समान विचार के कारण वे भी चतुर हैं। परन्तु दूसरों पर बहस की संगीन चला सकने के लिए पति नाम के रेत के बोरे पर कुछ अभ्यास करना भी तो ज़रूरी होता है इसीलिए एक दिन खीझ कर बोलीं- "बहस न सही, आदमी बात तो करता है। हम से कभी कोई बात ही नहीं करता।"

सो पति होने का टैक्स चुकाने के लिए, अपनी स्त्री के साथ कला का ज़िक्र कर चाँदनी रात का खून हो रहा था। मैं कह रहा था और वे हूं-हूं कर-कर हामी भर रही थीं। अचानक वे पुकार उठीं… "यह देखा!"

स्त्री के सामने कला की बात करने की अपनी समझदारी पर दांत पीस कर रह गया। सोचा वह बात हुई- 'राजा कहानी कहे, रानी जूं टटोले।' देखा:-

हलवाई की दुकान थी। सौदा उठ चूका था। बिजली का एक बल्ब अभी जल रहा था। लाला दुकान के तख्त पर चिलम उलट कर दीवार से लगे औंघा रहे थे। नीचे सड़क पर कढ़ाई ईट के सहारे टिका कर रक्खी गई थी। उसे माँजने के प्रयत्न में एक छोटी उम्र का लड़का उसी में सो गया था। कालिख से भरा जूना उसके हाथ में थमा था और उसकी बाँह फैली हुई थी। दूसरा हाथ कड़े को थामे था। कढ़ाई को घिसते-घिसते लड़का औंघा गया और फैली हुई बाँह पर सिर रख सो गया।

एक कुत्ता कढ़ाई के किनारे बच रही मलाई को चाट रहा था। मैं देख कर परिस्थिति समझने का यत्न कर रहा था कि श्रीमती जी ने पिघले हुए स्वर में क्रोध का पुट दे कर कहा- "देखते हो ज़ुल्म!… क्या तो बच्चे की उम्र है और रात के एक बजे तक यह कढ़ाई, जिसे वह हिला नहीं सकता; उस से मँजाई जा रही है।"

मेरी बाँह में डाले हुए हाथ पर बोझ दे वे कढ़ाई पर झुक गईं और लड़के की बाँह को हिला उसे पुचकार कर उठाने लगीं।

लड़का नींद से चौंक कर झपाटे से कढ़ाई में जून के रगड़े लगाने लगा परन्तु श्रीमती जी के पुचकारने से उसने नींद भरी आँख उठा कर उनकी ओर देखा।

मेरी इस बात को अपने समझने योग्य भाषा में प्रकट करने के लिए वे बोलीं- "हाय, कैसे पत्थर दिल होते हैं जो इस उम्र के बच्चों को इस तरह बेच डालते हैं। और इस राक्षस को देखो, बच्चे को मेहनत पर लगा खुद सो रहा है।" फिर बच्चे को पुचकार कर साथ चलने के लिए पुकारने लगीं।

इस गुल-गपाड़े से लाला की आँख खुल गई। नींद से भरी लाल आँखों को झपकाते हुए लाला देखने लगे पर इससे पहले कि वे कुछ समझें या बोल पायें, श्रीमती जी लड़के का हाथ थाम ले चलीं। फिल्म और कला की चर्चा श्रीमती जी की करुणा और क्रोध के प्रवाह में डूब गई।

कानूनी पेशा होने के कारण कानून की ज़द का ख़्याल आया। समझाया- "कम उम्र बच्चों को उसके माँ-बाप की अनुमति के बिना इस प्रकार खींच ले जाने से पुलिस के झंझट में पड़ना होगा।"

राजा और समाज के कानून से जबरदस्त कानून है स्त्रियों का। पति को बिना किसी हीलो-हुज्जत के स्त्री के सब हुकुम मानने ही पड़ते हैं। श्रीमती जी ने अपना कानून अड़ाकर कहा- "इसके माँ-बाप आकर ले जायेंगे। हम कोई लड़के को भगाये थोड़े ही लिए जा रहे हैं। लड़के पर इस तरह ज़ुल्म करने का किसी को क्या हक है? यह भी कोई कानून है?"

लाला आँख झपकाते रहे और हम उस लड़के को लिए चले आये। लाला बोले क्यों नहीं? कह नहीं सकता। शायद कोई बड़ा सरकारी अफसर समझ कर चुप रह गए हों।

लड़के से पूछने पर मालूम हुआ कि दरअसल उसके माँ-बाप थे नहीं। मर गए थे। कोई उसका दूर का रिश्तेदार उसे लाला के यहाँ छोड़ गया था।

दूसरे रोज़ लाला बँगले के अहाते में हाज़िर हुए और बोले कि यों तो आप माई-बाप हैं लेकिन यह मेम साहब की ज़्यादती है। लड़के के बाप की तरफ लाला के साठ रुपये आते थे और वह मर गया। लाला उल्टे और अपनी गाँठ से लड़के को खिला-पहना कर पाल-पोस रहे थे। लड़के की उम्र ही क्या है कि कुछ काम करेगा? ऐसे ही दुकान पर चीज़ धर-उठा देता था सो मेम साहब उसे भी उठा लाईं। लाला बेचारे पर ज़ुल्म ही ज़ुल्म है। उन्हें उनके साठ रुपये दिला दिए जायें, सूद वे छोड़ देने को तैयार हैं। या फिर लड़का ही उनके पास रहे।

बरामदे के फ़र्श पर जूते की ऊँची एड़ी पटक, भौं चढ़ा कर श्रीमती जी ने कहा- "ऑल राइट।" इसके बाद शायद वे कहना चाहती थीं साठ रुपये ले जाओ!

परिस्थिति नाज़ुक देख बीच में बोलना पड़ा- "लाला, जो हुआ, अब चले जाओ वरना लड़का भगाने और 'क्रुएल्टी टू चिल्ड्रन' (बच्चों के प्रति निर्दयता) के जुर्म में गिरफ़्तार हो जाओगे।" अहाते के बाहर जाते हुए लाला की पीठ से नज़र उठाकर श्रीमती जी ने विजय गर्व से मेरी ओर देखा। उनका अभिप्राय था- देखो तुम खामुखाह डर रहे थे। हम ने कैसे सब मामला ठीक कर दिया। तुम कुछ भी समझ नहीं सकते!

लड़के का नाम था हरुआ। श्रीमती ने कहा- यह नाम ठीक नहीं। नाम होना चाहिए, हरीश। लड़के की कमर पर केवल एक अंगोछा-मात्र था, शेष शरीर ढका हुआ था मैल के आवरण से। सिर के बाल गर्दन और कानों पर लटक रहे थे।

लाइफ ब्यॉय साबुन की झाग में घुल-घुल कर वह मैल बह गया और हरीश साँवला-सलोना बालक निकल आया। दरबान के साथ सैलून में भेज कर उसके बाल भी छंटवा दिए गए। बिशू के लिए नई कंघी मंगाकर पुरानी हरीश के बालों में लगा दी गई। बिशू के कपड़े भी हरीश के काम आ सकते थे परन्तु लड़कों में चार बरस का अंतर काफी रहता है। खैर, जो भी हो, हफ्ते भर में हरीश के लिए भी नेवीकट कॉलर के तीन कमीज और नेकर सिल गए। उसके असुविधा अनुभव करने पर भी उसे जुराब और जूता पहनना पड़ा। श्रीमती जी ने गम्भीरता से कहा- "उसके शरीर में भी वैसा ही रक्त-मांस है जैसा कि किसी और के शरीर में!" उनका अभिप्राय था, अपने पेट के लड़के बिशू से परन्तु इस का कारण था कि बिशू आखिर पुत्र तो मेरा भी है।

उन्होंने कहा- "उस के भी दिमाग है। वह भी मनुष्य प्राणी है और उसे मनुष्य बनाना भी हमारा कर्तव्य है।" हरीश के कोई काम स्वयं कर देने पर प्रसन्नता के समय वे मेरा ध्यान आकर्षित कर कहतीं- "लड़के में स्वाभाविक प्रतिभा है। यदि उसे अवसर मिले तो वह क्या नहीं कर सकेगा। हाँ, उस मज़दूर का क्या नाम था जो अमेरिका का प्रेजिडेंट बन गया था? मौका मिले तो आदमी उन्नति कर क्यों नहीं सकता?"

चार वर्ष की आयु ऐसी नहीं जिसमें अधिकार का गर्व न हो सके या श्रेणी विशिष्टता का भाव न हो। अपनी जगह पर अपने से नीची स्थिति के बालक को अधिकार जमाते देख, अपनी माँ को दूसरे के सिर पर हाथ फेरते देख और हरीश को अपनी सम्पत्ति का प्रयोग करते देख, बिशू को ईर्ष्या होने लगती। रोनी सूरत बनाकर वह होंठ लटका लेता या हाथ में थमी किसी चीज़ से हरीश को मारने का यत्न करने लगता। श्रीमती जी को सब बातों में गरीबी और मनुष्यता का अपमान दिखाई देता। गम्भीरता से वे बिशू को ऐसा अन्याय करने से रोकतीं और हरीश का साहस बढ़ा कर उसे अपने आप को किसी से कम न समझने का उपदेश देतीं।

हरीश बात-बात में सहमता, सकपकाता। पास बैठने के बजाय दूर चला जाता और बिशू के खिलौनों के लोभ की झलक दिखाई देती रहती। श्रीमती जी उसे संतुष्ट कर, उसका भय मिटाकर उसे बिशू के साथ समानता के दर्जे पर लाने का प्रयत्न करतीं। कई दफे उन्होंने शिकायत की कि मेरे स्वर में हरीश के लिए वह अपनापन क्यों नहीं आ पाता जो आना चाहिए, जैसा बिशू के लिए है? इस मामले में कानून का हवाला या वकालत की जिरह मेरी मदद नहीं कर सकती थी इसलिए चुप रहने के सिवा चारा न था।

हरीश के प्रति सहानुभूति, उसे मनुष्य बनाने की इच्छा रखते हुए भी मैं श्रीमती जी को इस बात का विश्वास न दिला सका। हरीश के प्रति उनकी वत्सलता और प्रेम मेरी पहुँच से एक बालिस्त ऊँचा ही रहता।

श्रीमती जी को शिकायत थी कि हरीश आकर, अधिकार से उनके पास क्यों नहीं ज़रूरत की चीज़ के लिए ज़िद्द करता? उन्हें ख़्याल था कि इन सब का कारण मेरा भय ही था।

एक दिन बुद्धिमानी और गहरी सूझ की बात करने के लिए उन्होंने सुना कर कहा- "पुरुष सिद्धान्त और तर्क की लम्बी-लम्बी बातें कर सकते हैं परन्तु हृदय को खोल कर फैला देना उनके लिए कठिन है।" सोचा- श्रीमती जी को समानता की भावना के लिए उत्साहित कर उन्हें अपना बड़प्पन अनुभव कराने के लिए मैं अवसर पेश नहीं कर पाता हूँ, यही मेरा कुसूर है।

एक रियासत के मुकदमे में सोहराबजी का जूनियर बनकर केदारपुर जाना पड़ा। उम्र बढ़ जाने पर प्रणय का अंकुश तो उतना तीव्र नहीं रहता पर घर की याद जवानी से भी अधिक सताती है। कारण है, शरीर का अभ्यास। समय और स्थान पर आवश्यकता की वस्तु का सहज मिल जाना विदेश में नहीं हो सकता और न शैथिल्य का संतोष ही मिल सकता है।

केदारपुर में लग गए चार मास। औसत आमदनी से अढ़ाई गुना आमदनी के लोभ ने सब असुविधाओं को परास्त कर दिया। घर से सम्बन्ध था केवल श्रीमती जी के पत्र द्वारा। कभी सप्ताह में एक पत्र और कभी सप्ताह में तीन आते। बिशू को जुकाम हो जाने पर एक सप्ताह में चार पत्र भी आए। आरम्भ के पत्रों में हरीश का ज़िक्र भी एक पैराग्राफ रहता था और दूसरे पैराग्राफ में उसके सम्बन्ध में थोड़ी-बहुत चर्चा। सोचा- मेरी गैरहाज़िरी में मेरी अनुदारता से मुक्ति पाकर लड़का तीव्र गति से मनुष्य बन जाएगा।

कुछ पत्रों के बाद हरीश की ख़बरों की सरगर्मी कम हो गई। फिर शिकायत हुई कि वह पढ़ने-लिखने की ओर मन न लगा कर गली में मैले-कुचैले लड़कों के साथ खेलता रहता है। बाद में खबर आई कि वह कहना नहीं मानता, स्वाभाव का बहुत जिद्दी है। बहुत डल (सुस्त दिमाग) है। हर समय कुछ खाता रहना चाहता है। इसी से उसका हाजमा ठीक नहीं रहता।

लौटकर आने पर बैठा ही था कि श्रीमती जी ने शिकायत की- "सचमुच तुम बड़े अजीब आदमी हो! हम यहाँ फ़िक्र में मरते रहे और तुम से खत तक नहीं लिखा जा सकता था! ऐसी भी क्या बेपरवाही! यहाँ यह मुसीबत कि लड़के को खांसी हो गई। तीन-तीन दफे डॉक्टर को बुलवाना था। घर में सिर्फ दो तो नौकर हैं। वे घर का काम करें या डॉक्टर को बुलाने जायें! इस लड़के को देखो" हरीश की ओर संकेत करके, "ज़रा डॉक्टर बुलाने भेजा तो सुबह से दुपहर तक गलियों में खेलता फिरा और डॉक्टर का घर इसे नहीं मिला। डॉक्टर जमील को शहर में कौन नहीं जानता?"

हरीश बिशू को गोद में लिए श्रीमती जी की ओर सहमता हुआ मेरे समीप आना चाहता था। इस उम्र में भी आदमी इतना चालाक हो सकता है? हरीश को बिशू से इतना अधिक स्नेह हो गया था या वह उसे इसलिए उठाये था कि उसे सम्भाले रहने पर उसे खाली खेलते रहने के कारण डाँट न पड़ेगी।

उसकी ओर देख श्रीमती जी ने कहा- "अरे उसे खेलने क्यों नहीं देता? तुझे कई दफे तो कहा, गुसलख़ाने में गीले कपड़े पड़े हैं उन्हें ऊपर सूखने डाल आ!"

हरीश महफिल से यों निकाले जाने के कारण अपनी कातर आँखों से पीछे की ओर देखता चला गया। कुछ ही देर में वह फिर आ हाज़िर हुआ। उसकी ओर देख श्रीमती जी ने कहा- "हरीश जाओ देखो, पानी लेकर खस की टट्टियों को भिगो दो! सुनो, यों ही पानी मत फेंक देना। स्टूल पर खड़े होकर अच्छी तरह भिगो देना।"

मेरी ओर देखकर वे बोलीं- "जिस काम के लिए कहूँ, कतरा जाता है।"

"इसे पढ़ाने के लिए जो स्कूल के एक लड़के को चार रुपये देने के लिए तय किया था, वह क्या नहीं आता?" ... मैंने पूछा।

बिशू के गले का बटन लगाते हुए श्रीमती जी बोलीं- "खामुखाह पढ़े भी कोई, यह पढ़ता ही नहीं; पढ़ चुका यह! बस खाने की हाय-हाय लगी रहती है। कोई चीज़ संभालकर रखना मुश्किल हो गया है।"

हरीश कमरे में तो दाखिल न हुआ लेकिन दरवाजे से झांककर चक्कर ज़रूर काट गया। वह संदेह भरी नज़रों से कुछ ढूंढ रहा था। फल की टोकरी से कुछ लीचियाँ निकालकर श्रीमती जी ने बिशू के हाथ में दीं। उसी समय हरीश की ललचाई हुई आँखें बिशू के हाथों की ओर ताकती हुई दिखाई दीं!

श्रीमती जी खीझ गईं- "हरदम बच्चे के खाने की ओर आँखें उठाए रहता है। जाने कैसा भुक्कड़ है! इन लोगों को कितना ही खिलाओ, समझाओ, इनकी भूख बढ़ती ही जाती है… ले इधर आ!" दो लीचियाँ उसके हाथ में देकर बोलीं, "जा बाहर खेल, क्या मुसीबत है।"

उसी शाम को एक और मुसीबत आ गई। जो कपड़े हरीश ने सुबह सूखने डाले थे, वे हवा में उड़ गए। श्रीमती जी ने भन्ना कर कहा- "तुम्हीं बताओ, मैं इसका क्या करूँ? वही बात हुई न कि 'कुत्ते का गू न लीपने का न थापने का।' अच्छी बला गले पड़ गई। समझाने से समझता भी तो नहीं।… इसकी सोहबत में बिशू ही क्या सीखेगा? कोई भला आदमी आये, सिर पर आकर सवार होता है। स्कूल भिजवाया तो वहाँ पढ़ता नहीं। लड़कों से लड़ता है। अपने आगे किसी को कुछ समझता थोड़े ही है। तुमने उसे लाट साहब बना दिया है, कम-जात कहीं अपनी आदत से थोड़े ही जाता है?"

क्या उत्तर देता? बात टाल गया। फिर दूसरे समय श्रीमती जी ने बिशू को उठाकर गोद में दे दिया। वे देखना चाहती थीं कि बिशू मेरी गोद में बैठने से कैसा जान पड़ता है? उस समय हरीश भी दौड़कर आया और बिलकुल सटकर खड़ा हो गया। पोज़ का यों बिगड़ जाना, श्रीमती जी को न भाया। सुनाकर बोलीं- "बन्दर को मुंह लगाने से वह नोचेगा ही तो! इन लोगों के साथ जितनी भलाई करो, उतना ही सिर पर आते हैं। यह कोई आदमी थोड़े ही हैं।"

कह नहीं सकता हरीश कितना समझा और कितना नहीं, पर इतना वह ज़रूर समझा कि बात उसी के बारे में थी और उसके प्रति आदर की नहीं थी। इतना तो पालतू कुत्ता भी समझ जाता है। गले का स्वर ही यह प्रकट कर देता है। हरीश कतराकर चला गया और मुंडेर पर ठोढ़ी रख गली में झाँकने लगा।

कोई ऐसा ढंग सोचने लगा कि अपनी बात भी कह सकूं और श्रीमती को भी विरोध न जान पड़े। कहा- "जानवर को आदमी बनाना बहुत कठिन है। उसे पुचकार कर बुलाने में बुरा नहीं मालूम होता क्योंकि उसमें दया करने का संतोष होता है परन्तु जब जानवर स्वयं ही पंजे गोद में रख मुंह चाटने का यत्न करने लगता है, तो अपना अपमान जान पड़ने लगता है।"

आवाज़ गरम कर श्रीमती जी बोलीं- "तो मैं कब कहती हूँ..."

उन्हें बात पूरी न करने देता तो जाने कितना लम्बा बयान और जिरह सुननी पड़ती, इसलिए झट से बात काटकर बोला- "ओहो, तुम्हारी बात नहीं, मैं बात कर रहा हूँ यह सरकार और मजदूरों के झगड़े की !"

मन में भर गए क्रोध को एक लम्बी फुफकार में छोड़ उन्होंने जानना चाहा, मैं बहाना तो नहीं कर गया। इसलिए पूछा- "सो कैसे?"

उत्तर दिया- "यही सरकार मज़दूरों की भलाई के लिए कानून पास करती है और जब मज़दूरों का हौंसला बढ़ जाता है, वे खुद ही अधिकार मांगने लगते हैं, तब सरकार को उनका आंदोलन दबाने की ज़रूरत महसूस होने लगती है।"

श्रीमती जी को विश्वास हो गया कि किसी प्रकार का विरोध मैं उनके व्यवहार के प्रति नहीं कर रहा। बोलीं- "तभी तो कहते हैं, 'कुत्ते की पूँछ बारह बरस नली में रक्खी, पर सीधी नहीं हुई।' हाँ, उस रोज़ वो लाला साठ रुपये की धमकी दे रहा था। बनिया ही ठहरा! कहीं सूद भी गिनने लगे तो जाने रकम कहाँ तक पहुँचे? इस झगड़े में पड़ने से लाभ?"

श्रीमती जी का मतलब तो समझ गया परन्तु समझ कर आगे उत्तर देना ही कठिन था इसलिए उनकी तरफ विस्मय से देखकर पूछा- "क्या मतलब तुम्हारा?"

"कुछ नहीं" ... श्रीमती जी झुंझला उठीं। उन्हें झल्लाहट थी मेरी कम समझी पर और कुछ झेंप थी जानवर को मनुष्य बना देने के असफल अभिमान पर।

मैं जानता हूँ- बात दब गई, टली नहीं। कल फिर यह प्रश्न उठेगा परन्तु किया क्या जाए? कुत्ते की पूँछ एक दफे काट लेने पर उसे फिर से उसकी जगह लगा देना कैसे सम्भव हो सकता है? और मनुष्यता का चस्का एक दफे लग जाने पर किसी को जानवर बनाये रखना भी तो सम्भव नहीं।

5. महाराजा का इलाज

Yashpal ki kahaniya

मोहाना की रियासत का बहुत नाम था। रियासत की प्रतिष्ठा के अनुरूप ही महाराजा साहब मोहाना की बीमारी की भी प्रसिद्धि हो गई थी। लखनऊ के गवर्नमेंट हाउस तक में महाराजा की बीमारी की चर्चा थी। युद्ध-काल में गवर्नर के यहां से युद्ध-कोष में चंदा देने के लिए पत्र आया था तो महाराजा की ओर से पच्चीस हज़ार रुपए का चेक दिया गया। गवर्नर के सेक्रेटरी ने भेंट की गई धन-राशि के लिए धन्यवाद देकर महाराज की बीमारी के लिए चिंता और सहानुभूति भी प्रकट की थी। वह पत्र कांच लगे चौखटे में मढ़वाकर महाराज के, ड्रॉइंग-रूम में लगा दिया गया। ऐसा ही एक पोस्टकार्ड महात्मा गांधी के हस्ताक्षरों में और एक पत्र महामना मदनमोहन मालवीय का भी विशेष अतिथियों को दिखाया जाता था। साधारण लोग-बाग़ की तरह उन्हें कोई साधारण बीमारी नहीं थी। देश और विदेश से आए हुए बड़े से बड़े डॉक्टर भी बीमारी का निदान और उपचार करने में मुंह की खा गए थे। चिकित्सा-शास्त्र के इतिहास में ऐसा रोग अब तक देखा-सुना नहीं गया। ऐसे राज-रोग को कोई साधारण आदमी झेल भी कैसे सकता था।

महाराज गर्मियों में अपनी मसूरी की कोठी में जाकर रहते थे। सितंबर के महीने में महाराज के पहाड़ से नीचे अपनी रियासत में या लखनऊ की कोठी पर लौटने से पहले मसूरी में डॉक्टरों के मेले की धूम मच जाती। बात फैल जाती कि महाराज को देखने के लिए देशभर से बड़े-बड़े डॉक्टर आ रहे हैं। सब डॉक्टर बारी-बारी से महाराज की परीक्षा कर चुकते तो महाराज की बीमारी के निदान का निश्चय करने के लिए डॉक्टरों का एक सम्मेलन होता और फिर डॉक्टरों की सम्मिलित राय से महाराज की बीमारी पर एक बुलेटिन प्रकाशित किया जाता। सब डॉक्टर अपनी-अपनी फ़ीस, आने-जाने का किराया और आतिथ्य पाकर लौट जाते परंतु महाराज के स्वास्थ्य में कोई सुधार न होता। न उनके हृदय और सिर की पीड़ा में अंतर आता और न उनके जुड़ गए घुटनों में किसी प्रकार की गति आ पाती। नौ वर्ष से यह इसी प्रकार चल रहा था।

उस वर्ष बम्बई मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल डॉक्टर कोराल के सुझाव पर डॉक्टर संघटिया मसूरी पहुंचे थे। वियना में काम कर चुके डॉक्टर संघटिया अनेक रोगों का इलाज साइकोसोमेटिक प्रणाली से करते थे। महाराज के यहां भी वियना से नए डॉक्टर के आने की बात से उत्साह अनुभव किया गया। उन्हें एक बहुत बड़े होटल में टिकाया गया। दूसरे दिन वे महाराज की कोठी में लाए गए। ड्रॉइंग-रूम में एक अमरीकन और एक भारतीय डॉक्टर भी मौजूद थे। डॉक्टर संघटिया ने बहुत ध्यान से दो घंटे से अधिक समय तक रोगी की परीक्षा की। पिछले वर्षों में महाराज के रोग के निदान के सम्बन्ध में डॉक्टरों के बुलेटिन देखे। तीसरे दिन दोपहर बाद डॉक्टरों की एक सभा का आयोजन किया गया। डॉक्टर लोग प्रायः एक घंटे तक चाय, कॉफ़ी, व्हिस्की, जिन की चुस्कियां लेते आपस में बातचीत करते अपने मंतव्य लिखते रहे।
                                                                   

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साढ़े-चार बजे महाराजा साहब को एक पहिए लगी आराम कुर्सी पर हॉल में लाया गया। महाराज के चेहरे पर रोगी की उदासी और दयनीय चिंता नहीं, असाधारण-दुर्बोध रोग के बोझ को उठाने का गर्व और गम्भीरता छाई हुई थी। दो डॉक्टरों ने महाराज को उपचार के लिए न्यू यॉर्क जाकर विद्युत चिकित्सा करवाने की राय दी। एक डॉक्टर का विचार था कि महाराज को एक वर्ष तक चेकोस्लोवाकिया में ‘कालोंविवारी’ के चश्मे में स्नान करना चाहिए। सोवियत का भ्रमण करके आए एक डॉक्टर का सुझाव था कि महाराज की काले समुद्र के किनारे सोची में ‘मातस्यस्ता’ स्रोत के जल से अपना इलाज करवाना चाहिए। महाराज गंभीरता से डॉक्टरों की राय सुन रहे थे। सत्ताइसवें नंबर पर डॉक्टर संघटिया से अपना विचार प्रकट करने का अनुरोध किया गया।

डॉक्टर संघटिया बोले,‘‘महाराज के शरीर की परीक्षा और रोग के इतिहास के आधार पर मेरा विचार हैं कि यह रोग साधारण शारीरिक उपचार द्वारा दूर होना संभव नहीं है।’’

महाराज ने नए, युवा डॉक्टर की विज्ञता के समर्थन में एक गहरा श्वास लिया, उनकी गर्दन ज़रा और ऊंची हो गई। महाराज ध्यान से नए डॉक्टर की बात सुनने लगे।

डॉक्टर संघटिया बोले,‘‘मुझे इस प्रकार के एक रोगी का अनुभव है। कई वर्ष से बम्बई मेडिकल कॉलेज के एक मेहतर को ठीक इसी प्रकार घुटने जुड़ जाने और हृदय तथा सिर की पीड़ा का दुस्साध्य रोग है।।।’’
‘‘चुप बदतमीज़ !’’
सब डॉक्टरों ने सुना। वे विस्मय से देख रहे थे कि महाराज पहिए लगी आराम कुर्सी से उठकर खड़े हो गए थे। उनके बरसों से जुड़े घुटने कांप रहे थे और होंठ फड़फड़ा रहे थे, आंखें सुर्ख़ थीं।
‘‘निकाल दो बाहर बदज़ात को! हमको मेहतर से मिलाता है।।। डॉक्टर बना है,’’ महाराज क्रोध से चीख रहे थे।
महाराज सेवकों द्वारा हॉल से कुर्सी पर ले जाए जाने की परवाह न कर कांपते हुए पैरों से हॉल से बाहर चले गए।

दूसरे डॉक्टर पहले विस्मित रह गए। फिर उन्हें अपने सम्मानित व्यवसाय के अपमान पर क्रोध आया और साथ ही उन के होंठों पर मुस्कान भी फिर गई। डॉक्टर संघटिया ने सबसे अधिक मुस्कुराकर कहा,‘‘ख़ैर, जो हो, बीमारी का इलाज तो हो गया!

6. होली का मजाक

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“बीबी जी, आप आवेंगी कि हम चाय बना दें!” किलसिया ने ऊपर की मंज़िल की रसोई से पुकारा।

“नहीं, तू पानी तैयार कर- तीनों सेट मेज़ पर लगा दे, मैं आ रही हूँ। बाज़ आए तेरी बनाई चाय से। सुबह तीन-तीन बार पानी डाला तो भी इनकी काली और ज़हर की तरह कड़वी. . .। तुम्हारे हाथ डिब्बा लग जाए तो पत्ती तीन दिन नहीं चलती। सात रुपए में डिब्बा आ रहा है। मरी चाय को भी आग लग गई है।” मालकिन ने किलसिया को उत्तर दिया। आलस्य अभी टूटा नहीं था। ज़रा और लेट लेने के लिए बोलती गईं, “बेटा मंटू, तू ज़रा चली जा ऊपर। तीनों पॉट बनवा दे। बेटा, ज़रा देखकर पत्ती डालना, मैं अभी आ रही हूँ।”

“अम्मा जी, ज़रा तुम आ जाओ! हमारी समझ में नहीं आता। बर्तन सब लगा दिए हैं।” सत्रह वर्ष की मंटू ने ऊपर से उत्तर दिया।

ठीक ही कह रही है लड़की, मालकिन ने सोचा। घर मेहमानों से भरा था, जैसे शादी-ब्याह के समय का जमाव हो। चीफ़ इंजीनियर खोसला साहब के रिटायर होने में चार महीने ही शेष थे। तीन वर्ष की एक्सटेंशन भी समाप्त हो रही थी। पिछले वर्ष बड़े लड़के और लड़की के ब्याह कर दिए थे। रिटायर होकर तो पेंशन पर ही निर्वाह करना था। जो काम अब हज़ार में हो जाता, रिटायर होने पर उस पर तीन हज़ार लगते। रिटायर होकर इतनी बड़ी, तेरह कमरे की हवेली भी नहीं रख सकते थे।

पहली होली पर लड़की जमाई के साथ आई थी। बड़ा लड़का आनंद सात दिन की छुट्टी लेकर आया था इसलिए बहू को भी बुला लिया था। आनंद की छोटी साली भी बहन के साथ लखनऊ की सैर के लिए आ गई थी। इंजीनियर साहब के छोटे भाई गोंडा जिले में किसी शुगर मिल में इंजीनियर थे। मई में उनकी लड़की का ब्याह था। वे पत्नी, साली और लड़की के साथ दहेज ख़रीदने के लिए लखनऊ आए हुए थे। खूब जमाव था।
मालकिन ऊपर पहुँची। प्लेटों में अंदाज़ से नमकीन और मिठाई रखी। जमाई ज्ञान बाबू के लिए बिस्कुट और संतरे रखे। साहब इस समय कुछ नहीं खाते थे। उनके लिए थोड़ी किशमिश रखी। किलसिया और सित्तो के हाथ नीचे भेजने के लिए ट्रे में चाय लगाने लगीं।

“अम्मा जी, यह क्या?” मंटू माँ के बायें हाथ की ओर संकेत कर झल्ला उठी, “फिर वही डंडे जैसी खाली कलाइयाँ! कड़ा फिर उतार दिया! तुम्हें तो सोना घिस जाने की चिंता खाए जाती है।”

“नहीं मंटू. . .” माँ ने समझाना चाहा।

“तुम ज़रा ख़याल नहीं करतीं,” मंटू बोलती गई, “इतने लोग घर में आए हुए हैं। त्योहार का दिन है। यही तो समय होता है कि कुछ पहनने का और तुम उतार कर रख देती हो. . .।”

मंटू झुँझला ही रही थी कि उसकी चाची, मालकिन की देवरानी लीला नाश्ते में सहायता देने के लिए ऊपर आ गई। उसने भी मंटू का साथ दिया, “हाँ भाभी जी, त्योहार का दिन है, घर में बहू आई है, जमाई आया है, ऐसे समय भी कुछ नहीं पहना! कलाई नंगी रहे तो असगुन लगता है। सुबह तो चूड़ियाँ भी थीं, कड़ा भी था।”

मालकिन ने नाश्ता बाँटने से हाथ रोककर मंटू से कहा, “जा नन्हीं, दौड़कर जा, बीचवाले गुसलखाने में देख! सिर धोने लगी थी तो बालों में उलझ रहा था, वहीं उतार कर रख दिया था। जहाँ मंजन-वंजन पड़ा रहता है, वहीं रखा था। लाकर पहना दे!”

“मंटू जी ने धड़धड़ाती हुई नीचे गई। गुसलखाने में देखकर उसने वहीं से पुकारा, “अम्मा जी, यहाँ कुछ नहीं है।”

मालकिन ने मंटू की बात सुनी तो चेहरे पर चिंता झलक आई। देवरानी से बोलीं, “लीला, मेरे बाद तुम नहाई थी न। तुमने नहीं देखा! आलमारी में रख दिया था।” और फिर वहीं बैठे-बैठे मंटू को उत्तर दिया, “अच्छा बेटी, ज़रा अपने कमरे में तो देख ले! ड्रेसिंग टेबल की दराज़ में देख लेना, कपड़े वहीं पहने थे!”

लीला की बहन कैलाश भी आ गई थी। उसने भी पूछ लिया, “क्या है, क्या नहीं मिल रहा?”
लीला को भाभी की बात अच्छी नहीं लगी। चेहरा गंभीर हो गया। उसने तुरंत अपनी बहन को संबोधन किया, “काशो, हम दोनों तो नीचे के गुसलखाने में नहाने गई थीं. . .।”

मालकिन ने देवरानी के बुरा मान जाने की आशंका में तुरंत बात बदली, “मैं तो कह रही हूँ कि तू वहाँ नहाई होती तो उठाकर सँभाल लिया होता।”
भाभी की बात से लीला को संतोष नहीं हुआ। उसने फिर कैलाश को याद दिलाया, “काशो, मैं बीच के गुसलखाने में जा रही थी तो किलसिया ने नहीं कहा था कि बहू का साबुन-तौलिया और उसके लिए गरम पानी रख दिया है। आपके बाद तो कुसुम ही नहाई थी। सँभाल कर रखा होगा तो उसी के पास होगा।”

बीच की मंज़िल से फिर मंटू की पुकार सुनाई दी, “अम्मा जी, यहाँ भी नहीं है, मैंने सब देख लिया है।”
मालकिन ने कैलाश से कहा, “काशो बहन, तू जा नीचे, मंटू से कह कि ज़रा कुसुम से पूछ ले। उसने सँभाल लिया होगा। मुझे तो यही याद है कि गुसलखाने की आलमारी में रखा था।”

कैलाश नीचे जा रही थी तो लीला ने मालकिन को सुझाया,

“भाभी जी, आपके बाद. . .।”

किलसिया कमरे में आ गई थी। बोली, “गोल कमरे में चाय दे दी है। बड़े साहब, जमाई बाबू और बड़े भैया तीनों वहीं पी रहें हैं। पकौड़ी लौटा दी है, कोई नहीं खाएगा। बहू जी, उनकी बहन और बड़ी बिटिया भी चाय नीचे मँगा रही हैं।”

“सित्तो क्या कर रही है?” मालकिन ने किलसिया से पूछा।

“नीचे के गुसलखाने में कपड़े धो रही है।”

किलसिया बहू, उनकी बहन और बड़ी बिटिया के लिए चाय लेकर चली तो बोली, “आपके बाद कुसुम से पहले किलसिया भी तो गुसलखाने में गई थी। उसी ने तो आपके कपड़े उठाकर कुसुम के लिए साबुन-तौलिया रखा था।” लीला ने स्वर दबा कर कहा।

“भाभी जी, मैंने आपसे कहा नहीं पर किलसिया की आदत अच्छी नहीं है। पहले भी देखा, इस बार भी दो बार पैसे उठ चुके हैं। परसों मैंने मेज़ की दराज में एक रुपया तेरह आना रख दिए थे, चार आने चले गए। 'इनके' कोट की जेब में रुपए-रुपए के सत्ताइस नोट थे, एक रुपया उड़ गया। कमरे किलसिया ही साफ़ करती है। मैंने सोचा, इतनी-सी बात के लिए मैं क्या कहूँ?”

मालकिन ने समझाया, “तू भी क्या कहती है लीला! आठ आने, रुपए की बात मैं मानती हूँ, मरी उठा लेती होगी पर पाँच तोले का कड़ा उठा ले, ऐसी हिम्मत कहाँ? मरी बेचने जाएगी तो पकड़ी नहीं जाएगी?”

मंटू और कैलाश ने आकर बताया, “कुसुम भाभी कहती हैं कि उन्होंने तो कड़ा देखा नहीं।”

सित्तो ने कपड़े धोकर सामने की छत पर लगे तारों पर फैला दिए थे। उसने वहीं से मालकिन को पुकारा, “बीबी जी, सब काम हो गया, अब हम जाएँ!”

किलसिया फिर ऊपर आ गई थी। वह भी बोली, “हमें भी छुट्टी दीजिए, त्योहार का दिन है, ज़रा घर की भी सुध लें।”

“जाना बाद में,” मालकिन बोलीं, “देखो, हमने सिर धोया था तो कड़ा उतार की गुसलखाने की अलमारी में रख दिया था। पहले ढूंढ़ कर लाओ, तब कोई घर जाएगा।”

किलसिया ने तुरंत विरोध किया, “हम क्या जाने, हमें तो जिसने जो कपड़ा दिया गुसलखाने में रख दिया। रंग से ख़राब कपड़े उठा कर धोबी वाली पिटारी में डाल दिए। हमने छुआ हो तो हमारे हाथ टूटें।”

सित्तो ने दुहाई दी, “हाय बीबी जी, हम तो बीच के गुसलखाने में गई ही नहीं। हम तो सुबह से महाराज के साथ बर्तन-भांडे में लगी रहीं और तब से नीचे कपड़े धो रही थीं।”

“ख़ामख़्वाह क्यों बकती हो!” मालकिन ने दोनों को डाँट दिया, “मैं किसी को कुछ कह रही हूँ? कड़ा गुस्लख़ाने में रखा था, पाँच तोले का है, कोई मज़ाक तो है नहीं! किसकी हिम्मत है जो पचा लेगा!”

घर भर में चिंता फैल गई। सब ओर खुसुर-फुसुर होने लगी। बात मर्दों में भी पहुँच गई। जमाई ज्ञान बाबू ने पुकारा, “क्यों मंटा बहन जी, क्या बात है? माँ जी, मंटा ने छिपा लिया है। कहती है पाँच चाकलेट दोगी तो ढूंढ देगी।”

मंटा ने विरोध किया, “हाय जीजा जी, कितना झूठ! मैंने कब कहा? मैं तो खुद सब जगह ढूँढ़ती फिर रही हूँ।”

बड़ा लड़का आनंद भी बोल उठा, “अम्मा जी, याद भी है कि कड़ा पहना था। कहीं स्टील वाली अलमारी में ही तो नहीं पड़ा है। तुम घर भर ढूँढ़वा रही हो। तुम भूल भी तो जाती हो। चाभियाँ रखती हो ड्रेसिंग टेबल की दराज में छिपाकर और ढूँढ़ती हो रसोई में।”

मालकिन ने जीना उतरते हुए बेटे को उत्तर दिया, “तुम भी क्या कह रहे हो? कल शाम लीला के साथ दाल धो रही तो बायें हाथ से घड़ी खोल कर रख दी थी। मंटू ने शोर मचाया, खाली कलाई अच्छी नहीं लगती। वही घड़ी नीचे रखकर कड़ा ले आई थी।”
बड़ी लड़की ने माँ का समर्थन किया, “क्या कह रहे हो भैया, सुबह भी कड़ा अम्मा जी के हाथ में था। हमने खुद देखा है।”
कैलाश ने भी वीणा का समर्थन किया, “सुबह मिश्रानी जी के यहाँ गई थीं, तब भी कड़ा हाथ में था। मिश्रानी जी ने नहीं कहा था कि बहुत दिनों बाद पहना है!”

सित्तो ने दोनों गुसलखाने अच्छी तरह देखे। फिर महाराज के साथ रसोई में सब जगह देख रही थी। किलसिया सब कमरों में जा-जाकर ढूंढ़ रही थी। न देखने लायक जगह में भी देख रही थी और बड़बड़ाती जा रही थी, “बीबी जी चीज़-बस्त खुद रख कर भूल जाती हैं और हम पर बिगड़ा करती हैं।”

बात घर में फैल गई थी। बड़े साहब और छोटे साहब ने भी सुन लिया था। दोनों ही इस विषय में जिज्ञासा कर चुके थे। छोटे साहब भाभी से अंग्रेज़ी में पूछ रहे थे, “आपके नहाने के बाद नौकरों में से कोई घर के बाहर गया था या नहीं?” सभी सहमे हुए थे। स्त्रियाँ, लड़कियाँ सब आँगन में इकट्ठी हो गई थीं। दबे-दबे स्वर में नौकरों के चोरी लगने के उदाहरण बता रही थीं। अब मालकिन भी घबरा गईं थीं। देवरानी ने उनके समीप आकर फिर कहा, “देखा नहीं भाभी, किलसिया क़समें तो बहुत खा रही थी पर चेहरा उतर गया है।”

“यहाँ आकर तो देखिए!” किलसिया ने बड़े साहब के कमरे से चिक उठाकर पुकारा।

“क्यों, क्या है?” मंटा और वीणा ने एक साथ पूछ लिया।

“हम कह रहे हैं, यहाँ तो आइए!” किलसिया ने कुछ झुँझलाहट दिखाई। वीणा और मंटा उधर चली गईं।

दोनों बहनें कमरे से बाहर निकलीं तो मुँह छिपाए दोहरी हुई जा रही थीं। हँसी रोकने के लिए दोनों ने मुँह पर आँचल दबा लिए थे।
किलसिया कमरे से निकली तो भवें चढ़ाकर ऊँचे स्वर में बोल उठीं, “रात साहब के तकिये के नीचे छोड़ आईं। घर भर में ढुँढ़ाई करा रही हैं।”
“पापा के तकिये के नीचे।” मंटा ने हँसी से बल खाते हुए कह ही दिया।

लीला, कुसुम, कैलाश, नीता सबके चेहरे लाज से लाल हो गए। सब मुँह छिपा कर फिस-फिस करती इधर से उधर भाग गईं।
मालकिन का चेहरा खिसियाहट से गंभीर हो गया। अवाक निश्चल रह गईं। वीणा से ज्ञान बाबू ने अर्थपूर्ण ढंग से खाँस कर कहा, “कड़ा मिलने की तो डबल मिठाई मिलनी चाहिए।”

छोटे बाबू से भी रहा नहीं गया, बोल उठे, “भाभी, क्या है?”

गोल कमरे से बड़े साहब की भी पुकार सुनाई दी, “मिल गया, मंटू कहाँ से मिला है?”

मंटू मुँह में आँचल ठूँसे थी, कैसे उत्तर देती?

छोटे साहब फिर बोले, “भाभी, भैया क्या पूछ रहे हैं?”

मालकिन खिसियाहट से बफरी हुई थीं, क्या बोलतीं?

लीला ने हँसी दबाकर भाभी के काम न में कहा, “देखा चालाक को, कहाँ जाकर रख दिया। तभी ढूँढ़ती फिर रही थी।”

ज़ेवर चोरी की बात पड़ोसी मिश्रा जी के यहाँ भी पहुँच गई थी। मिश्राइन जी ने आकर पूछ लिया, “मंटू की माँ, क्या बात है, क्या हुआ?”
“कुछ नहीं, कुछ नहीं।” मालकिन को बोलना पड़ा, “ख़ामख़्वाह शोर मचा दिया।”

कुसुम से रहा नहीं गया। अपने कमरे से झाँक कर बोली, “ताई जी, किलसिया ने अम्मा जी के साथ होली का मज़ाक किया है।”

7. समय

Yashpal ki kahaniya

पापा जी का रिटायर होने का समय ज्यों-ज्यों पास आ रहा था वे जैसे अपने आप को दिलासा देने कि कोशिश करने में लग गए चलो भाई हफ्ते में एक दिन कि छुट्टी का जिस बेसब्री से इंतजार रहता था वैसी छुट्टी अगर दफ्तर से हमेशा के लिए मिल जाये तो फिर इसमें निरुत्साह होने जैसी बात क्या है ? एक तो दूसरे के आदेश -पालन से छुट्टी और अध्ययन -अध्यापन का बढ़िया अवसर, अपने सगे-सम्बन्धियों और इष्ट-मित्र से मिलने का समाज में सभी से घुलने -मिलने का अवसर ही अवसर मसलन अवकाश प्राप्त करके अपनी सभी इच्छाओ कि पूर्ति करने का बढ़िया मौका मिल जाता है फिर लोग रिटायरमेंट से घबराते क्यों है ?
पापा जी नियम -कानून से रहने वाले व्यक्ति थे जिसका पालन वे अपने अवकाश प्राप्ति के बाद भी करते रहे वे रोज शाम को मम्मी जी के साथ बाजार तक घूमने के लिए जाते थे बचपन में जब मम्मी -पापा तैयार हो कर निकलते थे तो बच्चों को साथ ले कर जाने से बचने के लिए आया और नौकर से कह कर उन्हें इधर -उधर हटा दिया जाता था मगर एक दिन परिवार कि छोटी बच्ची मम्मी जी से आ कर लिपट गयी कि हम बच्चे भी बाजार जायेंगे तब से शाम को घूमने जाते समय किसी न किसी बच्चे को और कभी -कभी सभी बच्चो को हज़रतगंज तक घूमने जाने का मौका मिलने भी लगा और वहाँ पहुंच कर अपनी मनपसन्द आइसक्रीम -चाकलेट तथा अन्य वस्तुओ कि फरमाइश पूरी की जाने लगी।
रोचक मोड़ आता है कहानी में जबकि पापा जी के अवकाश प्राप्ति के बाद उनका घूमने जाने की आदत में बदलाव तो नही आया मगर मम्मी जी के पांव में दर्द के चलते वे अब पापा जी का साथ नहीं दे पाती है और पापा जी चूँकि अकेले जाना नहीं चाहते इसलिए घर के किसी न किसी बच्चे को साथ ले कर जाना पड़ता है मगर अब समय बदल चुका है वे बच्चे जो पापा जी के साथ हर समय बाजार जाने को तैयार रहते थे अब साथ जाने से कतराने लगे क्योंकि एक उम्र विशेष अथवा टीन एज में एक अजीब कशमकश का दौर चलता है जिसमे बच्चो को बड़े -बुजुर्गो का साथ अटपटा लगने लगता है फिर ऐसे में यदि पार्क, रेस्तरां और होटल में संगी-साथी दिख जाते हैं तो उनका करुणा और बेचारगी भरी मुस्कान को झेलना काफी कठिन हो जाता है इसका यह अर्थ कदापि नहीं की पापा जी अन्य बुजुर्गो के समान कोई उपदेश या जमाने में खामियां निकालने जैसी बोरिंग बाते करते थे बल्कि उनका अनुभव और ज्ञान का दायरा अत्यंत व्यापक था जो युवाओ को भाता ही है मगर उससे क्या बीस-बाईस वर्ष के लड़के-लडकियों को निजी आजादी भी चाहिए होती है।
मगर उस दिन रोज की तरह शाम होते-होते पिताजी की आवाज आने लगी "गंज तक चलने के लिए कोई है ! "
मगर हर कोई जैसे उनकी आवाज को अनसुना कर रहा था वो छोटी बच्ची जो कभी बचपन में मम्मी के साथ लिपट कर घूमने जाने की जिद करती थी उससे कहने पर दीदी को उसने जवाब दिया -"तुम भी क्या दीदी..बोर बुड्ढों के साथ कौन बोर हो !"
उस बड़ी हो चुकी बच्ची ने आवाज दबा कर ही बात कही थी मगर वह धीमी आवाज पापा के कानों तक पहुच चुकी थी
पापा कुछ देर के लिए चुपचाप बैठे ही रहे नजर फर्श पर जमा कर चेहरे पर एक विषाद भरी मुस्कान के साथ मगर फिर उठे हैंगर से कोट उतारा और मम्मी को आवाज दे कर कहा "सुनो, कई बार पहाड़ से छड़ियाँ लाए है, तो कोई एक तो दो !"
एक छड़ी उठा कर मैंने कमरे में रख ली थी । पापा को उत्तर दिया , "एक तो यही है चाहिए ?" छड़ी कोने से उठा कर पापा के सामने कर दी । "हाँ ,यह तो बहुत अच्छी है !" पापा ने छड़ी की मूठ पर हाथ फेरते हुए कहा और छड़ी टेकते हुए किसी की ओर देखे बिना घूमने के लिए चले गए, मानो हाथ की छड़ी को टेक कर उन्होंने समय को स्वीकार कर लिया ।



8. सच बोलने की भूल

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शरद के आरम्भ में दफ्तर से दो मास की छुट्टी ले ली थी। स्वास्थ्य सुधार के लिए पहाड़ी प्रदेश में चला गया था। पत्नी और बेटी भी साथ थीं। बेटी की आयु तब सात वर्ष की थी। उस प्रदेश में बहुत छोटे-छोटे पड़ाव हैं। एक खच्चर किराये पर ले लिया था। असबाब खच्चर पर लाद लेते थे और तीनों हँसते-बोलते, पड़ाव-पड़ाव पैदल यात्रा कर रहे थे। रात पड़ाव की किसी दूकान पर या डाक-बँगले में बिता देते थे। कोई स्थान अधिक सुहावना लग जाता तो वहाँ दो रात ठहर जाते।
एक पड़ाव पर हम लोग डाक बंगले में ठहरे हुए थे। वह बंगला छोटी-सी पहाड़ी के पूर्वी आँचल में है। बँगले के चौकीदार ने बताया—साहब लोग आते हैं तो चोटी से सूर्यास्त का दृश्य जरूर देखते हैं। चौकीदार ने बता दिया कि बँगले के बिलकुल सामने से ही जंगलाती सड़क पहाड़ी तक जाती है।
पत्नी सुबह आठ मील पैदल चल चुकी थी। उसे संध्या फिर पैदल तीन मील चढ़ाई पर जाने और लौटने का उत्साह अनुभव न हुआ परन्तु बेटी साथ चलने के लिए मचल गई।
चौकादीर ने आश्वासन दिया—लगभग डेढ़ मील सीधी सड़क है और फिर पहाड़ी पर अच्छी साफ पगडंडी है। जंगली जानवर इधर नहीं हैं। सूर्यास्त के बाद कभी-कभी छोटी जाति के भेड़िये जंगल से निकल आते हैं। भेड़िये भेड़-बकरी के मेमने या मुर्गियाँ उठा ले जाते हैं, आदमियों के समीप नहीं आते।
मैं बेटी को साथ लेकर सूर्यास्त से तीन घंटे पूर्व ही चोटी का ओर चल पड़ा। सावधानी के लिए टार्च साथ ले ली। पहाड़ी तक डेढ़ मील रास्ता बहुत सीधी-साफ था। चढ़ाई भी अधिक नहीं थी। पगडंडी से चोटी तक चढ़ने में भी कुछ कठिनाई नहीं हुई।
पहाड़ की चोटी पर पहुँच कर पश्चिम की ओर बर्फानी पहाड़ों को श्रृंखलाएं फैली हुई दिखाई दीं। क्षितिज पर उतरता सूर्य बरफ से ढँकी पहाड़ी की रीढ़ को छूने लगा तो ऊँची-नीची, आगे–पीछे खड़ी हिमाच्छादित पर्वत-श्रृंखलाएं अनेक इन्द्रधनुषों के समान झलमलाने लगीं। हिम के स्फटिक कणों की चादरों पर रंगों के खिलवाड़ से मन उमग-उमग उठता था। बच्ची उल्लास से किलक-किलक उठती थी।
सूर्यास्त के दृश्य का सम्मोहन बहुत प्रबल था परन्तु ध्यान भी था—रास्ता दिखाई देने योग्य प्रकाश में ही डाक बँगले को जाती जंगलाती सड़क पर पहुँच जाना उचित है। अँधेरे में असुविधा हो सकती है।
सूर्य आग की बड़ी थाली के समान लग रहा था। वह थाली बरफ की शूली पर, अपने किनारे पर खड़ी वेग से घूम रही थी। आग की थाली का शनैः-शनैः बरफ के कंगूरों की ओट में सरकते जाना बहुत ही मनोहारी लग रहा था। हिम के असम विस्तार पर प्रतिक्षण रंग बदल रहे थे। बच्ची उस दृश्य को विश्मय से मुँह खोले देख रही थी। दुलार से समझाने पर भी वह पूरे सूर्य के पहाड़ी की ओट में हो जाने से पहले लौटने के लिए तैयार नहीं हुई।
सहसा सूर्यास्त होते ही चोटी पर बरफ की श्यामल नीलिमा फैल गयी। पहाड़ी की चोटी पर अब भी प्रकाश था पर हम ज्यों-ज्यों पूर्व की ओर नीचे उतर रहे थे, अँधेरा घना होता जा रहा था। आप को भी अनुभव होगा कि पहाड़ों में सूर्यास्त का झुटपुट उजाला बहुत देर तक नहीं बना रहता। सूर्य पहाड़ की ओट में होते ही उपत्यका में सहसा अँधेरा हो जाता है।
मैं पगडंडी पर बच्ची को आगे किये पहाड़ी से उतर रहा था। अब धुँधलका हो जाने के कारण स्थान-स्थान पर कई पगडंडियाँ निकलती फटती जान पड़ती थीं। हम स्मृति के अनुभव से अपनी पगडंडी पहचानकर नीचे जिस रास्ते पर उतरे, वह डाक बँगले की पहचानी हुई जंगलाती सड़क नहीं जान पड़ी। अँधेरा हो गया था। रास्ता खोजने के लिए चोटी की ओर चढ़ते तो अँधेरा अधिक घना हो जाने और अधिक भटक जाने की आशंका थी। हम अनुमान से पूर्व की ओर जाती पगडंडी पर चल पड़े।
जंगल में घुप्प अँधेरा था। टार्च से प्रकाश का जो गोला सा पगडंडी पर बनता था, उससे कटीले झाड़ों और ठोकर से बचने के लिए तो सहायता मिल सकती थी परन्तु मार्ग नहीं ढूँढ़ा जा सकता था। चौकीदार ने अँचल में आस-पास काफी बस्ती होने का आश्वासन दिया। सोचा—समीप ही कोई बस्ती या झोंपड़ी मिल जायेगी, रास्ता पूँछ लेंगे।
हम टार्च के प्रकाश में झाड़ियों से बचते पगडंडी पर चले जा रहे थे। बीस-पचीस मिनट चलने के बाद एक हमारा रास्ता काटती हुई एक अधिक चौड़ी पगडंडी दिखाई दे गयी। सामने एक के बजाय तीन मार्ग देखकर दुविधा और घबराहट हुई, ठीक मार्ग कौन सा होगा ? अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने की अपेक्षा भटकाव का ही अवसर अधिक हो गया था। घना अँधेरा, जंगल में रास्ता जान सकने का कोई उपाय नहीं था। आकाश में तारे उजले हो गये थे परन्तु मुझे तारों की स्थिति में दिशा पहचान सकने की समझ नहीं है। पूर्व दिशा दायीं ओर होने का अनुमान था इसलिए चौड़ी पगडंडी पर दायीं ओर चल दिये। आधे घंटे चलने पर एक और पगडंडी रास्ता काटती दिखाई दी समझ लिया, हम बहुत भटक गये हैं। मैंने सीधे सामने चलते जाना ही उचित समझा।

जंगल में अँधेरा बहुत घना था। उत्तरी वायु चल पड़ने से सर्दी भी काफी हो गई थी। अपनी घबराहट बच्ची से छिपाये था। बच्ची भयभीत न हो जाये, इसलिए उसे बहलाने के लिए और उसे रुकावट का अनुभव न होने देने के लिए कहानी सुनाने लगा परन्तु बहलाव थकावट को कितनी देर भुलाये रखता ! बच्ची बहुत थक गई थी। वह चल नहीं पा रही थी। कुछ समय उसे शीघ्र ही बंगले जाने का आश्वासन देकर उत्साहित किया और फिर उसे पीठ पर उठा लिया। वह मेरे कंधे के ऊपर से मेरे सामने टार्च का प्रकाश डालती जा रही थी। मैं बच्ची के बोझ और थकावट से हाँफता हुआ अज्ञात मार्ग पर, अज्ञात दिशा में चलता जा रहा था। मेरी पीठ पर बैठी बच्ची सर्दी से सिहर-सिहर उठती थी और मैं हाँफ-हाँफ कर पसीना-पसीना हो गया था। कुछ-कुछ समय बाद मैं दम लेने के लिए बच्ची को पगडंडी पर खड़ा करके घड़ी देख लेता था। अधिक रात न हो जाने के आश्वासन से कुछ साहस मिलता था।

हम अजाने जंगल के घने अंधेरे में ढाई घंटे तक चल चुके थे। मेरी घड़ी में साढ़े नौ बज गये तो मेरा मन बहुत घबराने लगा। बच्ची को कहानी सुना कर बहलाना सम्भव न रहा। वह जंगल में भटक जाने के भय से माँ को याद कर ठुसक-ठुसक कर रोने लगी। बँगले में अकेली, घबराती पत्नी के विचार ने और भी व्याकुल कर दिया। मेरी टाँगें थकावट से काँप रही थीं। सर्दी बहुत बढ़ गई थी। जंगल में वृक्ष के नीचे रात काट लेना भी सम्भव नहीं था। छोटे भेड़िये भी याद आ गये। वहाँ के लोग उन भेड़ियों से नहीं डरते थे पर छोटी बच्ची साथ होने पर भेड़िये से भेंट की आशंका से मेरा रक्त जमा जा रहा था।
हम जंगल से निकल कर खेतों में पहुँचे तो दस बज चुके थे। कुछ खेत पार कर चुके तो तारों के प्रकाश में कुछ दूरी पर झोपड़ी का आभास, मिला। झोपड़ी में प्रकाश नहीं था। बच्ची को पीठ पर उठाए फसल भरे खेतों में से झोपड़ी की ओर से बढ़ने लगा। झोपड़ी के कुत्ते ने हमारे उस ओर बढ़ने का एतराज किया। कुत्ते की क्रोध भरी ललकार से सांत्वना ही मिली। विश्वास हो गया, झोपड़ी सूनी नहीं थी।
पहाड़ों में वर्षा की अधिकता के कारण छतें ढालू बनाई जाती हैं। गरीब किसान ढालू छत के भीतर स्थान का उपयोग कर सकने के लिये अपनी झोपडिंयों को दो तल्ला कर लेते हैं। मिट्टी की दीवारें, फूस की छत और चारों ओर कांटों की ऊँची बाढ़। किसान लोग नीचे के तल्ले में अपने पशु बाँध लेते हैं और ऊपर के तल्ले में उनकी गृहस्थी रहती है।
मैं झोंपड़ी की बाढ़ के मोहरे पर पहुँचा तो कुत्ता मालिक को चेताने के लिये बहुत जोर से भौंका। झोंपड़ी का दरवाजा और खिड़की बन्द थे। मेरे कई बार पुकारने और कुत्ते के बहुत उत्तेजना से भौंकने पर झोंपड़ी के ऊपर के भाग में छोटी-सी खिड़की खुली झुँझलाहट की ललकार सुनाई दी, ‘‘कौन है इतनी रात गये कौन आया है ?’’
झोंपड़ी के भीतर अँधेरे में से आती ललकार को उत्तर दिया—‘‘मुसाफिर हूँ, रास्ता भटक गया हूँ। छोटी बच्ची साथ है। पड़ाव के डाँक बंगले पर जाना चाहता हूँ।’’
खिड़की से एक किसान ने सिर बाहर निकाला और क्रोध से फटकार दिया, ‘‘तुम शहरी हो न ! तुम आवारा लोगों को देहात में क्या काम ? चोरी-चकारी करने आये हो। भाग जाओ नहीं तो काट कर दो टुकड़े कर देंगे और कुत्ते को खिला देंगे।’’
किसान को अपनी और बच्ची की दयनीय अवस्था दिखलाने के लिये अपने ऊपर टार्च का प्रकाश डाला और विनती की—‘‘बाल-बच्चेदार गृहस्थ हूँ। चोटी का सूर्यास्त देखने गये थे, भटक गये। पड़ाव के बँगले में बच्चे की माँ हमारी प्रतीक्षा कर रही है, बंगले का चौकीदार बता देगा। पड़ाव के डाक-बंगले पर जाना चाहता हूँ। रास्ता दिखाकर पहुँचा दो तो बहुत कृपा हो। तुम्हें कष्ट तो होगा, यथाशक्ति मूल्य चुका दूँगा।”
किसान और भी क्रोध से झल्लाया--“पड़ाव और डाक-बंगला तो यहाँ से सात मील है। कौन तुम्हारे बाप का नौकर है जो इस अँधेरे में रास्ता दिखाने जायेगा। भाग जाओ यहाँ से, नहीं तो कुत्ते को अभी छोड़ता हूँ।'”
क्रूद्ध किसान मुझे झोपड़ी की खिड़की से भाग जाने के लिये ललकार रहा था तो झोपड़ी के ऊपर के भाग में दिया जल जाने से प्रकाश हो गया था और वह दिया खिड़की की ओर बढ़ आया था। दिये के प्रकाश में किसान की छोटी घुँघराली दाढ़ी और लम्बी-लम्बी सामने झुकी हुई मूँछों से ढका चेहरा बहुत भयानक और खूँखार लग रहा था। खिड़की की ओर दिया लाने वाली स्त्री थी।
किसान की बात सुन कर मेरे प्राण सूख गये। समझा कि अँधेरे में बहुत भटक गया हूँ। उस अँधेरे, सर्दी और थकान में बच्ची को उठा कर सात मील चल सकना मेरे लिये सम्भव नहीं था। बच्ची के कष्ट के विचार से और भी अधीर हो गया।
बहुत गिड़गिड़ा कर किसान से प्रार्थना की--“भाई, दया करो! मैं अकेला होता तो जैसे-तैसे जाड़े और ओस में भी रात काट लेता परन्तु इस बच्ची का क्‍या होगा ? हम पर दया करो। हमें कहीं भीतर बैठ जाने भर की ही जगह दे दो। उजाला होते ही हम चले जायेंगे।”
खिड़की के भीतर किसान के समीप आ बैठी औरत का चौड़ा चेहरा भी किसान की तरह ही बहुत रूख़ा और कठोर था परन्तु उसकी बात से आश्वासन मिला। स्त्री बोली--“अच्छा, अच्छा! उसके साथ बच्ची है। इस समय पड़ाव तक कैसे जायेगा ? आने दो, कुछ हो ही जायेगा।”
किसान स्त्री पर झुँझलाया--''क्या हो जायेगा, कहाँ टिका लेगी इन्हें ? शहर के लोग हैं, इनकी मेहमानदारी हमारे बस की नहीं !'”
स्त्री ने उत्तर दिया--“अच्छा-अच्छा, नीचे जाकर कुत्ते को पकड़ो, उन्हें आने तो दो! "
किसान ने नीचे आकर झोपड़ी का दरवाजा खोला। कुत्ते को डाँट कर चुप करा दिया और हमारे लिये बाड़े का मोहरा खोल दिया। स्त्री भी हाथ में दिया लिये नीचे आ गई थी। किसान और कुत्ता स्त्री के विरोध में असन्तोष से गुर्राते जा रहे थे। किसान बोलता जा रहा था-- “बड़े शौकीन नवाब हैं शैर करने वाले। चले आये आधी रात में रास्ता भूल कर। कहाँ टिका लेगी तू इनको?”
स्त्री ने पति को समझाया--''बेचारे भटक कर 'परेशानी में आ गये हैं तो कुछ करना ही होगा। आने दो, यह लोग ऊपर लेटे रहेंगे। हम लोग यहाँ नीचे फूस डाल कर गुजारा कर लेंगे।”
किसान बड़बड़ाया--“हम नीचे कहाँ पड़े रहेंगे? गैया को बाहर निकाल देगी कि मुर्गी को बाहर फेंक देगी ?”
झोपड़ी के दरवाजे में कदम रखते समय मैंने टार्च से उजाला कर लिया कि ठोकर न लगे। कोठरी के भीतर दीवार के साथ एक गैया जुगाली कर रही थी। टार्च का प्रकाश आँखों पर पड़ा तो गैया ने सिर हिला दिया और अपने विश्राम में विध्न के विरोध में फुंकार दिया। दूसरी दीवार के समीप उल्टी रखी ऊँची टोकरी के नीचे से भी विरोध में मुर्गी की कुड़कुड़ाहट सुनाई दी। स्त्री ने हाथ में लिये दिये से दीवार के साथ बने जीने पर प्रकाश डाल कर कहा--“हम गरीबों का घर ऐसे ही होते हैं। बच्ची को हाथ पकड़ कर ऊपर ले आओ। मैं रोशनी ले चलती हूँ।”
किसान असन्तोष से बड़बड़ाता रहा। झोपड़ी के ऊपर के तल्ले में छत बहुत नीची थी। दोनो ओर ढलती छत बीच में धन्‍नी पर उठी थी। धन्नी के ठीक नीचे भी गर्दन सीधी करके खड़े होना सम्भव नहीं था। नीची और संकरी खाट पर गंदे गूदड़ सा बिस्तर था। स्त्री ने बिस्तर की ओर संकेत किया--“तुम यहाँ पर लेट रहो। हम नीचे गुजारा कर लेंगे।”
स्त्री ने कोने में रखे कनस्तरों और सूखी हाँडियों में टटोल कर गुड़ का एक टुकड़ा मेरी ओर बढ़ा कर कहा--“बच्ची को खिला कर पानी पिला दो!” उसने कोने में रखे घड़े से लेकर एक लोटा जल खाट के समीप रख दिया।
स्त्री दिया उठा कर जीने की ओर बढ़ती हुई बोली--''क्या करूँ, इस समय घर में आटा भी नहीं है। साँझ को ही चुक गया। सुबह ही पनचक्की पर जाना होगा।''
स्त्री जीने की ओर बढ़ती हुई ठिठक गई। विस्मय से भंवें उठा कर बोली--“हैं! इतनी सी लड़की के गले में मोतियों की कंठी!” उसका स्वर कुछ भीग गया, “हम कुछ करें भी किसके लिये? लड़का-लड़की घर पर थे तब कुछ हौसला रहता था। लड़की सियानी होकर अपने घर चली गई। लड़के को शहर का चस्का लगा है। दो बरस से उसका कुछ पता नहीं। जहाँ हो...हे देवी माता, लोग उसको भी शरण दें।”
स्त्री नीचे उतर गई। तब भी असन्तुष्ट किसान के बड़बड़ाने की और कुछ उठाने-धरने की आहट आती रही।
बच्ची थोड़ा गुड़ खाकर और जल पीकर तुरन्त सो गई। मुझे गंधाते, गन्दे बिस्तर से उबकाई अनुभव हो रही थी। अपनी असुविधा की चिन्ता से अधिक चिन्ता थी--डाक-बंगले में हमारी प्रतीक्षा में असहाय पत्नी की। हम दोनों के न लौट सकने के कारण वह कैसे बिलख रही होगी। कहीं यही न सोच बैठी हो कि हम भेड़िया या आतताइयों के हाथ पड़ गये हैं। हमें खोजने के लिए डाक-बंगले के चपरासी को लेकर चोटी की ओर न चल पड़ी हो...।
मस्तिष्क में चिन्ता की वेदना और पीठ थकान से इतनी अकड़ी हुई थी कि करवट लेने में दर्द अनुभव होता था। झपकी आती तो पीठ के दर्द और बिस्तर की असुविधा के कारण टूट जाती। करवटें बदलते सोच रहा था--रास्ता दिखाई देने योग्य उजाला हो जाये तो उठकर चल दें।
खिड़की की साँधों से पौ फटती सी जान पड़ी। सोचा--जरा उजाला और हो जाये। नीचे सोये लोगों की नींद में विघ्न न डालने का भी ध्यान था। एक झपकी और ले लेना चाहता था कि नीचे से दबी-दबी फुसफुसाहट सुनाई दी।
मर्द कह रहा था--“बहुत थके हुए हैं। सूरज बाँस भर चढ़ जायेगा तो भी उनकी नींद नहीं टूटेगी।”
स्त्री साँस के स्वर में बोली--“तुम्हें उन्हें जगा के क्‍या लेना है?... नहीं उठते तो मैं जाऊँ?”
“अच्छा जाता हूँ!"
“आह! संभल कर"। आहट न करो।“ गर्दन ऐसे दबा लेना कि आवाज न निकले।”चीख न पड़े। छुरा ताक में है।”
स्त्री-पुरुष का परामर्श सुन कर मेरे रोम-रोम से पसीना छूट गया-- हत्यारों से शरण माँग कर उनके पिंजड़े में बन्द हो गया था। सोचा-- पुकार कर कह दूँ...मेरे पास जो कुछ है ले लो, लड़की के गले की कंठी ले लो और हमारी जान बक्शो।
फिर मर्द की आवाज सुनाई दी--“बेचारी को रहने दूँ, मन नहीं करता !"
स्त्री बोली--"उँह, मन न करने की क्‍या बात है! उसे रहने देकर क्या होगा! कहाँ बचाते-छिपाते फिरोगे ?"
मैंने आतंक से नींद में बेसुध बच्ची को बाँहों में ले लिया। भय की उत्तेजना से मेरा हृदय धक-धक कर रहा था। सोचा, उन्हें स्वयं ही पुकार कर, गिड़गिड़ा कर प्राण-रक्षा के लिये प्रार्थना करूँ परन्तु गले ने साथ न दिया। यह भी ख्याल आया कि यदि वे जान लेंगे कि मैंने उनकी बात सुन ली है तो कभी छोड़ेंगे ही नहीं। अभी तो वे बात ही कर रहे हैं। भगवान उनके हृदय में दया दें। सोचा...यदि किसान के ऊपर आते ही मैं उसे धक्के से नीचे गिरा कर चीख पड़ूँ!...पर जाने आस-पास मील दो मील तक कोई दूसरे लोग भी हैं या नहीं !
सहसा दबे हुए गले से मुर्गी के कुड़कुड़ाने की आवाज आई। स्त्री का उपालम्भ भरा स्वर सुनाई दिया--“देखो, कहा भी था कि संभल कर गर्दन पर हाथ डालना ।"
ओह! यह तो मुर्गी के काटे जाने की मंत्रणा थी। अपने भय के लिये लज्जा से पानी-पानी हो गया।
स्त्री का स्वर फिर सुनाई दिया--"मुर्गी के लिये इतना क्‍यों बिगड़ रहे हो? शहर के बड़े लोगों की बड़ी बातें होती हैं। खातिर से खुश हो जायें तो बख्शीश में जो चाहें दे जायँ। मामूली आदमी नहीं हैं। लड़की के गले में मोतियों की कंठी नहीं देखी ?"

दूसरी चिन्ता और लज्जा ने मस्तिष्क को दबा लिया। उस समय मेरी जेब में केवल ढाई रुपये थे। बंगले से सूर्यास्त का दृश्य देखने आया था, बाजार में खरीददारी करने के लिये नहीं। लड़की के गले में कंठी नकली मोतियों की, रुपये सवा की थी। दिये के उजाले में वे देहाती कंठी को क्या परख सकते थे? बहुत दुविधा में सोच रहा था--इन लोगों को क्या उत्तर दूँगा। कुछ बताये बिना चुपचाप ही कंठी दे जाऊँ। बाद में चालीस-पचास रुपये मनीआर्डर से भेज दूँगा।

खिड़की की साँधों से काफी सवेरा हो गया जान पड़ा। सोच ही रहा था, लड़की को जगा कर नीचे ले चलूँ कि जीने पर कदमों की चाप सुनाई दी और किसान का चेहरा ऊपर उठता दिखाई दिया।

किसान का चेहरा रात की भाँति निर्दय और डरावना न लगा। वह मुस्कराया--''नींद खुल गई! मैं तो जगाने के लिये आ रहा था। धूप हो जाने पर बच्ची को इतनी दूर ले जाने में परेशानी होगी।” किसान ने पुराने अखबार में लिपटी एक बड़ी सी पुड़िया मेरी ओर बढ़ा दी और बोला, “यह लो, यह तुम्हारे ही भाग्य के थे। घर में आटा नहीं था जो दो रोटी बना देते इसीलिये तो मैं तुम्हें रात में हाँके दे रहा था पर घरवाली को बच्ची पर तरस आ गया। खेती के लिये जमीन ही कितनी है। अंडे बेच कर ही गुजारा करते हैं। बरसात के अन्त में पापी पड़ोसी लोगों की मुर्गियों में बीमारी फैली तो हमारी मुर्गियाँ भी मर गयीं। मुर्गियाँ बचाने के लिये सभी कुछ किया। पीर की दरगाह पर दिये जलाये। मुर्गियों को ढेरों लहसुन खिलाया, सरकारी अस्पताल से दवाई भी लाकर दी पर उसका काल आ गया था, बची नहीं। हाँ यह मुर्गा बड़े जीवट का था। बीमारी झेल कर भी बच गया था। उसके लिये तुम आ गये। एक छोटी सी मुर्गी काल की आँख से बच कर छिप रही थी, वह बच्ची के लिये हो जायेगी। इस समय तुम्हारा काम चले, हमारा देखा जायेगा!"

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किसान ने पुड़िया मेरे हाथ में दे दी और बोला--“रात के भूखे हो, चाहो तो नीचे चल कर कुल्ला करके मुँह-हाथ धो लो और अभी खा लो मन चाहे तो रास्ते में खा लेना।”
बच्ची को उठाया। उसने उठते ही भूख से व्याकुलता प्रकट की। दोनो ने अखबार की पुड़िया खोल कर नाश्ता कर लिया।
पेट भर नाश्ता करके मैं संकोच से मरा जा रहा था। किसान और उसकी स्त्री ने बहुत आशा से हमारी खातिर की थी। अपने अन्तिम मुर्गा, चूजा भी हमारे लिये काट दिये थे। मैंने संकोच से कहा--“इस समय मेरी जेब में कुछ है नहीं, केवल ढाई रुपये हैं। अपना नाम पता दे दो, मनीआर्डर से रुपये भेज दूँगा।” मैंने बच्ची के गले से कंठी उतार कर स्त्री की ओर बढ़ा दी, “चाहे तो यह रख लो!”
स्त्री कंठी हाथ में लेकर प्रसन्नता से किलक उठी--“हाय, इसे तो मैं मठ में चढ़ा कर मानता मानूँगी। हमारी मुर्गियों पर देवताओं की कोप दृष्टि कभी न हो।”
स्त्री की सरलता मेरे मन को छू गई, रह न सका। कह दिया-- “तुम्हें धोखा नहीं देना चाहता, कंठी के मोती नकली हैं।''
स्त्री ने कंठी मेरी ओर फेंक दी। घृणा और झुँझलाहट से उँगलियाँ छिटका कर बोली--“रखो, इसे तुम्हीं रखो। शहर के लोगों से धोखे के सिवा और मिलेगा क्या?”
किसान ठगे जाने से क्रुद्ध हो गया था, वह डाक-बंगले का रास्ता बताने के लिये साथ न चला। दिन का उजाला था। हम राह पूँछ-पूँछ कर बंगले पर पहुँच गये।
पत्नी डाक-बंगले के सामने अस्त-व्यस्त और विक्षिप्त की तरह धरती पर बैठी हुई दिखाई दी। उसका चेहरा ओस से भीगे सूखे पत्ते की तरह आँसुओं से तर और पीला था। आँखें गुड़हल के फूल की तरह लाल थीं। वह बच्ची को कलेजे पर दबा कर चीखकर रोई और फिर मुझसे चिपट-चिपट कर रोती रही।
पत्नी के सँभल जाने पर मैंने उसे रात के अनुभव सुना दिये। रात मेरे और बच्ची के असहाय अवस्था में गला काट दिये जाने के काल्पनिक भय में पसीना-पसीना होकर काँपने की बात सुनकर उसने भी भय प्रकट किया--हाय मैं मर गयी।
पत्नी को बच्ची की कंठी के लिये किसान स्त्री के लोभ और कंठी के विषय में सचाई जान कर उनके खिन्न हो जाने की बात भी बता दी।
पत्नी ने मुझे उलाहना दिया--“उन देहातियों को कंठी के बारे में बता खिन्न करने की क्या जरूरत थी? कंठी मठ में चढ़ा कर उनकी भावना सन्तुष्ट हो जाती ।”
सोचा, किस भूल के लिये अधिक लज्जा अनुभव करूँ--काल्पनिक भय में पसीना-पसीना हो जाने की भूल के लिये या सच बोल देने की भूल के लिये!



9.मक्रील

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गर्मी का मौसम था। मक्रील की सुहावनी पहाड़ी। आबोहवा में छुट्टी के दिन बिताने के लिए आई सम्पूर्ण भद्र जनता खिंचकर मोटरों के अड्डे पर, जहाँ पंजाब से आनेवाली सड़क की गाड़ियाँ ठहरती हैं - एकत्र हो रही थी। सूर्य पश्चिम की ओर देवदारों से छाई पहाड़ी की चोटी के पीछे सरक गया था। सूर्य का अवशिष्ट प्रकाश चोटी पर उगे देवदारों से ढकी आक की दीवार के समान जान पड़ता था।

ऊपर आकाश में मोर-पूँछ के आकार में दूर-दूर तक सिंदूर फैल रहा था। उस गहरे अर्गवनी रंग के पर्दे पर ऊँची, काली चोटियाँ निश्चल, शांत और गंभीर खड़ी थीं। संध्या के झीने अँधेरे में पहाड़ियों के पार्श्व के वनों से पक्षियों का कलरव तुमुल परिमाण में उठ रहा था। वायु में चीड़ की तीखी गंध भर रही थी। सभी ओर उत्साह-उमंग और चहल-पहल थी। भद्र महिलाओं और पुरुषों के समूह राष्ट्र के मुकुट को उज्ज्वल करने वाले कवि के सम्मान के लिए उतावले हो रहे थे।

यूरोप और अमरीका ने जिसकी प्रतिभा का लोहा मान लिया, जो देश के इतने अभिमान की संपत्ति है, वही कवि मक्रील में कुछ दिन स्वास्थ्य सुधारने के लिए आ रहा है। मक्रील में जमी राष्ट्र-अभिमानी जनता पलकों के पाँवड़े डाल, उसकी अगवानी के लिए आतुर हो रही थी।

पहाड़ियों की छाती पर खिंची धूसर लकीर-सी सड़क पर दूर धूल का एक बादल-सा दिखलाई दिया। जनता की उत्सुक नजरें और उँगलियाँ उस ओर उठ गईं। क्षण भर में धूल के बादल को फाड़ती हुई काले रंग की एक गतिमान वस्तु दिखाई दी। वह एक मोटर थी। आनंद की हिलोर से जनता का समूह़ लहरा उठा। देखते-ही-देखते मोटर आ पहुँची।

जनता की उन्मत्तता के कारण मोटर को दस कदम पीछे ही रुक जाना पड़ा - 'देश के सिरताज की जय!', 'सरस्वती के वरद पुत्र की जय!' 'राष्ट्र के मुकुट-मणि की जय!' के नारों से पहाड़ियाँ गूँज उठीं।

मोटर फूलों से भर गई। बड़ी चहल-पहल के बाद जनता से घिरा हुआ, गजरों के बोझ से गर्दन झुकाए, शनै: शनैः कदम रखता हुआ मक्रील का अतिथि मोटर के अड्डे से चला।

उत्साह से बावली जनता विजयनाद करती हुई आगे-पीछे चल रही थी। जिन्होंने कवि का चेहरा देख पाया वे भाग्यशाली विरले ही थे। 'धवलगिरि' होटल में दूसरी मंजिल पर कवि को टिकाने की व्यवस्था की गई थी। वहाँ उसे पहुँचा, बहुत देर तक उसके आराम में व्याघात कर, जनता अपने स्थान को लौट आई।

क्वार की त्रयोदशी का चंद्रमा पार्वत्य प्रदेश के निर्मल आकाश में ऊँचा उठ, अपनी शीतल आभा से आकाश और पृथ्वी को स्तंभित किए था। उस दूध की बौछार से 'धवलगिरि' की हिमधवल दोमंजिली इमारत चाँदी की दीवार-सी चमक रही थी। होटल के आँगन की फुलवारी में खूब चाँदनी थी, परंतु उत्तर-पूर्व के भाग में इमारत के बाजू की छाया पड़ने से अँधेरा था। बिजली के प्रकाश से चमकती खिड़कियों के शीशों और पर्दों के पीछे से आनेवाली मर्मरध्वनि तथा नौकरों के चलने-फिरने की आवाज के अतिरिक्त सब शांत था।

उस समय इस अँधेरे बाजू के नीचे के कमरे में रहनेवाली एक युवती फुलवारी के अंधकारमय भाग में एक सरो के पेड़ के समीप खड़ी दूसरी मंजिल की पुष्प-तोरणों से सजी उन उज्ज्वल खिड़कियों की ओर दृष्टि लगाए थी, जिनमें सम्मानित कवि को ठहराया गया था।

वह युवती भी उस आवेगमय स्वागत में सम्मिलित थी। पुलकित हो उसने भी कवि पर फूल फेंके थे। जयनाद भी किया था। उस घमासान भीड़ में समीप पहुँच, एक आँख कवि को देख लेने का अवसर उसे न मिला था। इसी साध को मन में लिए उस खिड़की की ओर टकटकी लगाए खड़ी थी। काँच पर कवि के शरीर की छाया उसे जब-तब दिखाई पड़ जाती।

स्फूर्तिप्रद भोजन के पश्चात कवि ने बरामदे में आ काले पहाड़ों के ऊपर चंद्रमा के मोहक प्रकाश को देखा। सामने सँकरी-धुँधली घाटी में बिजली की लपक की तरह फैली हुई मक्रील की धारा की ओर उसकी नजर गई। नदी के प्रवाह की घरघराहट को सुन, वह सिहर उठा। कितने ही क्षण मुँह उठाए वह मुग्ध-भाव से खड़ा रहा। मक्रील नदी के उद्दाम प्रवाह को उस उज्ज्वल चाँदनी में देखने की इच्छा से कवि की आत्मा व्याकुल हो उठी। आवेश और उन्मेष का वह पुतला सौंदर्य के इस आह्वान की उपेक्षा न कर सका।

सरो वृक्ष के समीप खड़ी युवती पुलकित भाव से देश-कीर्ति के उस उज्ज्वल नक्षत्र को प्यासी आँखों से देख रही थी। चाँद के धुँधले प्रकाश में इतनी दूर से उसने जो भी देख पाया, उसी से संतोष की साँस ले, उसने श्रद्धा से सिर नवा दिया। इसे ही अपना सौभाग्य समझ वह चलने को थी कि लंबा ओवरकोट पहने छड़ी हाथ में लिए, दाईं ओर के जीने से कवि नीचे आता दिखाई पड़ा। पर भर में कवि फुलवारी में आ पहुँचा।

फुलवारी में पहुँचने पर कवि को स्मरण हुआ, ख्यातनामा मक्रील नदी का मार्ग तो वह जानता ही नहीं। इस अज्ञान की अनुभूति से कवि ने दाएँ-बाएँ सहायता की आशा से देखा। समीप खड़ी एक युवती को देख, भद्रता से टोपी छूते हुए उसने पूछा, "आप भी इसी होटल में ठहरी हैं!"

सम्मान से सिर झुकाकर युवती ने उत्तर दिया - "जी हाँ!"

झिझकते हुए कवि ने पूछा - "मक्रील नदी समीप ही किस ओर है, यह शायद आप जानती होंगी!"

उत्साह से कदम बढ़ाते हुए युवती बोली - "जी हाँ, यही सौ कदम पर पुल है।" और मार्ग दिखाने के लिए वह प्रस्तुत हो गई।

युवती के खुले मुख पर चंद्रमा का प्रकाश पड़ रहा था। पतली भँवों के नीचे बड़ी-बड़ी आँखों में मक्रील की उज्ज्वलता झलक रही थी।

कवि ने संकोच से कहा - "न... न आपको व्यर्थ कष्ट होगा।"

गौरव से युवती बोली - "कुछ भी नहीं - यही तो है, सामने!"

उजली चाँदनी रात में... संगमरमर की सुघड़, सुंदर, सजीव मूर्ति-सी युवती.....साहसमयी विश्वासमयी मार्ग दिखाने चली... सुंदरता के याचक कवि को। कवि की कविता वीणा के सूक्ष्म तार स्पंदित हो उठे... सुंदरता स्वयं अपना परिचय देने चली है... सृष्टि सौंदर्य के सरोवर की लहर उसे दूसरी लहर में मिलाने ले जा रही है - कवि ने सोचा!

सौ कदम पर मक्रील का पुल था। दो पहाड़ियों के तंग दर्रे में से उद्दाम वेग और घनघोर शब्द से बहते हुए जल से ऊपर तारों के रस्सों में झूलता हल्का-सा पुल लटक रहा था। वे दोनों पुल के ऊपर जा खड़े हुए। नीचे तीव्र वेग से लाखों-करोड़ों पिघले हुए चाँद बहते चले जा रहे थे, पार्श्व की चट्टानों से टकरा कर वे फेनिल हो उठते। फेनराशि से दृष्टि न हटा, कवि ने कहा - "सौंदर्य उन्मत हो उठा है।" युवती को जान पड़ा, मानो प्रकृति मुखरित हो उठी है।

कुछ क्षण पश्चात कवि बोला - "आवेग में ही सौंदर्य का चरम विकास है। आवेग निकल जाने पर केवल कीचड़ रह जाता है।

युवती तन्मयता से उन शब्दों को पी रही थी। कवि ने कहा - "अपने जन्म-स्थान पर मक्रील न इतनी वेगवती होगी, न इतनी उद्दाम। शिशु की लटपट चाल से वह चलती होगी, समुद्र में पहुँच वह प्रौढ़ता की शिथिल गंभीरता धारण कर लेगी।"

"अरी मक्रील! तेरा समय यही है। फूल न खिल जाने से पहले इतना सुंदर होता है और न तब जब उसकी पंखुड़ियाँ लटक जाएँ। उसका असली समय वही है, जब वह स्फुटोन्मुख हो। मधुमाखी उसी समय उस पर निछावर होने के लिए मतवाली हो उठती है!" एक दीर्घ नि:श्वास छोड़ आँखें झुका, कवि चुप हो गया।

मिनट पर मिनट गुजरने लगे। सर्द पहाड़ी हवा के झोंके से कवि के वृद्ध शरीर को समय का ध्यान आया। उसने देखा, मक्रील की फेनिल श्वेतता युवती की सुघड़ता पर विराज रही है। एक क्षण के लिए कवि 'घोर शब्दमयी प्रवाहमयी' युवती को भूल, मूक युवती का सौंदर्य निहारने लगा। हवा के दूसरे झोंके से सिहर कर बोला, "समय अधिक हो गया है, चलना चाहिए।"

लौटते समय मार्ग में कवि ने कहा - "आज त्रयोदशी के दिन यह शोभा है। कल और भी अधिक प्रकाश होगा। यदि असुविधा न हो, तो क्या कल भी मार्ग दिखाने आओगी?" और स्वयं ही संकोच के चाबुक की चोट खाकर वह हँस पड़ा।

युवती ने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया - "अवश्य।"

सर्द हवा से कवि का शरीर ठिठुर गया था। कमरे की सुखद उष्णता से उसकी जान में जान आई, भारी कपड़े उतारने के लिए वह परिधान की मेज के सामने गया। सिर से टोपी उतार उसने ज्यों ही नौकर के हाथ में दी, बिजली की तेज रोशनी से सामने आईने में दिखाई पड़ा मानो उसके सिर के बालों पर राज ने चूने से भरी कुची का एक पोत दे दिया हो और धूप में सुखाए फल के समान झुर्रियों से भरा चेहरा।

नौकर को हाथ के संकेत से चले जाने को कह, वह दोनों हाथों से मुँह ढँक कुर्सी पर गिर-सा पड़ा। मुँदी हुई पलकों में से उसे दिखाई दिया - चाँदनी में संगमरमर की उज्ज्वल मूर्ति का सुघड़ चेहरा, जिस पर यौवन की पूर्णता छा रही थी, मक्रील का उन्माद भरा प्रवाह! कवि की आत्मा चीख उठी - यौवन! यौवन!!

ग्लानि की राख के नीचे बुझती चिनगारियों को उमंग के पंखे से सजग कर, चतुर्दशी की चाँदनी में मक्रील का नृत्य देखने के लिए कवि तत्पर हुआ। घोषमयी मक्रील को कवि के यौवन से कुछ मतलब न था, और 'मूक मक्रील' ने पूजा के धूप-दीप के धूम्रावरण में कवि के नख-शिख को देखा ही न था। इसलिए वह दिन के समय संसार की दृष्टि से बच कर अपने कमरे में ही पड़ा रहा। चाँदनी खूब गहरी हो जाने पर मक्रील के पुल पर जाने के लिए वह शंकित हृदय से फुलवारी में आया। युवती प्रतीक्षा में खड़ी थी।

कवि ने धड़कते हुए हृदय से उसकी ओर देखा - आज शाल के बदले वह शुतरी रंग का ओवरकोट पहने थी, परंतु उस गौर, सुघड़ नख-शिख को पहचानने में भूल हो सकती थी!

कवि ने गदगद स्वर में कहा - "ओहो! आपने अपनी बात रख ली परंतु इस सर्दी में कुसमय! शायद उसके न रखने में ही अधिक बुद्धिमानी होती। व्यर्थ कष्ट क्यों कीजिएगा? ...आप विश्राम कीजिए।"

युवती ने सिर झुका उत्तर दिया - "मेरा अहोभाग्य है, आपका सत्संग पा रही हूँ।"

कंटकित स्वर से कवि बोला - "सो कुछ नहीं, सो कुछ नहीं।"

पुल के समीप पहुँच कवि ने कहा - "आपकी कृपा है, आप मेरा साथ दे रही हैं।... संसार में साथी बड़ी चीज है।" मक्रील की ओर संकेत कर, "यह देखिए, इसका कोई साथी नहीं, इसलिए हाहाकार करती साथी की खोज में दौड़ती चली जा रही है।"

स्वयं अपने कथन की तीव्रता के अनुभव से संकुचित हो हँसने का असफल प्रयत्न कर, अप्रतिभ हो, वह प्रवाह की ओर दृष्टि गड़ाए खड़ा रहा। आँखें बिना ऊपर उठाए ही उसने धीरे-धीरे कहा - "पृथ्वी की परिक्रमा कर आया हूँ... कल्पना में सुख की सृष्टि कर जब मैं गाता हूँ, संसार पुलकित हो उठता है। काल्पनिक वेदना के मेरे आर्तनाद को सुन संसार रोने लगता है। परंतु मेरे वैयक्तिक सुख-दु:ख से संसार का कोई संबंध नहीं। मैं अकेला हूँ। मेरे सुख को बाँटनेवाला कहीं कोई नहीं, इसलिए वह विकास न पा, तीव्र दाह बन जाता है। मेरे दु:ख का दुर्दम वेग असह्य हो जब उछल पड़ता है, तब भी संसार उसे विनोद का ही साधन समझ बैठता है। मैं पिंजरे में बंद बुलबुल हूँ, या दु:ख से रोता हूँ, इसकी चिंता किसी को नहीं...

"काश, जीवन में मेरे सुख-दु:ख का कोई अवलंब होता। मेरा कोई साथी होता! मैं अपने सुख-दु:ख का एक भाग उसे दे, उसकी अनुभूति का भाग ग्रहण कर सकता। मैं अपने इस निस्सार यश को दूर फेंक संसार का जीव बन जाता।"

कवि चुप हो गया। मिनट पर मिनट बीतने लगे। ठंडी हवा से जब कवि का बूढ़ा शरीर सिहरने लगा, दीर्घ नि:श्वास ले उसने कहा - "अच्छा, चलें।"

द्रुत वेग से चली जाती जलराशि की ओर दृष्टि किए युवती कंपित स्वर में बोली - "मुझे अपना साथी बना लीजिए।"

मक्रील के गंभीर गर्जन में विडंबना की हँसी का स्वर मिलाते हुए कवि बोला - "तुम्हें?" और चुप रह गया।

शरीर काँप उठने के कारण पुल के रेलिंग का आश्रय ले, युवती ने लज्जा-विजड़ित स्वर में कहा - "मैं यद्यपि तुच्छ हूँ..."

"न-न-न, यह बात नहीं" - कवि सहसा रुक कर बोला, "उलटी बात...हाँ, अब चलें।"

फुलवारी में पहुँच कवि ने कहा, "कल... " परंतु बात पूरी कहे बिना ही वह चला गया।



अपने कमरे में पहुँच कर सामने आईने की ओर दृष्टि न करने का वह जितना ही यत्न करने लगा, उतना ही स्पष्ट अपने मुख का प्रतिबिंब उसके सम्मुख आ उपस्थित होता। बड़ी बेचैनी में कवि का दिन बीता। उसने सुबह हो एक तौलिया आईने पर डाल दिया और दिन भर कहीं बाहर न निकला।

दिन भर सोच और जाने क्या निश्चय कर संध्या समय कवि पुन: तैयार हो फुलवारी में गया। शुतरी रंग के काटे में संगमरमर की वह सुघड़ मूर्ति सामने खड़ी थी। कवि के हृदय की तमाम उलझन क्षण भर में लोप हो गई। कवि ने हँस कर कहा - "इस सर्दी में...? देश-काल पात्र देख कर ही वचन का भी पालन किया जाता है।" पूर्णिमा के प्रकाश में कवि ने देखा, उसकी बात के उत्तर में युवती के मुख पर संतोष और आत्मविश्वास की मुस्कराहट फिर गई। पुल पर पहुँच हँसते हुए कवि बोला, "तो साथ देने की बात सचमुच ठीक थी?"

युवती ने उत्तर दिया - "उसमें परिहास की तो कोई बात नहीं।"

कवि ने युवती की ओर देख, साहस कर पूछा - "तो जरूर साथ दोगी?"

"हाँ।" - युवती ने हामी भरी, बिना सिर उठाए ही।

"सब अवस्था में, सदा?"

सिर झुका कर युवती ने दृढ़ता से उत्तर दिया - "हाँ।"

कवि अविश्वास से हँस पड़ा - "तो आओ," उसने कहा - "यहीं साथ दो मक्रील के गर्भ में?"

"हाँ यहीं सही।" युवती ने निर्भीक भाव से नेत्र उठा कर कहा।

हँसी रोक कर कवि ने कहा - "अच्छा, तो तैयार हो जाओ - एक, दो, तीन।" हँस कर कवि अपना हाथ युवती के कंधे पर रखना चाहता था। उसने देखा, पुल के रेलिंग के ऊपर से युवती का शरीर नीचे मक्रील के उद्दाम प्रवाह की ओर चला गया।

भय से उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया। हाथ फैला कर उसे पकड़ने के विफल प्रयत्न में बड़ी कठिनता से वह अपने आपको सम्हाल सका।

मक्रील के घोर गर्जन में एक दफे सुनाई दिया - 'छप्' और फिर केवल नदी का गंभीर गर्जन।

कवि को ऐसा जान पड़ा, मानो मक्रील की लहरें निरंतर उसे 'आओ! 'आओ!' कह कर बुला रही हैं। वह सचेत ज्ञान-शून्य पुल का रेलिंग पकड़े खड़ा रहा। जब पीठ पीछे से चल कर चंद्रमा का प्रकाश उसके मुँह पर पड़ने लगा, उन्मत्त की भाँति लड़खड़ाता वह अपने कमरे की ओर चला।

कितनी देर तक वह निश्चल आईने के सामने खड़ा रहा। फिर हाथ की लगड़ी को दोनों हाथों से थाम उसने पड़ापड़ आईने पर कितनी ही चोटें लगाईं और तब साँस चढ़ आने के कारण वह हाँफता हुआ आईने के सामने ही कुर्सी पर धम से गिर पड़ा।



प्रात: हजामत के लिए गरम पानी लानेवाले नौकर ने जब देखा - कवि आईने के सामने कुर्सी पर निश्चल बैठा है, परंतु आईना टुकड़े-टुकड़े हो गया और उसके बीच का भाग गायब है। चौखट में फँसे आईने के लंबे-लंबे भाले के-से टुकड़े मानो दाँत निकाल कर कवि के निर्जीव शरीर को डरा रहे हैं।

कवि का मुख कागज की भाँति पीला और शरीर काठ की भाँति जड़ था। उसकी आँखें अब खुली थीं, उनमें से जीवन नहीं, मृत्यु झाँक रही थी। बाद में मालूम हुआ, रात के पिछले पहर कवि के कमरे से अनेक बार 'आता हूँ, आता हूँ' की पुकार सुनाई दी थी।

10.फूलो का कुर्ता

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मुझे यदि संकीर्णता और संघर्ष से भरे नगरो में ही अपना जीवन बिताना पड़ता तो मैं या तो आत्महत्या कर लेता या पागल  हो जाता। भाग्य से बरस में तीन मास के लिए कालेज में अवकाश हो जाता है और मैं नगरो के वैमनस्यपूणं संघर्ष से भाग कर पहाड़ में अपने गाँव चला जाता हुं।
‌                                      मेरा गांव आधुनिक क्षुब्धता से बहुत दूर,हिमालय के आंचल में है। भगवान की दया से रेल,मोटर और तार के अभिशाप ने इस गांव को अभी तक नहीं छुआ है। पहाड़ी भूमि अपना प्राकृतिक श्रृंगार लिए है। मनुष्य उसकी   उत्पादन शक्ति से संतुष्ट है ।
 हमारे यहां गांव बहुत छोटे छोटे छोटे हैं। कहीं-कहीं तो बहुत ही छोटे ,दस-बीस घर से लेकर पांच-छ: घर तक और बहुत पास-पास।  एक गाँव पहाड़  की तलहटी में है तू दूसरा उसकी ढलान पर। मुंह पर हाथ लगा कर पुकारने से दूसरे गांव तक बात कह दी जा सकती है। गरीबी है, अशिक्षा भी है परंतु वैमनसय और  असंतोष कम है।
  बंकू साह की छप्पर से छायी दुकान गाँव की सभी आवश्यकता पूरी कर  देती है। उनकी दुकान का बरामदा ही गाँव की चौपाल या क्लब है। बरामदे के सामने दालान में पीपल के नीचे खेलते हैं और ढोर बैठकर जुगाली भी करते रहते हैं।
                                                 सुबह से जोर की बारिश हो रही थी ।बाहर जाना संभव न था इसलिए था आजकल  के एक प्रगतिशील लेखक का उपन्यास पढ़ रहा था।
कहानी थी एक निर्धन कुलीन युवक का विवाह एक शिक्षित युवति से हो गया था। नगर के जीवन में युवक की आमदनी से गुजारा चलता ना देख कर युवती ने भी नौकरी कर कुछ कमाना चाहा परंतु यह बात युवक के आत्मसम्मान को स्वीकार न थी। उनके संतान पैदा हो गयी; होनी ही थी । एक-दो और फिर तीन बजे  बच्चे।महगाई के जमाने में भूखे मरने की नौबत आ गई। उनका बीमार हो जाना । अपनी  स्त्री की राय से     नवयुवक का एक सेठ जी के यहां नौकरी करना और उनका खुशहाल हो जाना।
‌                           एक दिन राज्य खुला की नवयुवक की खुशहाली का मोल उनकी अपनी योग्यता नहीं, उनकी पत्नी की इज्जत थी। पति नेटने का यत्न किया। पत्नी ने गिड़गिड़ा कर क्षमा मांगी जो - कुछ किया इन बच्चे के लिए किया। पत्नी ने केवल बच्चों को पाल सकने के लिए प्राण- भिक्षा मांगी । पति सोचने लगा- मेरी इज्जत का मोल अधिक है या तीन बच्चों के प्राणो का!
‌ मैंन ग्लानि से पुस्तक पटक दी। सोचा - यह है हमारी गिरावट की सीमा! आज ऐसा साहित्य बन रहा है जिसमें में व्यभिचार  के लिए सफाई दी जाती है। यह साहित्य हमारी संस्कृति का अधार  बनेगा !हमारा जीवन कितना छिछला और संकीर्ण होता चला जा रहा है। स्वार्थ के बावलेपन छीना झपटी और मारोमार हमें बदहवास किए दे रही है। हम अपनी उस मानवता, नैतिकता और स्थिरता को खो चुके हैं । जिसका विकास हमारे आत्मा दृष्टा ऋषियों ने संकीर्ण सांसारिकता से मुक्त होकर किया था। हम स्वार्थ की पट्टी आंखों पर बांधकर भारत की आत्मज्ञान की संस्कृति के परम शांति के मार्ग को खो बैठे हैं ।.......................क्या पेट और रोटी सब कुछ है? इसमें परे मनुष्यता, संस्कृति और नैतिकता कुछ नहीं है ?ऐसे ही विचार मन में उठ रहे थे।
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बारिश थम कर  धूप निकल आई थी। घर में दवाई के लिए कुछ अजवायन की जरूरत थे। घर से निकल पड़ा कि बंकू साह से ले आऊ।
                                          बंकू साह की दुकान के बरामदे में पाच सात आदमी बैठे थे । हुक्का चल रहा था । सामने गांव के बच्चे कीड़ा कीड़ी का खेल खेल रहे थे इस शाह की पाच बरस की लड़की फूलों भी उन्हीं में थी।
पाच बरस की लड़की का पहनावा और ओढ़ना क्या! एक कुर्ता कंधे से लटका था। फूलों की सगाई हमारे गांव से फलाग भर दूर `चूला` गांव में संतू से हो गई थी।
      संतु की उम्र रही होगी,  यही सात बरस।सात बरस का लड़का क्या करेगा घर है में दो भैंस  एक गाय और दो बैल थे । ढोर चरने जाते तो संतु छड़ी लेकर उन्हें देखता और खेलता भी रहता; ढोर काहे को किसी के खेत में जाए । सांझ को उन्हें घर हाक लाता।

बारिश थमने पर संतु अपने ढोरों को ढलवाने की हरियाली में हाक कर ले जा रहा था। बंकू साह की दुकान के सामने पीपल के नीचे बच्चों को खेलते देखा तो उधर ही आ गया।
                             संतु को खेल में आया देखकर सुनार का छ:बरस का लड़का हरिया चिल्ला उठा "आहा  ,फूलों का दूल्हा आया! "

              दूसरे बच्चे भी उसी तरह चिल्लाने लगे।
बच्चे बड़े बूढ़ों को देखकर बिना बताए समझाए भी सब कुछ सीख और जान जाते हैं  यूं ही मनुष्य के ज्ञान और संस्कृति की परंपरा चलती रहती है । फूलों पाच बरस की बच्ची थी तो क्या; वह जानती थी ,दूल्हे से लज्जा करनी चाहिए। उसने अपनी मां को गांव की सभी भली स्त्रियों को लज्जा से घूंघट और पर्दा करते देखा था । उसके संस्कारों ने उसे समझा दिया था, लज्जा से मुंह ढक लेना उचित है।
         
                                               बच्चों के चिल्लाने से फूलों लजा गई परंतु वह करती तो क्या । एक कुरता ही तो उसके कंधे से लटक रहा था । उसने दोनों हाथों से कुर्ते का आंचल उठाकर अपना मुंह छुपा लिया।

छप्पर के सामने, हुक्के को घेर कर कर बैठे प्रोढ़ आदमी फूलों की इस लज्जा को देख कर कर लज्जा को देख कर इस लज्जा को देख कर कर लज्जा को देख कर कह कहा लगाकर हंस पड़े।
              काका राम सिंह ने फूलों को प्यार से धमकाकर कुर्ता नीचे करने के लिए समझाया।
शरारती लड़के मजाक समझकर `हो - हो` करने लगे।

बंकू साह के यहां दवाई के लिए थोड़ी अजवायन लेने आया था परंतु फूलों की सरलता से मन चुटिया गया । यूं ही लौट चला।
                       सोचता जा रहा था- बदली स्थिति में ही परंपरागत संस्कार से ही नैतिकता और लज्जा की रक्षा करने के प्रयत्न में क्या- से -क्या हो जाता है । प्रगतिशील लेखकों की उघाड़ी- उघाड़ी बातें........।

हम फूलों के कुर्ते के आंचल में शरण पाने का प्रयत्न कर उघड़ते चले जा रहे हैं और नया लेखक हमारे चेहरे से कुर्ता नीचे खींच देना चाहता है.........।



11.पर्दा

Yashpal ki kahaniya

चौधरी पीरबख्श के दादा चुंगी के महकमे में दारोगा थे । आमदनी अच्छी थी । एक छोटा, पर पक्का मकान भी उन्होंने बनवा लिया । लड़कों को पूरी तालीम दी । दोनों लड़के एण्ट्रेन्स पास कर रेलवे में और डाकखाने में बाबू हो गये । चौधरी साहब की ज़िन्दगी में लडकों के ब्याह और बाल-बच्चे भी हुए, लेकिन ओहदे में खास तरक्की न हुई; वही तीस और चालीस रुपये माहवार का दर्जा ।
अपने जमाने की याद कर चौधरी साहब कहते-''वो भी क्या वक्त थे ! लोग मिडिल पास कर डिप्टी-कलेक्टरी करते थे और आजकल की तालीम है कि एण्ट्रेन्स तक अंग्रेज़ी पढ़कर लड़के तीस-चालीस से आगे नहीं बढ पाते ।'' बेटों को ऊँचे ओहदों पर देखने का अरमान लिये ही उन्होंने आँखें मूंद लीं ।
इंशा अल्ला, चौधरी साहब के कुनबे में बरक्कत हुई । चौधरी फ़ज़ल कुरबान रेलवे में काम करते थे । अल्लाह ने उन्हें चार बेटे और तीन-बेटियां दीं। चौधरी इलाही बख्श डाकखाने में थे । उन्हें भी अल्लाह ने चार बेटे और दो लड़कियाँ बख्शीं ।
चौधरी-खानदान अपने मकान को हवेली पुकारता था । नाम बड़ा देने पर जगह तंग ही रही । दारोगा साहब के जमाने में ज़नाना भीतर था और बाहर बैठक में वे मोढ़े पर बैठ नैचा गुड़गुड़ाया करते । जगह की तंगी की वजह से उनके बाद बैठक भी ज़नाने में शामिल हो गयी और घर की ड्योढ़ी पर परदा लटक गया। बैठक न रहने पर भी घर की इज्जत का ख्याल था, इसलिए पर्दा बोरी के टाट का नहीं, बढ़िया किस्म का रहता ।
ज़ाहिर है, दोनों भाइयों के बाल-बच्चे एक ही मकान में रहने पर भी भीतर सब अलग-अलग था । डयोढ़ी का पर्दा कौन भाई लाये? इस समस्या का हल इस तरह हुआ कि दारोगा साहब के जमाने की पलंग की रंगीन दरियाँ एक के बाद एक डयोढ़ी में लटकाई जाने लगीं ।
तीसरी पीढ़ी के ब्याह-शादी होने लगे । आखिर चौधरी-खानदान की औलाद को हवेली छोड़ दूसरी जगहें तलाश करनी पड़ी । चौधरी इलाही बख्श के बड़े साहबजादे एण्ट्रेन्स पास कर डाकखाने में बीस रुपये की क्लर्की पा गये । दूसरे साहबजादे मिडिल पास कर अस्पताल में कम्पाउण्डर बन गये ।ज्यों-ज्यों जमाना गुजरता जाता, तालीम और नौकरी दोनों मुश्किल होती जातीं तीसरे बेटे होनहार थे । उन्होंने वज़ीफ़ा पाया । जैसे-तैसे मिडिल कर स्कूल में मुदर्रिस हो देहात चले गये ।
चौथे लड़के पीरबख्श प्राइमरी से आगे न बढ़ सके । आजकल की तालीम माँ-बाप पर खर्च के बोझ के सिवा और है क्या? स्कूल की फीस हर महीने, और किताबों, कापियों और नक्शों के लिए रुपये-ही-रुपये!
चौधरी पीरबख्श का भी ब्याह हो गया मौला के करम से बीबी की गोद भी जल्दी ही भरी । पीरबख्श ने रौजगार के तौर पर खानदान की इज्ज़त के ख्याल से एक तेल की मिल में मुंशीगिरी कर लीं । तालीम ज्यादा नहीं तो क्या, सफेदपोश खानदान की इज्ज़त का पास तो था । मजदूरी और दस्तकारी उनके करने की चीजें न थीं । चौकी पर बैठते । कलम-दवात का काम था ।
बारह रुपया महीना अधिक नहीं होता । चौधरी पीरबख्श को मकान सितवा की कच्ची बस्ती में लेना पड़ा । मकान का किराया दो रुपया था । आसपास गरीब और कमीने लोगों की बस्ती थी । कच्ची गली के बीचों-बीच, गली के मुहाने पर लगे कमेटी के नल से टपकते पानी की काली धार बहती रहती, जिसके किनारे घास उग आयी थी । नाली पर मच्छरों और मक्खियों के बादल उमड़ते रहते । सामने रमजानी धोबी की भट्ठी थी, जिसमें से धुँआँ और सज्जी मिले उबलते कपड़ों की गंध उड़ती रहती । दायीं ओर बीकानेरी मोचियों के घर थे । बायीं ओर वर्कशाप में काम करने वाले कुली रहते ।
इस सारी बस्ती में चौधरी पीरबख्श ही पढ़े-लिखे सफ़ेदपोश थे । सिर्फ उनके ही घर की डयोढ़ी पर पर्दा था । सब लोग उन्हें चौधरीजी, मुंशीजी कहकर सलाम करते । उनके घर की औरतों को कभी किसी ने गली में नहीं देखा । लड़कियाँ चार-पाँच बरस तक किसी काम-काज से बाहर निकलती और फिर घर की आबरू के ख्याल से उनका बाहर निकलना मुनासिब न था। पीर बख्श खुद ही मुस्कुराते हुए सुबह-शाम कमेटी के नल से घड़े भर लाते ।
चौधरी की तनख्वाह पद्रह बरस में बारह से अठारह हो गयी । खुदा की बरक्कत होती है, तो रुपये-पैसे की शक्ल में नहीं, आल-औलाद की शक्ल में होती है । पंद्रह बरस में पाँच बच्चे हुए । पहलै तीन लड़कियाँ और बाद में दो लड़के ।
दूसरी लड़की होने को थी तो पीरबख्श की वाल्दा मदद के लिए आयीं । वालिद साहब का इंतकाल हो चुका था । दूसरा कोई भाई वाल्दा की फ़िक्र करने आया नहीं; वे छोटे लड़के के यहाँ ही रहने लगीं ।
जहाँ बाल-बच्चे और घर-बार होता है, सौ किस्म की झंझटें होती ही हैं । कभी बच्चे को तकलीफ़ है, तो कभी ज़च्चा को । ऐसे वक्त में कर्ज़ की जरूरत कैसे न हो ? घर-बार हो, तो कर्ज़ भी होगा ही ।
मिल की नौकरी का कायदा पक्का होता है । हर महीने की सात तारीख को गिनकर तनख्वाह मिल जाती है । पेशगी से मालिक को चिढ़ है । कभी बहुत ज़रूरत पर ही मेहरबानी करते । ज़रूरत पड़ने पर चौधरी घर की कोई छोटी-मोटी चीज़ गिरवी रख कर उधार ले आते । गिरवी रखने से रुपये के बारह आने ही मिलते । ब्याज मिलाकर सोलह ऑने हो जाते और फिर चीज़ के घर लौट आने की सम्भावना न रहती ।
मुहल्ले में चौधरी पीरबख्श की इज्ज़त थी । इज्ज़त का आधार था, घर के दरवाजे़ पर लटका पर्दा । भीतर जो हो, पर्दा सलामत रहता । कभी बच्चों की खींचखाँच या बेदर्द हवा के झोंकों से उसमें छेद हो जाते, तो परदे की आड़ से हाथ सुई-धागा ले उसकी मरम्मत कर देते ।
दिनों का खेल ! मकान की डयोढ़ी के किवाड़ गलते-गलते बिलकुल गल गये । कई दफे़ कसे जाने से पेच टूट गये और सुराख ढीले पड़ गये । मकान मालिक सुरजू पांडे को उसकी फ़िक्र न थी । चौधरी कभी जाकर कहते-सुनते तो उत्तर मिलता--''कौन बड़ी रकम थमा देते हो ? दो रुपल्ली किराया और वह भी छः-छः महीने का बकाया । जानते हो लकड़ी का क्या भाव है । न हो मकान छोड़ जाओ ।'' आखिर किवाड़ गिर गये । रात में चौधरी उन्हें जैसे-तैसे चौखट से टिका देते । रात-भर दहशत रहती कि कहीं कोई चोर न आ जाये ।

12.धर्मयुद्ध

Yashpal ki kahaniya

श्री कन्हैयालाल के पारिवारिक क्षेत्र में घटी धर्म-युद्ध की घटना की बात कहने से पहले कुछ भूमिका की आवश्यकता है इसलिये कि गलत-फहमी न हो।
कुरुक्षेत्र में जो धर्मयुद्ध हुआ था उसमें शस्त्रों का यानि गाँधीवाद के दृष्टिकोण से पाशविक बल का ही प्रयोग किया गया था। यों तो सतयुग से लेकर द्वापर तक धर्मयुद्ध का काल रहा है। वह युग आध्यात्मिक और नैतिकता का काल था। सुनते हैं कि उस काल में लोग बहुत शांतिप्रिय और संतुष्ट थे परन्तु सभी सदा सशस्त्र रहते थे। न्याय-अन्याय और उचित-अनुचित का प्रश्न जब भी उठता तो निर्णय शस्त्रों के प्रयोग और रक्तपात से ही होता था। झगड़ा चाहे भाइयों में रहा हो या देव-दानवों में या पति पत्नी में...जैसाकि ऋषि जमदग्नि का अपनी पत्नी से या ऋषियों के समाज में....जैसा कि ब्रह्मर्षि वशिष्ठ और राजर्षि विश्वामित्र में।
इधर ज्यों-ज्यों मानव समाज में आध्यात्मिकता का ह्रास होता गया, लोग निःशस्त्र रहने लगे। झगड़े तो होते ही रहे, होते ही हैं; परन्तु निःशस्त्र होने के कारण लोग नैतिक शक्ति का प्रयोग करने लगे। शस्त्रों के बिना नैतिक शक्ति से न्याय और धर्म के लिये लड़ने का संघर्ष करने की विधि का नाम कालान्तर में सत्याग्रह पड़ गया। सत्याग्रह को ही हम वास्तव में धर्मयुद्ध कह सकते हैं क्योंकि युद्ध की इस विधि में मनुष्य पाशविक बल से नहीं बल्कि आत्म-बलिदान से या धर्म बल से ही न्याय की प्रतिष्ठा का यत्न करता है। श्री कन्हैयालाल के पारिवारिक क्षेत्र में विचारों का संघर्ष धर्मयुद्ध की विधि से ही हुआ था।
कुछ परिचय श्री कन्हैयालाल का भी आवश्यक है। यों तो कन्हैयालाल की स्थिति हमारे दफ्तर के सौ-सौ रुपये माहवार पाने वाले दूसरे बाबुओं के समान ही थी परन्तु उनके व्यवहार में दूसरे सामान्य बाबुओं से भिन्नता थी।
सौ सवासौ रुपये का मामूली आर्थिक आधार होने पर भी उनके व्यवहार में एक बड़प्पन और उदारता थी, जैसी ऊँचे स्तर के बड़े-बाबू लोगों में होती है। वे दस्तखत करते थे ‘के. लाल’ और हाथ मिलाते तो जरा कलाई को झटक कर ओठों पर मुस्कराहट आ जाती-हाओ डू यू डू कहिये क्या हाल है और पूछ बैठते, ह्वाट कैन आई डू फार यू ! (आपके लिये क्या करता सकता हूँ !)’
दफ्तर के कुछ तुनक मिजाज लोग के. लाल के
‘व्हाट कैन आई डू फार यू (आपके लिये मैं क्या कर सकता हूँ)’
प्रश्न पर अपना अपमान भी समझ बैठते और कुछ उनकी इस उदारता का मजाक उड़ा कर उन्हें ‘बास’ (मालिक) पुकारने लगे लेकिन के. लाल के व्यवहार में दूसरों का अपमान करने की भावना नहीं थी। दूसरे को क्षुद्र बनाये बिना ही वे स्वयं बड़प्पन अनुभव करना चाहते थे। इसके लिये हमसे और हमारे पड़ोसी दीना बाबू से कभी किसी प्रतिदान की आशा न होने पर भी उन्होंने कितनी ही बार हमें काफी-हाउस में काफी पिलाई और घर पर भी चाय और शरबत से सत्कार किया। लाल की इस सब उदारता का मूल्य हम इतना ही देते थे कि उन्हें अपने से अधिक बड़ा आदमी और अमीर स्वीकार करते रहते। दफ्तर के चपरासी लाल का आदर लगभग बड़े साहब के समान ही करते थे। लाल के आने पर उनकी साइकिल थाम लेते और छुट्टी के समय साइकिल को झाड़-पोंछ कर आगे बढ़ा देते। कारण यह कि लाल कभी पान या सिगरेट का पैकेट मंगाते तो कभी कभार रुपये में से शेष बचे दाम चपरासी को बख्शीश में दे देते।
हम लोग तो इस दफ्तर में तीन चार बरस से काम कर रहे थे; पचहत्तर रुपये पर काम आरम्भ करके सवासौ तक पहुँच गये थे। दफ्तर की साधारण सालाना तरक्की के अतिरिक्त कोई सुनहरा भविष्य सामने था नहीं। वह आशा भी नहीं थी कि हमें कभी असिस्टेन्ट या मैनेजर बन जाना है परन्तु के. लाल शीघ्र ही किसी ऐसी तरक्की की आशा में थे। तीन-चार मास पूर्व ही वे किसी बड़े आदमी की सिफारिश से दफ्तर में आये थे। प्रायः बड़े आदमियों से मिलने-जुलने की बात इस भाव से करते कि अपने समान आदमियों की ही बात कर रहे हों। अक्सर कह देते ग्राहम ऐण्ड ग्रिण्डले के दफ्तर से उन्हें चार सौ का आफर है अभी सोच रहे हैं....या मैकेन्जी एण्ड विनसन उन्हें तीन सौ तनख्वाह और बिक्री पर तीन प्रतिशत मय फर्स्ट क्लास किराये के देने के लिये तैयार है, लेकिन सोच रहे हैं...।
हमारे दफ्तर में उन्हें लोहे की सलाखों और चादरों के आर्डर बुक करने का काम दिया गया था। इस ड्यूटी के कारण उन्हें दफ्तर के समय की पाबन्दी कम रहती, घूमने फिरने का समय मिलता रहता और वे अपने आप को साधारण बाबुओं से भिन्न समझते। इस काम में कम्पनी को कोई विशेष सफलता उनके आने से नहीं हुई थी इसलिये शीघ्र ही कोई तरक्की पा जाने की लाल की आशा हमें बहुत सार्थक नहीं जान पड़ रही थी परन्तु लाल को अपने उज्ज्वल भविष्य पर अडिग विश्वास था। ऊँचे दर्जे के खर्च से बढ़ते कर्जे की चिन्ता के कारण उनके माथे पर कभी तेवर नहीं देखे गये और न उनके चाय, और सिगरेट आफर प्रस्तुत करने में कोई कमी देखी गयी। उन्हें ज्योतिषी द्वारा बताये अपनी हस्तरेखा के फल पर दृढ़ विश्वास था।
जैसे जंगल में आग लग जाने पर बीहड़ झाड़-झंखार में छिपे जानवरों को मैदानों की ओर भागना पड़ता है और टुच्चे-टुच्चे शिकारियों की भी बन आती है वैसे ही पिछले युद्ध के समय महान् राष्ट्रों को परस्पर संहार के लिये साधारण पदार्थों की अपरिचित आवश्यकता हो गयी थी। सर्वसाधारण जनता तो अभाव से मरने लगी, परन्तु व्यापारी समाज की बन आयी। अब हमारी मिल को ग्राहक और एजेण्ट ढूँढ़ने नहीं पड़ रहे थे बल्कि ग्राहक और एजेण्टों से पीछा छुड़ाना पड़ रहा था। लाल का काम सरल हो गया। उनका काम था मिल के लोहे का कोटा बाँटना और मिल के लिये लाभ की प्रतिशत दर बढ़ाना।
दस्तूरन तो के. लाल की तनख्वाह में कोई अन्तर नहीं आया परन्तु अब वे साइकिल पर पाँव चलाते दफ्तर आने के बजाय ताँगे या रिक्शा पर आते दिखाई देते। ताँगे वाले की ओर रुपया फेंककर बाकी रेजगारी के लिये नहीं बल्कि उनके सलाम का जवाब देने के लिये ही उसकी ओर देखते। कई बार उनके मुख से सेकेण्ड हेन्ड-‘शेवरले’ या ‘वाक्सहाल’ गाड़ी का ट्रायल लेने जाने की बात भी सुनाई दी। अब वे चार-चार, पाँच-पाँच आदमियों को काफी हाउस ले जाने लगे और उम्मुक्त उदारता से पूछते-
‘‘व्हाट बुड यू लाइक टु हैव ? (क्या शौक कीजिएगा)’’
अपने घर पर भी अब वे अधिक निमंत्रण देने लगे। उनके घर जाने पर भी हर बार कोई न कोई नयी चीज दिखाई देती। कमरे का आकार बढ़ नहीं सकता था, इसलिये वह फर्नीचर और सामान से अटा जा रहा था। जगह न रहने पर कुर्सियां सोफाओं के पीछे रख दी गयी थीं और टी टेबलें कार्नर टेबलें और पेग टेबलें मेजों और सोफाओं के नीचे दबानी पड़ रही थीं। मेहमानों के सत्कार में भी अब केवल चायदानी या शरवत का जग ही सामने नहीं आता था। के. लाल तराशे हुए बिल्लौर का डिकेण्टर उपेक्षा से उठाकर आग्रह करते-
‘‘हैव ए डैश आफ ह्विस्की ! (एक दौर ह्विस्की का हो जाय ?)’’
धन्यवाद सहित नकारात्मक उत्तर दे देने पर भी वे अपनी उदारता को समेटने के लिये तैयार न थे; आग्रह करते-तो रम लो। अच्छा गिमलेट।’’
युद्ध के दिनों में कुछ समय वैकाइयों (W. A. C. A. I.) की भी बहार आई थी। सर्वसाधारण लोग बाजार में जवान, चुस्त बेझिझक छोकरियों के दलों को देख कर हैरान थे जैसे नीलगायों का कोई दल नगर की सीमा में फाँद आया हो। सामर्थ्य रखने वाले लोग प्रायः इनकी संगति का प्रदर्शन कर गौरव अनुभव करते थे। ऐसी तीन चार हँसमुखियाँ के. लाल साहब की महफिल में भी शोभा बढ़ाने लगीं।
श्री के. लाल के माता-पिता अपेक्षाकृत रुढ़िवादी हैं। आचार-व्यवहार के सम्बन्ध में उनकी धारणा धर्म पाप और पुण्य के विचारों से बँधी है। अपने एक मात्र पुत्र की सांसारिक समृद्धि से उन्हें सन्तोष और गौरव अनुभव होता था परन्तु उसकी आचार सम्बन्धी उच्छृंखलता से अपना धर्म और परलोक बिगड़ जाने की बात की भी वे उपेक्षा न कर सकते थे। एक दिन माता-पिता और पुत्र की आचार सम्बन्धी धारणाओं में परस्पर-विरोध के कारण धर्मयुद्ध ठन गया।
उस दिन के. लाल ने अन्तरंग मित्र मि. माथुर और वैकाई में काम करने वाली उनकी पत्नी तथा उनकी साली को ‘डिनर’ और ‘काकटेल’ (शराब) पार्टी के लिये निमन्त्रित किया था। इस प्रकार की पार्टियाँ प्रायः होती ही रहती थीं। परन्तु इस सावधानी से कि ऊपर को मंजिल में रसोई-चौके के काम में व्यस्त उनकी माँ और संग्रहणी के रोग से जर्जर खाट पर पड़े उनके पिता को पार्टी की बातचीत और खानपान के ढंग का आभास न हो पाता था। पार्टी के कमरे से रसोई तक सम्बन्ध नौकर या श्रीमती लाल द्वारा ही रहता था। मिसेज लाल सास-ससुर की धार्मिक निष्ठा की अपेक्षा अपने पति के सन्तोष को ही अपना धर्म मानती थी। सास के निर्मम अनुशासन की अपेक्षा पति की उच्छृंखलता उनके लिये अधिक सह्य थी।
उस सन्ध्या ऊपर और नीचे की मंजिलों का प्रबन्ध अलग-अलग रखने के प्रसंग में श्रीमती लाल ने पति से पूछा-
‘‘विद्या और आनन्द का क्या होगा ?’’
के. लाल की बहिन विद्या अपने पति आनन्द सहित आगरे से आकर एक सप्ताह के लिये भाई के यहाँ ठहरी हुई थी। बहिन और बहनोई को मेहमानों से मिलने से रोके रहना सम्भव न था। इसमें आशंका भी थी, क्योंकि विद्या को इस कम उम्र में ही धार्मिकता का गर्व अपनी माँ से कुछ कम न था।
दाँत से नाखून खोंटते हुए लाल ने सलाह दी-‘‘तुम विद्या को समझा दो।’’
‘‘यह मेरे बस का नहीं...।’’ श्रीमती लाल ने दोनों हाथ उठा कर दुहाई दी,
‘‘तुम ही आनन्द को समझा दो वही विद्या को संभाल सकता है।’’
यही तय पाया और लाल ने आनन्द को एक ओर ले जाकर उसके हाथ अपने हाथों में थाम विश्वास और भरोसे के स्वर में समझाया-‘आज मेहमान आ रहे हैं।....मेहमानों के लिये तो करना ही पड़ता है। तुम तो होगे ही। अगर विद्या को एतराज हो तो कुछ समय के लिये टाल देना या उसे समझा दो।....तुम जैसा समझो। विद्या को पहले से समझा देना ठीक होगा। उसे शायद यह बात विचित्र जान पड़े। माता जी के विचार और विश्वास तो तुम जानते ही हो। वह जाकर माता जी को न कुछ कह दे !’’ लाल ने मुस्कराकर अपना पूर्ण विश्वास और भरोसा प्रकट करने के लिये बहनोई के हाथ जरा और जोर से दबा दिये।
आनन्द ने विद्या को एक ओर बुलाकर समझाया-‘‘आजकल के जमाने में यह सब होता ही है। भैया की मजबूरी है....। तुम जानती हो मैं तो कभी पीता नहीं। हमारी वजह से इन लोगों के मेहमानों को क्यों परेशानी हो ? तुम इतना ध्यान रखना कि माता जी को नीचे न आना पड़े।’’ विद्या ने सुना और मानसिक आघात से चुप रह गयी।
मिस्टर माथुर, मिसेज माथुर अपनी साली के साथ जरा विलम्ब से पहुँचे। पार्टी शुरू हो गयी थी। पहला पेग चल रहा था। हँसी-मजाक की दबी-दबी आवाजें ऊपर की मंजिल में पहुँच रही थीं। आनन्द कुछ देर नीचे बैठता और फिर ऊपर जाकर देख आता कि सब ठीक है।

13.दुःख का अधिकार

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मनुष्यों की पोशाकें उन्हें विभिन्न श्रेणियों में बांट देती है। प्रायः पोशाक ही समाज में मनुष्य का अधिकार और उसका दर्जा निश्चित करती है। वह हमारे लिए अनेक बन्द दरवाजे खोल देती है परन्तु कभी ऐसी भी परिस्थिति आ जाती है कि हम जरा नीचे झुककर समाज की अनुभूति को समझना चाहते हैं, उस समय वह पोशाक ही बन्धन और बड़प्पन बन जाती है। जैसे वायु की लहरें कटी हुई पतंग को सहसा भूमि पर नहीं गिर जाने देती उसी तरह खास परिस्थितियों में हमारी पोशाक हमें झुक सकने से रोके रहती है।
             बाजार में, फुटपाथ पर कुछ खरबूजे डलिया पर कुछ जमीन पर बिक्री के लिए रखे थे । खरबूजे के समीप एक अधेड़ उम्र की औरत  बैठी रो रही थी ।  खरबूजे बिक्री के लिए थे, परंतु उन्हें खरीदने के लिए कोई कैसे आगे बढ़ता । खरबूजे को बेचने वाली तो कपड़े से मुंह छिपाए सिर को घुटने पर रखे फफक फफक कर रो रही थी।
               पड़ोस की दुकानों के तख्तों पर बैठे या बाजार में खड़े लोग घृणा से उस स्त्री के संबंध में बात कर रहे थे । उस स्त्री का रोना देख कर मन में एक व्यथा सी उठी पर उसके रोने का कारण जानने का उपाय क्या था ।
फुटपाथ पर उसके समीप बैठ सकने में मेरी पोशाक ही व्यवधान बन खड़ी हो गई । एक आदमी ने घृणा से एक तरफ ठोकते हुए कहा , "क्या जमाना है । जवान लड़के को मरे पूरा दिन नहीं बीता और यह बेहया दुकान लगाकर बैठी है ।" दूसरे साहब अपनी दाढ़ी खुजाते हुए कह रहे थे, 'अरे जैसी नियत होती है अल्लाह भी वैसी ही बरकत देता है । सामने के फुटपाथ पर खड़े एक आदमी ने दिया सलाई की तीली से कान खुजाते हुए कहा, 'अरे इन लोगों का क्या है । यह कमीने लोग रोटी के टुकड़े पर जान देते हैं । इनके लिए बेटा-बेटी,खसम, लुगाई ,धर्म-ईमान सब रोटी का टुकड़ा है । परचून की दुकान पर बैठे लाल जी ने कहा, ' अरे भाई उनके लिए मरे जिए का कोई मतलब ना हो पर दूसरे के धर्म ईमान का तो ख्याल रखना चाहिए ।जवान बेटे के मरने पर 13 दिन का सूतक होता है और यहां सड़क पर बाजार में आकर खरबूजे बेचने बैठ गई है । हजार आदमी आते जाते हैं । कोई क्या जानता है कि इसके घर में सूतक है । कोई इसके खरबूजे खा ले ले तो उसका धर्म ईमान कैसे रहेगा? क्या अंधेर है।
पास पड़ोस की दुकानों से पूछने से पता लगा उसका 23 बरस का जवान लड़का था । घर में उसकी बहू और पोता पोती है । लड़का शहर के पास डेढ़ बीघा जमीन में कछियारी करके परिवार का निर्वाह करता था। खरबूजो की डलिया बाजार में पहुंचाकर कभी लड़का स्वयं सौदे के पास बैठ जाता कभी मां बैठ जाती।
      लड़का परसों सुबह मुंह-अंधेरे बेलों में से पके खरबूजे चुन रहा था।  गीली मेड़ की तरावट में विश्राम करते हुए एक सांप पर लड़के का पैर पड़ गया। सांप ने लड़के को डस लिया।
      लड़के की बुढ़िया मां बावली होकर ओझा को बुला लाई झाड़ना फुकना हुआ। नाग देव की पूजा हुई । पूजा के लिए दान दक्षिणा चाहिए । घर में कुछ आटा और अनाज था, दान दक्षिणा में उठ गया। मां बहू और बच्चे भगवाना से लिपट लिपट कर रोए और भगवाना जो एक दफे चुप हुआ तो फिर ना बोला। सर्प के विष से उसका सब बदन काला पड़ गया था।
जिंदा आदमी नंगा भी रह सकता है । परंतु मुर्दे को नंगा कैसे विदा किया जाए। उसके लिए बाजार की दुकान से नया कपड़ा तो लाना ही होगा। चाहे उसके लिए मां के हाथों की छन्नी ककना ही क्यों न बिक जाए भगवाना परलोक चला गया घर में जो कुछ चूनी भूसी थी सोउसे विदा करने में चली गई बाप नहीं रहा तो क्या। लड़के सुबह उठते ही भूख से बिलबिलाने लगे। दादी ने उन्हें खाने के लिए खरबूजे दे दिए ,लेकिन बहू को क्या देती । बहू का बदन बुखार से तवे की तरह तप रहा था। अब बेटे के बिना बुढ़िया को दुवन्नी-चवन्नी भी कौन उधार देता। बुढ़िया रोते-रोते और आंखें पोछते-पोछते भगवाना के बटोरे हुए खरबूजे डलिया में समेटकर बाजार की ओर चली।और चारा भी क्या था?
  बुढ़िया खरबूजे बेचने का साहस करके आई थी, परंतु सिर पर चादर लपेटे हुए फफक-फफक कर रो रही थी।
कल जिसका बेटा चल बसा, आज बाजार में सौदा बेचने चली है, हाय रे पत्थर दिल।
उस पुत्र वियोगिनी के दुःख का अंदाजा लगाने के लिए पिछले साल अपने पड़ोस में पुत्र की मृत्यु से दुखी माता की बात सोचने लगा। वह संभ्रांत महिला पुत्र की मृत्यु के बाद अढ़ाई मास तक पलंग से उथ न सकी थी। उन्हें 15-15  मिनट बाद पुत्र वियोग से मूर्छा आ जाती थी और मूर्छा ना आने की अवस्था में आंखों से आंसू ना रुकते थे। दो-दो डॉक्टर हरदम सिरहाने बैठे रहते थे । हरदम सिर पर बर्फ रखी जाती थी। शहर भर के लोगों के मन उस पुत्र शॉप से द्रवित हो उठते थे।
      जब मन को सूझ का रास्ता नहीं मिलता तो बेचैनी से कदम तेज हो जाते हैं । उसी हालत में नाक ऊपर उठाए राह चलने से ठोकरें खाता मैं चला जा रहा था । सोच रहा था .......
शोक करने,गम मनाने के लिए भी सहूलियत चाहिए और... दुखी होने का भी एक अधिकार होता है ।

14.चित्र का शीर्षक

Yashpal ki kahaniya

जयराज जाना-माना चित्रकार था। वह उस वर्ष अपने चित्रों को प्रकृति और जीवन के यथार्थ से सजीव बना सकने के लिये, अप्रैल के आरम्भ में ही रानीखेत जा बैठा था। उन महिनों पहाड़ों में वातावरण खूब साफ और आकाश नीला रहता है। रानीखेत से त्रिशूल , पंचचोली और चौखम्बा की बरफानी चोटियाँ, नीले आकाश के नीचे माणिक्य के उज्ज्वल स्तूपों जैसीं जान पड़ती है। आकाश की गहरी नीलिमा से कल्पना होती कि गहरा नीला समुद्र उपर चढ क़र छत की तरह स्थिर हो गया हो और उसका श्वेत फेन, समुद्र के गर्भ से मोतियों और मणियों को समेट कर ढेर का ढेर नीचे पहाड़ों पर आ गिरा हो।
जयराज ने इन दृष्यों के कुछ चित्र बनाये परन्तु मन न भरा। मनुष्य के संसर्ग से हीन यह चित्र बनाकर उसे ऐसा ही अनुभव हो रहा था जैसे निर्जन बियाबान में गाये राग का चित्र बना दिया हो। यह चित्र उसे मनुष्य की चाह और अनुभव के स्पन्दन से शून्य जान पड़ते थे। उसने कुछ चित्र, पहाड़ों पर पसलियों की तरह फैले हुए खेतों में श्रम करते पहाड़ी किसान स्त्री-पुरूषों के बनाये। उसे इन चित्रों से भी सन्तोष न हुआ। कला की इस असफलता से अपने हृदय में एक हाय-हाय का सा शोर अनुभव हो रहा था। वह अपने स्वप्न और चाह की बात प्रकट नहीं कर पा रहा था।
जयराज अपने मन की तड़प को प्रकट कर सकने के लिए व्याकुल था।
वह मुठ्ठी पर ठोडी टिकाये बरामदे में बैठा था। उसकी दृष्टि दूर-दूर तक फैली हरी घाटियों पर तैर रही थी। घाटियों के उतारों-चढावों पर सुनहरी धूप खेल रही थी। गहराइयों में चाँदी की रेखा जैसी नदियाँ कुण्डलियाँ खोल रही थीं। दूध के फेन जैसी चोटियाँ खड़ी थीं। कोई लक्ष्य न पाकर उसकी दृष्टि अस्पष्ट विस्तार पर तैर रही थी। उस समय उसकी स्थिर आँखों के छिद्रों से सामने की चढाई पर एक सुन्दर, सुघड़ युवती को देखने लगी जो केवल उसकी दृष्टि का लक्ष्य बन सकने के लिए ही, उस विस्तार में जहाँ-तहाँ, सभी जगह दिखाई दे रही थी।
जयराज ने एक अस्पष्ट-सा आश्वासन अनुभव किया। इस अनुभूति को पकड़ पाने के लिये उसने अपनी दृष्टि उस विस्तार से हटा, दोनों बाहों को सीने पर बाँध कर एक गहरा निश्वास लिया। उसे जान पड़ा जैसे अपार पारावार में बहता निराश व्यक्ति अपनी रक्षा के लिये आने वाले की पुकार सुन ले। उसने अपने मन में स्वीकार किया, यही तो वह चाहता है :- कल्पना से सौन्दर्य की सृष्टि कर सकने के लिये उसे स्वयं भी जीवन में सौन्दर्य का सन्तोष मिलना चाहिये; बिना फूलों के मधुमक्खी मधु कहाँ से लाये? ऐसी ही मानासिक अवस्था में जयराज को एक पत्र मिला। यह पत्र इलाहाबाद से उसके मित्र एडवोकेट सोमनाथ ने लिखा था। सोमनाथ ने जयराज का परिचय उसकी कला के प्रति अनुराग और आदर के कारण प्राप्त किया था। कुछ अपनापन भी हो गया था। सोम ने अपने उत्कृष्ट कलाकार मित्र के बहुमूल्य समय का कुछ भाग लेने की घृष्टता के लिये क्षमा माँग कर अपनी पत्नी के बारे में लिखा था -
...इस वर्ष नीता का स्वास्थ्य कुछ शिथिल हैं, उसे दो मास पहाड़ में रखना चाहता हूँ। इलाहाबाद की कड़ी ग़र्मी में वह बहुत असुविधा अनुभव कर रही है। यदि तुम अपने पड़ोस में ही किसी सस्ते, छोटे परन्तु अच्छे मकान का प्रबन्ध कर सको तो उसे वहाँ पहुँचा दूँ। सम्भवतः तुमने अलग पूरा बँगला लिया होगा। यदि उस मकान में जगह हो और इससे तुम्हारे काम में विघ्न पड़ने की आशंका न हो तो हम एक-दो कमरे सबलेट कर लेंगे। हम अपने लिए अलग नौकर रख लेंगे .. आदि-आदि।
दो वर्ष पूर्व जयराज इलाहाबाद गया था। उस समय सोम ने उसके सम्मान में एक चाय-पार्टी दी थी। उस अवसर पर जयराज ने नीता को देखा था और नीता का विवाह हुए कुछ ही मास बीते थे। पार्टी में आये अनेक स्त्री-पुरूष के भीड़-भड़क्के में संक्षिप्त परिचय ही हो पाया था। जयराज ने स्मृति को ऊँगली से अपने मस्तिष्क को कुरेदा। उसे केवल इतना याद आया कि नीता दुबली-पतली, छरहरे बदन की गोरी, हँसमुख नवयुवती थी; आँखों में बुध्दि की चमक। जयराज ने पत्र को तिपाई पर एक ओर दबा दिया और फिर सामने घाटी के विस्तार पर निरूद्देश्य नजर किये सोचने लगा - क्या उत्तर दे?
जयराज की निरूद्देश्य दृष्टि तो घाटी के विस्तार पर तैर रही थी परन्तु कल्पना में अनुभव कर रहा था कि उसके समीप ही दूसरी आराम कुर्सी पर नीता बैठी है। वह भी दूर घाटी में कुछ देख रही है या किसी पुस्तक के पन्नों या अखबार में दृष्टि गड़ाये है। समीप बैठी युवती नारी की कल्पना जयराज को दूध के फेन के समान श्वेत, स्फटिक के समान उज्ज्वल पहाड़ क़ी बरफानी चोटी से कहीं अधिक स्पन्दन उत्पन्न करने वाली जान पड़ी। युवती के केशों और शरीर से आती अस्पष्ट-सी सुवास, वायु के झोकों के साथ घाटियों से आती बत्ती और शिरीष के फूलों की भीनी गन्ध से अधिक सन्तोष दे रही थी। वह अपनी कल्पना में देखने लगा - नीता उसकी आँखों के सामने घाटी की एक पहाड़ी पर चढती जा रही है। कड़े पत्थरों और कंकड़ों के ऊपर नीता की गुलाबी एड़ियाँ, सैन्डल में सँभली हुई हैं। वह चढाई में साड़ी क़ो हाथ से सँभाले हैं। उसकी पिंडलियाँ केले के भीतर के डंठल के रंग की हैं, चढाई के श्रम के कारण नीता की साँस चढ ग़ई है और प्रत्येक साँस के साथ उसका सीना उठ आने के कारण, कमल की प्रस्फुटनोन्मुख कली की तरह अपने आवरण को फाड़ देना चाहता है। कल्पना करने लगा - वह कैनवैस के सामने खड़ा चित्र बना रहा है।
नीता एक कमरे से निकली है। आहट ले उसके कान में विघ्न न डालने क लिए पंजों के बल उसके पीछे से होती हुई दूसरे कमरे में चली जा रही है। नीता किसी काम से नौकर को पुकार रही है। उस आवाज से उसके हृदय का साँय-साँय करता सूनापन सन्तोष से बस गया है ...।
ज़यराज तुरन्त कागज और कलम ले उत्तर लिखने बैठा परन्तु ठिठक कर सोचने लगा - वह क्या चाहता है? ...मित्र की पत्नी नीता से वह क्या चाहेगा? . .तटस्थता से तर्क कर उसने उत्तर दिया - कुछ भी नहीं। जैसे सूर्य के प्रकाश में हम सूर्य की किरणों को पकड़ लेने की आवश्यकता नहीं समझते, उन किरणों से स्वयं ही हमारी आवश्यकता पूरी हो जाती है; वैसे ही वह अपने जीवन में अनुभव होने वाले सुनसान अँधेरे में नारी की उपस्थिति का प्रकाश चाहता है।
जयराज ने संक्षिप्त-सा उत्तर लिखा - ...भीड़-भाड़ से बचने के लिए अलग पूरा ही बंगला लिया है। बहुत-सी जगह खाली पड़ी है। सबलेट-का कोई सवाल नहीं। पुराना नोकर पास है। यदि नीताजी उस पर देख-रेख रखेंगी तो मेरा ही लाभ होगा। जब सुविधा हो आकर उन्हें छोड़ ज़ाओ। पहुँचने के समय की सूचना देना। मोटर स्टैन्ड पर मिल जाऊँगा ...।
अपनी आँखों के सामने और इतने समीप एक तरूण सुन्दरी के होने की आशा में जयराज का मन उत्साह से भर गया। नीता की अस्पष्ट-सी याद को जयराज ने कलाकार के सौन्दर्य के आदेशों की कल्पनाओं से पूरा कर लिया। वह उसे अपने बरामदे में, सामने की घाटी पर, सड़क़ पर अपने साथ चलती दिखाई देने लगी। जयराज ने उसे भिन्न-भिन्न रंगों की साड़ियों में, सलवार-कमीज के जोड़ों की पंजाबी पोशाक में, मारवाड़ी अँगिया-लहंगे में फूलों से भरी लताओं के कुंज में, चीड़ क़े पेड़ क़े तले और देवदारों की शाखाओं की छाया में सब जगह देख लिया। वह नीता के सशरीर सामने आ जाने की उत्कट प्रतीक्षा में व्याकुल होने लगा; वैसे ही जैसे अँधेरे में परेशान व्यक्ति सूर्य के प्रकाश की प्रतीक्षा करता है।
लौटती डाक से सोम का उत्तर आया - ...तारीख को नीता के लिये गाड़ी में एक जगह रिजर्व हो गई है। उस दिन हाईकोर्ट में मेरी हाजिरी बहुत आवश्यक है। यहाँ गर्मी अधिक है और बढती ही जा रही है। मैं नीता को और कष्ट नहीं देना चाहता। काठगोदान तक उसके लिए गाड़ी में जगह सुरक्षित है। उसे बस की भीड़ में न फँस कर टैक्सी पर जाने के लिए कह दिया है। तुम उसे मोटर स्टैण्ड पर मिल जाना। तुम हम लोगों के लिये जहाँ सब कुछ कर रहे हो, इतना और सही। हम दोनों कृतज्ञ होंगे ...।
ज़यराज मित्र की सुशिक्षित और सुसंस्कृत पत्नी को परेशानी से बचाने के लिए मोटर स्टैण्ड पर पहुँच कर उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहा था। काठगोदाम से आनेवाली मोटरें पहाड़ी क़े पीछे से जिस मोड़ से सहसा प्रकट होती थीं, उसी ओर जयराज की आँँख निरन्तर लगी हुई थी। एक टैक्सी दिखाई दी। जयराज आगे बढ ग़या। गाड़ी रूक़ी। पिछली सीट पर एक महिला अपने शरीर का बोझ सँभाल न सकने के कारण कुछ पसरी हुई-सी दिखाई दी। चेहरे पर रोग की थकावट का पीलापन और थकावट से फैली हुई निस्तेज आँखों के चारों ओर झाइयों के घेरे थे। ज़यराज ठिठका। महिला की आँखों में पहचान का भाव और नमस्कार में उसके हाथ उठते देख जयराज को स्वीकार करना पड़ा -
मैं जयराज हूँ।
महिला ने मुस्कराने का यत्न किया - मैं नीता हूँ।
महिला की वह मुस्कान ऐसी थी जैसे पीड़ा को दबा कर कर्तव्य पूरा किया गया हो। महिला के साधारणतः दुबले हाथ-पाँवों पर लगभग एक शरीर का बोझ पेट पर बँध जाने के कारण उसे मोटर से उतरने में भी कष्ट हो रहा था। बिखरे जाते अपने शरीर को सँभालने में उसे ही असुविधा हो रही थी जैसे सफर में बिस्तर के बन्द टूट जाने पर उसे सँभलना कठिन हो जाता है। महिला लँगड़ाती हुई कुछ ही कदम चल पायी कि जयराज ने एक डांडी (डोली) को पुकार उसे चार आदमियों के कंधों पर लदवा दिया।
सौजन्य के नाते उसे डांडी के साथ चलना चाहिए था परन्तु उस शिथिल और विरूप आकृति के समीप रहने में जयराज को उबकाई और ग्लानि अनुभव हो रही थी।
नीता बंगले पर पहुँच कर एक अलग कमरे में पलंग पर लेट गई। जयराज के कानों में उस कमरे से निरन्तर आह! ऊँह! की दबी कराहट पहुँच रही थी। उसने दोनों कानों में उँगलियाँ दबा कर कराहट सुनने से बचना चाहा परन्तु उसे शरीर के रोम-रोम से वह कराहट सुनाई दे रही थी। वह नीता की विरूप आकृति, रोग और बोझ से शिथिल, लंगड़ा-लंगड़ा कर चलते शरीर को अपनी स्मृति के पट से पोंछ डालना चाहता था परन्तु वह बरबस आकर उसके सामने खड़ा हो जाता। नीता जयराज को उस मकान के पूरे वातावरण में समा गई अनुभव हो रही थी। जयराज का मन चाह रहा था - बंगले से कहीं दूर भाग जाये।
दूसरे दिन सुबह सूर्य की प्रथम किरणें बरामदे में आ रही थीं। सुबह की हवा में कुछ खुश्की थी। जयराज नीता के कमरे से दूर, बरामदे में आरामकुर्सी पर बैठ गया। नीता भी लगातार लेटने से ऊब कर कुछ ताजी हवा पाने के लिये अपने शरीर को सँभाले, लँगड़ाती-लँगड़ाती बरामदे में दूसरी कुर्सी पर आ बैठी। उसने कराहट को गले में दबा, जयराज को नमस्कार कर हाल-चाल पूछ कर कहा -
मुझे तो शायद सफर की थकावट या नयी जगह के कारण रात नींद नहीं आ सकी ..।
ज़यराज के लिए वहाँ बैठे रहना असम्भव हो गया। वह उठ खड़ा हुआ और कुछ देर में लौटने की बात कह बँगले से निकल गया। परेशानी में वह इस सड़क़ से उस सड़क़ पर मीलों घूमता इस संकट से मुक्ति का उपाय सोचता रहा। छुटकारे के लिए उसका मन वैसे ही तड़प रहा था जैसे चिड़िमार के हाथ में फँस गई चिड़िया फड़फ़ड़ाती है। उसे उपाय सूझा। वह तेज कदमों से डाकखाने पहुँचा। एक तार उसने सोम को दे दिया - अभी बनारस से तार मिला है कि रोग-शैया पर पड़ी माँ मुझे देखने के लिए छटपटा रही हैं। इसी समय बनारस जाना अनिवार्य है। मकान का किराया छः महीने का पेशगी दे दिया है। नौकर यहीं रहेगा। हो सके तो तुम आकर पत्नी के पास रहो।
यह तार दे वह बंगले पर लौटा। नौकर को इशारे से बुलाया। एक सूटकेस में आवश्यक कपड़े ले उसने नौकर को विश्वास दिलाया कि दो दिन के लिये बाहर जा रहा है। सोम को दी हुई तार की नकल अपने जाने के बाद नीता को दिखाने के लिए दे दी और हिदायत की -
बीबी जी को किसी तरह का भी कष्ट न हो।
बनारस में जयराज को रानीखेत से लिखा सोम का पत्र मिला। सोम ने मित्र की माता के स्वास्थ्य के लिये चिन्ता प्रकट की थी और लिखा था कि हाईकोर्ट में अवकाश हो गया है। वह रानीखेत पहुँच गया है। वह और नीता उसके लौट आने की प्रतीक्षा उत्सुकता से कर रहे हैं।
जयराज ने उत्तर में सोम को धन्यवाद देकर लिखा कि वह मकान और नौकर को अपना ही समझ कर निस्संकोच वहाँ रहे। वह स्वयं अनेक कारणों से जल्दी नहीं लौट सकेगा। सोम बार-बार पत्र लिखकर जयराज को बुलाता रहा परन्तु जयराज रानीखेत न लौटा। आखिर सोम मकान और सामान नौकर को सहेज, नीता के साथ इलाहाबाद लौट गया। यह समाचार मिलने पर जयराज ने नौकर को सामान सहित बनारस बुलवा लिया।
जयराज के जीवन में सूनेपन की शिकायत का स्थान अब सौन्दर्य के धोखे के प्रति ग्लानि ने ले लिया। जीवन की विरूपता और वीभत्सता का आतंक उसके मन पर छा गया। नीता का रोग से पीड़ित, बोझिल कराहता हुआ रूप उसकी आँखों के सामने से कभी न हटने की जिद कर रहा था। मस्तिष्क में समायी हुई ग्लानि से छुटकारा पाने का दृढ निश्चय कर वह सीधा कश्मीर पहुँचा। फिर बरफानी चोटियों क बीच कमल के फूलों से घिरी नीली डल झील में शिकारे पर बैठ उसने सौन्दर्य के प्रति अनुराग पैदा करना चाहा। पुरी और केरल में समुद्र के किनारे जा उसने चाँदनी रात में ज्वार-भाटे का दृश्य देखा। जीवन के संघर्ष से गूँजते नगरों में उसने अपने-आप को भुला देना चाहा परन्तु मस्तिष्क में भरे हुए नारी की विरूपता के यथार्थ ने उसका पीछा न छोड़ा। वह बनारस लौट आया और अपने ऊपर किये गये अत्याचार का बदला लेने के लिये रंग और कूची लेकर कैनवेस के सामने जा खड़ा हुआ।
जयराज ने एक चित्र बनाया, पलंग पर लेटी हुई नीता का। उसका पेट फूला हुआ था, चेहरे पर रोग का पीलापन, पीड़ा से फैली हुई आँखें, कराहट में खुल कर मुड़े हुए होंठ, हाथ-पाँव पीड़ा से ऐंठे हुए।
जयराज यह चित्र पूरा कर ही रहा था कि उसे सोम का पत्र मिला। सोम ने अपने पुत्र के नामकरण की तारीख बता कर बहुत ही प्रबल अनुरोध किया था कि उस अवसर पर उसे अवश्य ही इलाहाबाद आना पड़ेग़ा। जयराज ने झुंझलाहट में पत्र को मोड़ क़र फेंक दिया, फिर औचित्य के विचार से एक पोस्टकार्ड लिख डाला - धन्यवाद, शुभकामना और बधाई। आता तो जरूर परन्तु इस समय स्वयं मेरी तबियत ठीक नहीं। शिशु को आशीर्वाद।
सोम और नीता को अपने सम्मानित और कृपालु मित्र का पोस्टकार्ड शनिवार को मिला। रविवार वे दोनों सुबह की गाड़ी से बनारस जयराज के मकान पर जा पहुँचे। नौकर उन्हें सीधे जयराज के चित्र बनाने की टिकटिकी पर ही चढा हुआ था। सोम और नीता की आँखें उस चित्र पर पड़ी और वहीं जम गई।
जयराज अपराध की लज्जा से गड़ा जा रहा था। बहुत देर तक उसे अपने अतिथियों की ओर देखने का साहस ही न हुआ और जब देखा ते नीता गोद में किलकते बच्चे को एक हाथ से कठिनता से सँभाले, दूसरे हाथ से साड़ी क़ा आँचल होठों पर रखे अपनी मुस्कराहट छिपाने की चेष्टा कर रही थी। उसकी आँखें गर्व और हँसी से तारों की तरह चमक रही थीं। लज्जा और पुलक की मिलवट से उसका चेहरा सिंदूरी हो रहा था।
जयराज के सामने खड़ी नीता, रानीखेत में नीता को देखने से पहले और उसके सम्बन्ध में बताई कल्पनाओं से कहीं अधिक सुन्दर थी। जयराज के मन को एक धक्का लगा - ओह धोखा! और उसका मन फिर धोखे की ग्लानि से भर गया।
जयराज ने उस चित्र को नष्ट कर देने के लिए समीप पड़ी छुरी हाथ में उठा ली। उसी समय नीता का पुलक भरा शब्द सुनाई दिया -
इस चित्र का शीर्षक आप क्या रखेंगे?
जयराज का हाथ रूक गया। वह नीता के चेहरे पर गर्व और अभिमान के भाव को देखता स्तब्ध खड़ा था।
कलाकार को अपने इस बहुत ही उत्कृष्ट चित्र के लिए कोई शीर्षक न खोज सकते देख नीता ने अपने बालक को अभिमान से आगे बढा, मुस्कुराकर सुझाया -
इस चित्र का शीर्षक रखिये सृजन की पीड़ा ! 

15.खुदा की मदद

Yashpal ki kahaniya

उबेदुल्ला 'मेव' और सैयद इम्तियाज अहमद हाई स्कूल में एक साथ पढ़ रहे थे। उबेद छुट्टी के दिनों में गाँव जाकर अपने गुजारे के लिये अनाज और कुछ घी ले आता। रहने के लिये उसे इम्तियाज अहमद की हवेली में एक खाली अस्तबल मिल गया था। इम्तियाज का बहुत-सा समय कनकैयाबाजी, बटेरबाजी, सिनेमा देखने और मुजरा सुनने में चला जाता, और कुछ फुटबाल, क्रिकेट में। वालिद साहब कुछ पढ़ने-लिखने के लिये परेशान ही कर देते तो वह पलंग पर लेट कर नाविल पढ़ता-पढ़ता सो जाता। जब इम्तियाज यह सब फन और हुनर पास कर रहा था, उबेद अस्तबल में अपनी खाट पर बैठ तिकोन का क्षेत्रफल निकालने, झ' को ज्ञ' से गुणा कर 'जै से भाग देकर, उसे 'मं और ल' के जोड़ के बराबर प्रमाणित करने और इस देश को ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा दी गई बरकतें याद करने में लगा रहता। इम्तियाज को उबेद का बहुत सहारा था। स्कूल में जब मास्टर लोग घर पर काम करने के लिये दिये गये काम के बारे में सख्ती करने लगते, तो बह उबेद की कापियों की मदद ले मास्टरों की तसल्ली कर देता। उबेद यह सब देखता और सोचता था, 'मेहनत और सब्र का फल एक दिन मिलेगा। खुदा सब कुछ देखता है।'
उबेद मैट्रिक के इम्तिहान में पास हो गया। इम्तियाज के वालिद सैयद मुर्तजा अहमद को काफी दौड़ धूप करनी पड़ी। उनका काफी रसूख था। इम्तियाज भी पास हो गया। उबेद का अपने गाँव में गुजारा मुश्किल था। जमीन इतनी कम थी कि सभी लोग घर पर रहते तो निठल्ले बैठे रहते या खेत में मजदूरी करते। जुताई पर जमीन मिलना भी आसान न था। घर वाले कहते थे, ''इतना पढ़ाया-लिखाया है, तो क्या हल चलवाने के लिये? अगर जमीन से ही सिर मारना था, तो इल्म का फायदा क्या ?'' उबेदुल्ला आगरे में कोशिश करता रहा। कभी भट्टे पर नौकरी मिल जाती, कभी किसी जूते के कारखाने में। तनखाह बीस बाइस रुपये, और फिर नौकरी पक्की नहीं। इतने में इम्तियाज मुरादाबाद से सब इंस्पेक्टरी पास करके आ गया, और उसे अपने ही शहर में नौकरी मिल गई। इम्तियाज ने फिर उबेद की मदद की। उबेद कांस्टेबिल हो गया।
यह ठीक है कि लाल पगड़ी और खाकी वर्दी पहन कर उबेद आम लोग-बाग के सामने हुकूमत दिखा सकता था, लेकिन जान-पहचान के लोगों में, साथ पढ़ने वालों का 'सामना होने पर उसके मुंह में कड़वाहट- सी आ जाती, खास तौर पर जब उसे इम्तियाज के सामने सलूट देनी पड़ी। उसे यह न भूलता कि स्कूल में इग्लियाज उसकी कापियों से नकल किया करता था। लेकिन अगर इनसान के किये ही सब कुछ हो सकता तो खुदा कि हस्ती को इनसान कैसे पहचानता सैयद इम्तियाज
रसूल के खानदान से थे। खैर, कमी तो मेहनत और ईमानदारी का ' नतीजा सामने आयेगा। खुदा सब कुछ देखता है। उबेद की ड्यूटी नाके पर लगती या रात की रौंद में पड़ती तौ चवन्नियों, अठन्नियों को शक में फायदा उठा लेने का मौका रहता। उसके साथ के सब लोग ऐसा करते ही थे। वर्ना अठारह रुपये की कांस्टेबिली में क्या रखा था? पर उबेद नियत न बिगाड़ता। उसे ईमानदारी और मेहनत के अंजाम पर भरोसा था। जब वह एड़ी से पड़ी ठोक कर दारोगा साहब को सलूट देता था तो मन में एक आदर्श की पूजा करता था। यह आदर्श था- सिर की लाल पगड़ी पर लटकता सुनहरा झब्बा, पीतल का चमचमाता ताज, कंधे से कमर तक लगी हुई चमड़े की पेटी। तनख्वाह चाहे अधिक न हो, पर वह सरकार का प्रतिनिधि होगा। इतिहास में उसने कई बादशाहों और खलीफाओं का जिक्र पढ़ा था, जो गरीबी में गुजारा कर इनसाफ करते थे। वैसे ही यह भी करेगा। हिन्दुस्तानी अफसर अकसर कमीनापन करते है। अंग्रेज के हाथ में इनसाफ है। इसीलिये खुदा ने उसे इतना रुतबा दिया है'।
सैयद इम्तियाज अहमद सी० आई० डी. डिपार्टमेंट में हो गये थे। उबेद पढ़ा-लिखा था। उन्होंने उसे भरोसे लायक आदमी समझ अपने नीचे ले लिया। उसे अदना सिपाही की वर्दी से मुक्ति मिली, साइकिल का और दूसरे भत्ते मिलने लगे। दही की जहमत के बजाय उसका काम हो गया खबर लेना-देना। सरकार के सामने उसकी बात का मूल्य था। उस ने एक तथ्य समझा-दादर में जितना आतंक, अपराध और सनसनी हो, सरकार की दृष्टि में उसका मूल्य उतना ही अधिक है। सैयद साहब स्वयं जो चाहे करते ही, लेकिन उन्हें आदमियों की जरूरत थी, जो कम-से कम उन्हें तो धोखा न दे। ऐसे मामलों में अक्सर उबेद की ड्यूटी लगती। मेहनत का नतीजा भी उबेद को मिला। जल्दी ही उसकी वर्दी की आस्तीन पर पहले एक बत्ती, फिर दो लग गई।
इस महकमे में नौकरी करते उसे बरस ही पूरा हुआ था कि सन् ४२ का अगस्त आ गया। जगह-जगह से रेलें और तार के खम्भे उखाड़ दिये जाने ओर आने जला दिये जाने के भयंकर समाचार आने लगे। उबेद को लोग-बाग की आँखों में सरकार के लिये और अपने लिये नफरत और सरकशी दिखाई देने लगी। उसे याद आया, कि स्कूल में सन् 1985 के गदर का हाल पढ़ते समय जाहिरा तारीफ अंग्रेज़ों की ही की जाती थी, लेकिन सभी के मन में मुल्क को आजाद करने के लिये विदेशियों से लड़ने वालों की ही इज्जत थी। मालूम होता था कि फिर वही वक्त 'आ रहा है। लेकिन अब वह' अँग्रेज सरकार का नौकर था। एक बार वह मन में सहमा। अगर रिआया और सरकार की इस पकड़ में सरकार चित्त हो जाय तो उसका क्या होगा उस वक उसने रेडियो पर लाट हैलट साहब का फर्मान सुना। लाट साहब ने कहा-इस वक्त सरकार मुल्क के बाहर दुश्मनों से लड़ रही है। कुछ शरारती और सरकश लोग रिआया को सरकार के खिलाफ भड़का कर अमन में खलल और परेशानियों पैदा कर रहे है। हमारी सरकार को अपनी वफादार रिआया, पुलिस और फौज पर पूरा भरोसा है।
हमारी सरकार के जो अगले इस सरकशी और बदअमनी को खत्म करने में जी-जान से इमदाद करेंगे, सरकार उनकी खिदमतों का मुनासिब एतराफ करेगी। पुलिस और फौज को सरकशी खत्म और अमन कायम करने का फर्ज पूरा करने में जो सख्ती करनी पड़ेगी, उसके लिये सरकारी नौकरों, पुलिस या कौन के खिलाफ कोई शिकायत नहीं सुनी जायगी, न उसकी कोई जाँच पड़ताल होगी।''
उबेद का सीना गज भर का हो गया। बाजारों में 'इन्कलाब जिन्दाबाद' और अंग्रेजी सरकार मुरदाबाद' की आसमान फाड़ देने वाली जनता की चिल्लाहटों और थानों, कचहरियों को जला देने की अफवाहों से थर्राते उबेद के दिल को सांत्वना मिली। उसने सोचा. इधर जिन्दाबाद और मुर्दाबाद की चिल्लाहट और लाखों सरकश है तो हमारे पास भी राइफलों से मुसल्लह गारदें, फौज, तोपखाने और हवाई जहाज हैं। अगर एक बम आगरे पर गिरा दिया जाय तो सरकश रिआया का दिमाग दुरुस्त हो जाय।'
थाने में अधिकतर मुसलमान सिपाही थे। कोतवाल साहब भी मुसलमान थे। उन्होंने रेडियो पर हुआ कायदे आजम का एलान सब सिपाहियों को बताया कि हिन्दू कांग्रेस की इस बगावत का मकसद अंग्रेज सरकार को डरा कर मुल्क में हिन्दू-कांग्रेस का राज कायम करना है। मुसलमानों को इस बगावत से कोई सरोकार नहीं मुसलमान हिन्दू कांग्रेस से डर कर, उनका राज हरगिज कायम न होने देंगे। कोतवाल साहब सिपाहियों को यों भी समझाते रहते थे कि मुसलमान हाकिम कौम है। वे हमेशा मुल्क पर हुकूमत करते आये हैं। इसी आगरे के किले में मुसलमान हकूमत करते थे। अंग्रेज हमेशा मुसलमान का एतबार और इज्जत करता है। ईसाई हमारे अहलेकिताब हैं। खुदा पे अंग्रेज को ओहदा दिया है और हम लोगों को उसकी मदद करने का हुक्म है। यह कांग्रेस के बनिये बक्काल क्या हुकूमत करेंगे? इन्हें चरखा कातना है, तो लहँगा पहन लें और बैठ कर सूत काते। मुसलमान शेर कौम है। हमेशा से गोश्त खाता आया है। अब घास कैसे खाने लगे?
उमेद भी सोचता, 'इन लोगों के राज में हम लोगों का गुजारा कैसे हो सकता है। हम लोग भला इनकी गुलामी करेंगे? रिआया की सरकशी और बगावत की जीत का मतलब है कि पुलिस, फौज और हुकूमत तबाह हो जाय। जैसे हम लोग कुछ है ही नहीं। यानी हम लोग दो रोटी के लिये सिर पर झाबा रखे तरकारी बेचते फिरैं, या इनके लिये इक्के हांकें।' उसने मन ही मन सरकश रिआया को गाली दी और उनके प्रति नफरत से थूक दिया।
उस समय रिआया ने सरकार को जाने क्या समझ लिया था। पटवारियों, तहसीलदारों, जैलदारों, की सब ज्यादतियों और जबरन जंगी चन्दा वसूल किये जाने का बदला लेने के लिये, देहातों में खाली हाथ या ढेला, पत्थर और लाठी ले उठ खड़े हुये। ज्यों-ज्यों जनता का विरोध बढ़ता जा रहा था, सरकार सिपाहियों का लाड़ और खुशामद अधिक कर रही थी। 
यू० पी० के पूर्वी जिलों के देहात में विद्रोह अधिक था। पश्चिम के जिलों से वफादार और समझदार पुलिस को स्थानीय पुलिस की सहायता के लिये भेजा गया। सैयद इम्तियाज अहमद की मातहती में उबेद भी बनारस जिले में गया। विशेष भरोसे का और समझदार होने के नाते उसे सदर की पोशाक में देहाती बन कर सरकशों का पता लगाने का काम सौंपा गया। दिन भर गांव-गांव फिर कर अगर वह सांझ को खबर देता कि सब अम्नोआमान है तो सैयद साहब उसे फटकार देते और रपट लिखते कि 'मातबर जरिये से पता चला है कि पड़ोस का थाना फूंक देने वाले सरकश लोग गांव में छिपे हुये हैं।' रपट में कुछ सरकश बनियों के नाम खास तौर पर रहते। साहब के यहाँ उबेद की कारगुजारी पहुँचने पर उसकी पीठ ठोंकी जाती। गारद जाकर गांव को घेर लेती। एक-एक झोंपड़ी और मकान की तलाशी ली जाती। भगोड़ों का पता पूछने के लिये लोगों को मुश्कें बांध का पीटा जाता, औरतों को नंगी कर देने की धमकी दी जाती। तबीयत होती तो धमकी को पूरी कर दिखा देते। इस मुहिम में पुलिस वालों के हाथ जो लग जाता, थोड़ा था। किसी के घर से घी की हांडी, गुड की भेलिया किसी की अंटी से दो-चार रुपये, किसी औरत के गले या कलाई से चांदी के गहने उतर जाने का क्या पता चलता सिपाहियों ने खूब खाया।
सेरों चांदी की गठरियां उनके थैलों में छिपी रहतीं। किसी घर में छबीली औरत या जबान लड़की की झांकी पा जाते तो घर की तलाशी ले लेते। मर्दों को शक में पकड़ कैम्प में भिजवा देते, औरतों से पूछते, ''बताओ भगोड़े बदमाश कहां छिपे हैं ?'' और उन्हें बांह से घसीट कर अरहर के खेतों में ले जाते। शान्ति कायम करने के लिये पुलिस की इन हरकतों के खिलाफ यदि किसी देहाती के माथे पर वल दिखाई देते तो उसे पेड़ से बांध कर उसके सारे शरीर के बाल झाड़ दिये जाते।
पुलिस अनुभव कर रही थी कि वह वास्तव में राज कर रही है। बदमाशों की खोज-खबर लगाने का काम सरकार की दृष्टि में सब से महत्वपूर्ण था। कटौना का थाना फूंकने वालों का पता लगाने के लिये उबेद को मोहरसिंह के साथ ड्यूटी पर लगाया। रघुनाथ पांडे छ: मास से फरार था। उबेद ने साधु का भेष बनाया और काशी जी में फिरता रहा। वह हाथ देख कर भाग्य बताता, रमल बताता और बात- बात में राज-पलट होने, नये राजा, तालुकदार बनने और ताम्बे का सोना बनाने की बातें करता। इसी तरह बातों-बातों में उसने रघुनाथ पांडे को खोज निकाला और गिरफ्तार करवा दिया।
देश में शान्ति स्थापित हो गई। उबेद आगरा लौट आया और उसकी कारगुजारी के इनाम में उसे हेड कांस्टेबिल का ओहदा मिला। आगरे में भी उसे सियासी फरारों की तालाश के काम पर लगाया गया। यहां उसने कुछ दिन इक्का हांक कर, फरार निर्मल चन्द को गिरफ्तार करा दिया। उसे पूरा भरोसा था कि जल्दी ही सब-इन्सपेक्टरी मिल जायगी।
मुल्क में अमनो-आमान कायम हो गया था पर जाने अँगरेजों को क्या सूझा कि उन्होंने सरकार का काम कांग्रेस वालों को सौंप दिया। अफवाहें उड़ रही थीं कि सब जेल जाने वाले ही अफसर बनेंगे और अंग्रेज सरकार से बअदारी निभाने बालों से बदले लिये जायेंगे। कुछ दिनों में ही इतना परिवर्तन हो गया कि जो गांधी टोपी छिपती फिरती थी, अब अकड़ कर मोटर पर सवार थाने में पहुँचने लगी। लाल पगड़ी को उसके सामने झुक कर सलाम करना पड़ता। अँगरेज सरकार के समय जिन अफसरों का मान था वे अब घबरा रहे थे। पुरानी सरकार के प्रति वफादारी नयी सरकार की निगाह में गद्दारी थी। उबेदुल्ला सोचता था-यह अल्लाह ने क्या किया ?'' पुलिस के बड़े मुसलमान अफसर, सैयद इम्तियाज अहमद और दूसरे साहबान, तुर्की टोपी की जगह किश्तीनुमा टोपियां पहनने लगे, और फिर गांधी टोपी। वे अपने से नीचे ओहदे के सहमे हुए लोगों को समझाते-''अपना फर्ज हे हाकिमेवक्त का वफादार रहना। सियासियत से हमें क्या मतलब?
उबेदुल्ला मन ही मन सोचता कि बेइज्जत होकर बर्खास्त होने से बेहतर है कि बाइज्जत रह खुद इस्तीफा दे दे। इस नयी सरकार को उसकी जरूरत क्या १ खास कर सियासी खुफिया पुलिस की उसे क्या जरूरत 'जब रिआया का अपना राज हो गया तो लोग खुद ही कानून बनायेंगे और उन्हें मानेंगे। कौन बगावत करेगा, जिसे हम पकड़ेंगे? यह जनता की सरकार हमें क्यों पालेगी ?'' 
सरकारी नौकरों और पुलिसों को अपनी मर्जी, से हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में बँट जाने. का मौका दिया गया। उबेद ने सोचा कि इस हिन्दू राज से पाकिस्तान ही चला जाय। बड़े-बड़े मुसलमान अफसर भी ऐसी ही बातें कर रहे थे। पुलिस में मुसलमान ही ज्यादा थे। सब पुलिस अगर पाकिस्तान ही पहुँच जाय तो रिआया से ज्यादा तो पुलिस ही हो जायेगी। बह घबरा रहा था। जिन लोगों की चौकसी कर वह डायरी लिखा करता था, वे लोग अब सरकारी परमिट लाकर बड़े-बड़े कारोबार कर रहे थे। जब तक बड़े लाट लोग अँग्रेज थे, कुछ धीरज था। उम्मीद थी कि शायद फिर दिन फिरें। एक बार पहले भी कांग्रेस सरकार हुई थी, और चली गई। लीग वाले भी जोर बांध रहे थे। लेकिन अगस्त १९४७ में जब लाट भी कांग्रेसी बन गये, तो वह धीरज भी जाता रहा। वह देखता रहता था कि सैयद साहब अब इस या उस कांग्रेसी नेता के यहां मिलने आते-जाते रहते थे और प्राय: जिक्र करते रहते थे, कि उनके मरहम वालिद साहब मौलाना शौकत- अली और मुहम्मदअली के जिगरी दोस्त थे, और खिलाफत तथा कांग्रेस में काम करते रहे हैं। वे तो एक बार लखनऊ भी हो आये थे। उबेद सोचता - "ये तो खानदानी और बड़े आदमी हैं। पहले रसूख के जोर पर ओहदे पर चढ़ गए अब भी इनका गुजारा हो जाएगा।अंग्रेजी सरकार के जमाने में इन्होंने मुसाहबियत के सिवा किया क्या है? लेकिन हमने तो ईमानदारी और नमक हलाली निभाई है। ' ऊपर के दफ्तरों में रिकार्ड' देखे जा रहे होंगे और बर्खास्ती का हुक्म आया ही चाहता है।''
अँग्रेजों ने हिन्दुस्तान का शासन कांग्रेस और लीग को ऐसे समय में सौंपा जब युद्ध के बोझ के कारण देश की आर्थिक अवस्था अस्त- व्यस्त हो चुकी थी। कीमतें चौगुनी चढ़ गई थीं। मुनाफे के लोभ में व्यापारियों ने बाजारों को समेट कर गोदामों में बन्द कर लिया था। सरकार राष्ट्र-निर्माण करना चाहती थी। जनता रोटी मांग रही थी। व्यवसायी लोग दाम नीचे न गिरने देने के लिये माल को तैयारी कम कर रहे थे। जो माल बनता, उसे सरकारी कीमत की मोहर लगवाये बिना चोर-बाजार में खींच लेते! मजदूर अपनी मजदूरी से पेट न भर पाने के कारण मजदूरी बढ़ाने की मांग कर रहे थे। मजदूरी न बढ़ने पर मजदूर हड़ताल की धमकी दे रहे थे। सरकार हड़ताल को राष्ट्र के लिए घातक समझ रही थी। हड़ताल-विरोधी कानून बना दिये गये।
इस पर भी हड़तालें न रुकीं। सरकार कम्युानिस्टों को हड़ताल के लिये जिम्मेवार समझ, गिफ्तार करने लगी। कम्युनिस्ट लोग कांग्रेस और अंग्रेजों की लड़ाई परंपरा के अनुसार स्वयं बिस्तर लेकर थाने में पहुंच आने के बजाय फरार होकर, अपना आन्दोलन चलाने लगे। कम्यूनिस्ट नेताओं को गिरफ्तार करना सरकार के लिये एक समस्या हो गई। मि० चक्रवर्ती अंग्रेज सरकार के जमाने में आतंकवादी लोगों के पडयंत्रों की खोज-खबर लगाने और उन्हें गिरफ्तार करने में काफी कीर्ति कमा चुके थे। नयी सरकार ने उन्हें गुप्तचर विभाग का डी. आई० जी० बनाकर यह काम सौंपा। मि० चक्रबर्ती ने ऐसे पडयंत्रों और अपराधियों को पकड़ने की रसायनिक विधि का उपयोग किया।
जैसे कूजे की मिस्री बनाने के लिये मिस्री की एक डली को चाश्नी में लटका देने से चीनी के कण जल से सिमिट कर एक जगह जम जाते हैं, और उन्हें बाहर कर लिया जाता है, वैसे ही उन्होंने अशान्ति की बात धीमे धीमे करने वाले अपने आदमियों को जनता में छोड़ शरारती लोगों को इकट्ठा कर लेने का उपाय सोच निकाला। .. 
अँग्रेज अफसरों के नौकरी छोड़ विलायत चले जाने के कारण, सैयद साहब को डी० एस० पी० की जगह मिल गई थी। उबेद को सैयद साहब के यहाँ हाजिरी का हुक्म आया। उसे मालूम हुआ कि पिछली कारगुजारी की बुनियाद पर उसे स्पेशल ड्यूदी के लिये चुना गया है। दो काम-खास थे-एक तो पाकिस्तानी एजेंटों का पता लगाना और दूसरा मजदूरी में बदअमनी फैलाने वाले कम्युनिस्टों की खोज। उबेद को धीरज हुआ। सरकार चाहे जो हो, इन्तजाम और निजाम तो रहेगा ही। वह फालतू नहीं हो गया। लेकिन अपने बिरादराने-दीन को वह पकड़ेगा उसने मन को समझाया, 'मजहब और सियासियात अलग अलग चीजें है। हाकिमे वक्त से वफादारी भी तो अल्लाह का हुक्म है। मजहब अपनी जगह है, मुल्क अपनी जगह ।ईरानी और तुर्क, दोनों मुसलमान हैं लेकिन अपने-अपने मुल्क के लिये उनमें जंग होती रही है।' फिर भी उसने कोशिश की कि हड़तालियों की पड़ताल पर ड्यूटी रहे तो अच्छा है। ऐसे आदमियों के खिलाफ उबेद को स्वयं ही क्रोध था। गरीब भले आदमी यों ही कपड़े के बिना मरे जा रहे है, ये बेईमान हड़ताल करके और कपड़ा नहीं बनने देंगे। शहर में बिजली, पानी बन्द करके दुनिया को मार देना चाहते हैं। ऐसे कमीनों का तो यह इलाज ही है कि जूते लगायें और काम लें! कमीने लोग कभी खुशी से काम करते हैं? उसका तो इलाज ही डंडा है।
उबेद को फरार कम्युनिस्टों और मजदूरों में असंतोष फैलाने वाले उपद्रवी लोगों का पता लगाने के लिये कानपुर में नियुक्त किया गया। खुफिया पुलिस के महकमे में उसका नाम सब इंस्पेक्टरों में था। लेकिन वह मैले कपड़े और दुपल्ली टोपी पहने, रोजगार की तलाश में कानपुर के बाजारों में घूम रहा था। कुछ रोज उसने एक मिल के इंजन रूम में खलासी का काम किया और फिर आयलमैन हो गया।
सरकार चाहती थी कि हड़ताल किसी तरह न हो इसलिये शहर में दफा १४४ लगी हुई थी। हुक्म था कि जलसा न हो, जुलूस न निकले। कांग्रेस के नेता कलक्टर साहब की इजाजत से सब-कुछ कर सकते थे। मनाही थी सिर्फ मजदूरों को भड़काने वाले लोगों के लिये जिनसे सरकार को हड़ताल और शान्ति-भंग का अंदेशा था। फिर भी बस्तियों में, पुरवों में मकान की दीवारों पर, सड़कों पर, चूने से, कोयले से और गेरू से मजदूरों के नारे लिखे दिखाई देते, 'चोर. बाजारी बन्द करो! मुनाफाखोरों को फांसी दो ! मजदूरों को मंहगाई भत्ता दो ! रोजी-रोटी दो! बिजली पानी लो! जालिम कानून हटाओ ! मजदूर नेताओं को छोड़ो 1' 
उबेदुल्ला कान खोल कर मजदूरों में फैलती अफवाहें सुनता रहता- महंगाई के लिये हड़ताल जरूर होगी, मीटिंग में बात पक्की हो गई है। कल रात मीटिंग में लीडर आये थे। स्वदेशी वाले, म्योर वाले, जर्टन वाले सब तैयार है। देखें कौन रोकता है? उबेद मिल में शाहिद के नाम से भरती हुआ था। वह इन बातों में बहुत उत्साह दिखाता, मज़दूरों की टोलियों में खूब ऊँचे नारे लगाता। वह सोचता कि गुप- चुप होने वाली मीटिंगों में जा पाए तो असली भेद पाये और फरार नेताओं का सुराग मिले। जाहिर है ऐसे नारे लगा कर भी वह मन में सोचता, 'कमीनों का दिमाग कैसा फिर गया है। अंग्रेज के बराबर कुर्सी पर बैठने वाले, इतने बड़े-बड़े नेताओं की सरकार पलट कर अपनी सरकार बनायेंगे। शरीफ अमीर आदमियों का राज उखाड़ कर कोरियों, पासियों, भंगियों और मजदूरों का राज बनेगा? कैसी बदमाशी की साजिश है। कहते हैं, मजदूर की कमेटियाँ मिलें चलायेगी। मालिक महंगाई बनाये रखने के लिये दो तिहाई मिलें बन्द किये हुए हैं। इन लोगों की चल जाय तो दुनिया पलट जाय? ये लोग छिपे- छिपे कितना जोर बाँध रहे हैं। इनके सैंतालीस नेता फरार हैं। सब कानपुर में है और पता नहीं चलता। पिछली बातों से खतरा और भी बढ़ गया था। इनका एक बड़ा नेता गिरफ्तार हुआ था तो पिस्तौल कारतूस भी बरामद हुए थे। पिस्तौल पसली पर रख कर पिट से कर दें इनका क्या भरोसा है। वह अपनी डायरी देने थाने न जाकर, कर्नेंलगंज में रहने वाले एक खुफिया इंस्पेक्टर के यहाँ जाता था। 
यों तो उबेद का सब इंस्पेक्टरी की तनखाह, ड्यूटी का भत्ता और शाहिद आयलमैन की मजदूरी भी मिल रही थी लेकिन मुसीबत कितनी थी! सिर्फ आयलमैन की मजदूरी में ही गुजारा करना पड़ता। बह आराम के लिये पैसा खर्च करता तो साथ के लोगों को शक हो जाता। चार महीने बीत गए। वह अपनी तनख्वाह लेने भी न जा सका। वह सरकार के खजाने में जमा हो रही थी। सचमुच बुरा हाल था। पेट भी ठीक से नहीं भरता था। चबैना और मूंगफली खाते-खाते खुश्की से दिमाग चकराने लगता था। साफ कपड़े पहनने के लिये जी तरस जाता। वह मजदूरों की बाबत सोचता, 'कमीनों का यह तो हाल है कि रोटियों को तरसते हैं और करेंगे राज! कमबख्तों का यही तो इलाज है कि खाने को न दे और जूतियाँ मार-मार कर काम ले। हमेशा से कायदा ही यह रहा है।' वह अपनी ड्य़ूटी की सख्ती से परेशान था। इतनी मुसीबत अंग्रेज के जमाने में कमी न हुई थी।
एक दिन हद हो गई। शाम के वक्त वह थक कर दीवार की कुनिया से पीठ लगा बैठ गया था। इंजीनियर साहब आ रहे थे। वह देख न पाया इसलिये उठ कर खड़ा न हुआ। इंजीनियर साहब ने उसे ठोकर मार कर गाली दी। उबेदुल्ला ने बड़ी मुश्किल से अपना हाथ रोका। मन में तो कहा, 'बेटा, न हुआ मैं बाहर, नहीं तो हथकड़ी लगवा कर थाने ले जाता और सब शेखी झाडू देता? क्या समझते हो अपने आपको दूसरे जैसे आदमी ही नहीं हैं।' फिर गम खा गया कि बहुत बड़े काम के लिये वह यह सब बर्दाश्त कर रहा है।
रात में दूसरे मजदूरों के साथ दर्शनपुरवा की एक कोठरी में लेटा लेटा वह सोचने लगा। 'कम-से-कम मार-पीट, गाली-गलौज तो न होनी चाहिये। मजदूरों में सब कमीने लोग थोड़े ही हैं। और फिर यहाँ पैसा लेकर मजदूरी करते है, अपने घर चाहे जो हो।' उसे अपने दो भाइयों की बात याद आ गई। एक अहमदाबाद में और दूसरा रतलाम में मजदूरी करने चला गया था। इसी सिलसिले में वह यह भी सोचने लगा, कि कम-से-कम पेट भरने लायक मजदूरी तो मिले! जब सरकार अपनी है, तो उसे हालत ठीक से मालूम होनी चाहिये। मजदूरों की भी सुनी जाय। 
मिल के साथी मजदूरों को शाहिद पर विश्वास हो जाने से उसे हाथ की लिखाई में पर्चे पढ़ने को मिलने लगे। इन पर्चों पर प्रेस का नाम नहीं रहता था। इन पर्चों में सरकार के खिलाफ सरकशी की बातें और जंग का एलान रहता-'.... जो सरकार मुनाफाखोरी, चोर बाजारी के हकों को जायज समझती है, उसके राज में मेहनत करने वाली जनता ' कभी सुखी नहीं हो सकती। व्यापार के नाम पर मुनाफे की लूट केवल किसानों और मजदूरों के राज में खत्म हो सकती है, जब पैदावार मुनाफे के लिये नहीं, जनता की जरूरतें पूरी करने के लिये की जायगी। यह पूंजीपतियों का राज जनता का स्वराज्य नहीं, बल्कि सिर्फ हिन्दुस्तानी और विदेशी मुनाफाखोरों का समझौता है। मेहनत करने वालों का स्वराज्य केवल मेहनत करने वालों की अपनी पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी, ही कायम कर सकती है। कम्युनिस्ट पार्टी मेहनत करने बाली जनता के अधिकारों की रक्षा के लिये इस सरमायादारी हुकूमत के खिलाफ जंग का ऐलान करती है। आप लोग अपने नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिये व्यक्तिगत और सुसंगठित तौर पर लड़ने के लिये तैयार हो जाइये। पुलिस के दमन का मुकाबिला कीजिये। अपने गली, मुहल्लों और अहातों में पुलिस राज समाप्त करके, मेहनत करने वाली जनता का राज कायम कीजिये। आदि आदि। उबेद यह खुली बगावत देख सिहर उठता। दुलीचन्द्र ऐसे पर्चे शाहिद को पढ़ाकर वापस ले लेता था। शाहिद पर्चों को दो बार, तीन बार पढ़कर शब्दों को याद कर लेने की कोशिश करता ताकि बिलकुल सही-सही रिपोर्ट दे सके। अकेले में मन-ही.मन उन्हें दोहराता रहता। 
मन-ही-मन वह सोचता, 'कितनी खुली बगावत है।' और साथ ही यह भी सोचता, इन मजदूरों के ख्याल से बातें भी सही है। लाखों लोग तो इसी हालत में है। उसने एक राज फिसल कर दूसरा राज आता देखा था। वह सोचने लगता, 'क्या तीसरा राज आयेगा ?' जैसे इन दोनों राजों में वह एक ही काम करता आया है, वैसे ही वह करता चला जायगा? तब उसे गल्ले और कपड़े के गोदाम छिपाने वालों का पता लगाना होगा, ऐसे आदमियों की पड़ताल करनी होगी जो रिआया को भूखी और नंगी रखते हैं। ऐसे विचारों से कर्नैलगंज में इंस्पेक्टर साहब के यहां रिपोर्ट लिखाने जाने का उत्साह फीका पड़ने लगा। अब उसे अपना काम बहुत कठिन जान पड़ने लगा। लेकिन बह बड़ी होशियारी से आँख बचा कर। अपनी रिपोर्ट पहुँचाता रहा। बह सरकार का नमक खा रहा था और खुदा के रूबरू हाकिमेवक्त का नौकर था। 
एक दिन दुलीचन्द ने उससे कहा-पाल्टी के मेम्बर क्यों नहीं वन जाते ?'' 
उबेद मन-ही-मन सिहर उठा। लेकिन प्रकट में कहा-बन जायेंगे।'' मन में उसने सोचा कि पार्टी के मेम्बर बन जाने पर ही उसे भीतरी षड्यंत्र का पता चलेगा। दूसरा ख्याल आया कि यह तो अपने ऊपर एतबार करने वालों के साथ दगा होगी। उबेद मन-ही-मन बहुत परेशान हुआ। पार्टी का मेम्बर बनने से इनकार करे तो फर्ज में कोताही और खुदा के रूबरू अपनी सरकार से दगा है और पार्टी का मेम्बर बन कर उसका राज दूसरों को दे तो गरीब साथियों और खुदा की खल्क के साथ दगा है। उसने अपने मन को समझाया कि औवल तो वह सरकार का ही नमक खा रहा है और खुदा ने सरकार को रुतबा दिया है। वह खुदा के इन्साफ में क्यों शक करे? उबेद तो परेशानी में था लेकिन दुलीचन्द को शाहिद जैसे समझदार, पक्के और जोशीले साथी को पार्टी का मेम्बर बनाने की धुन सवार थी। उसने उसे पार्टी का कार्ड दिलवा दिया और एक रात उसे पक्के साथियों की मीटिंग में ले गया। मीटिंग में पन्द्रह-बीस साथी थे, दूसरी-दूसरी मिलों के कामरेड लीडर बता रहे थे - "हड़ताल के मतलब होते हैं, मालिकों की हुकूमत के खिलाफ मजदूरों के मोर्चे को मजबूत करना। मजदूरों का मोर्चा सिर्फ पार्टी के मेम्बरों का मोर्चा नहीं है। मजदूरों का मोर्चा तमाम मेहनत करने वाली जनता का मोर्चा है। पार्टी के मेम्बर इस मोर्चे में राह दिखाते हैं. वे मोर्चे के मालिक नहीं हैं। जो लोग बाबू लोगों से, जमादारों से, पुलिस वालों से अपनी दुश्मनी समझते हैं वे गलती पर हैं और मजदूरों के मोर्चे को नुकसान पहुँचाते हैं। हमारे दुश्मन सिर्फ वे लोग हैं जो जनता की मेहनत को लूटना अपना हक समझते हैं। तबके सिर्फ दो हैं। एक लूटने वाला और दूसरा लुटा जाने वाला। नौकर सब लुटने वाले तबके से हैं। फर्क इतना है कि वे लोग अपनी बिरादरी और समाज को न पहचान कर लूटनो वालों के हाथ बिके हुए हैं। उनकी किस्मत मालिकों के हाथ का खेल है। हमारा मोर्चा मार-पीट, जोर-जुल्म का मोर्चा नहीं है। यह मोर्या पक्के इरादे से अपने हक को पाने का मोर्चा है।''
कामरेड लीडर के चेहरे पर बड़ी हुई मूंछें और कतरी हुई दाढ़ी के बावजूद इंसपेक्टर साहब से मालूम हुए हुलिये से उबेद पहचान गया था कि यह फरार लीडर कामरेड नाथ है। फर्ज पूरा करने के लिये उसने इस मीटिंग की ओर नाथ के बदले हुये हुलिये की रिपोर्ट भी इंसपेक्टर साहब के यहां पहुंचा दी। इसके बाद वह दो और मीटिंगों में भी गया। बड़ी भारी मुकम्मल हड़ताल की तैयारी के लिये गुप्त मीटिंगें बार-बार हो रही थी। इंसपेक्टर साहब का हुक्म था कि ऐसी मीटिंग का समय और स्थान मालूम कर, उबेद वक्त रहते उन्हें खबर दे लेकिन उबेद को मीटिंग का पता ऐसे समय लगता कि खबर दे आने का मौका ही न रहता। पांचवी गुप्त मीटिंग हड़ताल के लिये आखिरी बातें तय करने के लिये की जानी थी। मिल से छुट्टी होते ही शाहिद को कहा गया कि ग्वालटोली के चार साथियों, प्यारे, नोतन, लेह. और नब्बन को खबर दे आये। ग्वाल टोली जाते हुए उबेद कर्नैलगंज में खबर देता गया। इस बात के नतीजे से वह खुद घबरा रहा था। लेकिन खुदा के रूबरू वह अपने फर्ज से कोताही कैसे करता? इस मानसिक परेशानी में वह बार-बार अल्लाह को गुहराता कि वही उसकी मदद करे, उसे गुमराह होने से बचाये।
एक हरीकेन लालटेन की रोशनी थी। अलगनियों पर कपड़े और धर का सामान लाद कर सब लोगों के बैठने के लिये जगह बनाई गई थी। कानपुर के एक लाख मजदूरों और शहर के करोड़पतियों और सरकार में जंग का फैसला हो रहा था-पिकेटिंग के समय कौन लोग देख-भाल करेंगे, लाठी चार्ज होने पर क्या किया जाय? गैरकानूनी जुलूस निकला जाय या नहीं ? दूसरे मजदूरों के दिल से खतरा दूर करने के लिए कौन लोग पहले मार खायें और गिरफ्तार हों? खयाल रखा जाय कि इधर से लोग भड़क कर ईंट पत्थर चलाकर पुलिस को गोली चलाने का मौका न दें।
आधी रात के समय मीटिंग हो रही थी। तीन लीडर आये हुये थे। हड़ताल के लिये कामरेड नाथ आखिरी बातें समझा रहे थे।
उबेद के कानों में साँय साँय हो रहा था। उसका कलेजा धकधक कर रहा था। वह लगातार बीड़ी पर बीड़ी सुलगा रहा था। दूसरे कई लोग भी बीड़ी पी रहे थे। लीडर कामरेड मौलाना ने भूरी आंखें निकाल, डाँट कर कहा-''बीड़ी बुझा दो सब लोग। क्या बेवकूफी करते हो? देखते नहीं हो, दम घुट रहा है? तुम लोग क्या जंग लड़ोगे, जो एक घंटे तक बिना बीड़ी के नहीं रह सकते।'
उबेद बीड़ी फर्श पर दवा कर बुझा रहा था। दूसरे लोगों ने भी बीड़ी बुझा दी। उसी समय पड़ोस से ऊँची पुकार सुनाई दही-भूरे ओ भूरे !''
मौलाना की पीठ तन गई। ''पुलिस आ गई !'' उन्होंने कहा। वे तुरन्त कागज समेटने लगे, और बोले-'जगन कामरेडों को निकाल दो। मोती दरवाजे पर डट जाओ, भीतर न आने देना।''
गड़बड़ मच गई। शाहिद का दिल और भी जोर से धड़कने लगा। दस सेकिंड भी नहीं गुजरे थे कि दरवाजे पर से धमकी सुनाई दी-- ''दरवाजे खोलो। तोड़ दो दरवाजा पिस्तौल की दो गोलियाँ चलने की भी आवाज सुनाई दी। सादे कपड़े पहने पुलिस थी। पुलिस और मजदूरों में हाथापाई हो रही थी। तीन गोलियाँ और चलीं। वर्दी वाली पुलिस भी आ गई।
बारह आदमी गिरफ्तार हो गये। दुलीचन्द के घुटने में और नब्वन की बाँह के डौले में गोली लगी थी। दूसरे लोगों को भी चोटें आई थीं। तीनों लीडर कामरेड निकाल दिये गये थे। पुलिस के लोगों में शाहिद को कोई भी नहीं पहचानता था। उसने भागने की कोशिश भी नहीं की। वह भी गिरफ्तार हो गया। मुहल्ले के बाहर चार पुलिस लारियां खड़ी थी। तीन-तीन गिरफ्तारों को पुलिस के साथ इनमें बन्द किया गया, और बड़ी कोतवाली पहुंच गये। सब लोगों को अलग- अलग बन्द कर दिया गया।
अगले दिन चौथे पहर कर्नैलगंज वाले इंस्पैक्टर साहब और उन से बड़े अफसर आए। उन लोगों ने उबेदुल्ला की कारगुजारी की तारीफ की। उन्होंने कहा - "बड़े बड़े मच्छ तो जाल तोड़ कर निकल गये। कितने बदमाश हैं ये लोग। फिर भी इनके बारह खास आदमी हाथ आ गये हैं। फिलहाल इनकी यह हड़ताल तो न हो सकेगी।''
उन्होंने उबेदुल्ला को समझाया-इन बदमाशों पर मामला चलाया जायगा कि इन्होंने सर अन्जाम में पुलिस के काम में अड़चन डाली, पुलिस से मारपीट की, एक दारोगा और चार कांस्टेबिल को जख्मी किया। लेकिन गवाही सब पुलिस की ही है इसलिये उबेद को सरकारी गवाह बनना पड़ेगा। पन्द्रह बीस दिन की ही तो बात है। जेल में सब आराम का इन्तजाम हो जायगा। घबड़ाने की कोई बात नहीं है। कल उन सब लोगों को जेल की हवालात में भेज दिया जायगा। उबेद के लिए जेल में अलग इन्तजाम हो जायगा, दो-एक रोज में बयान तैयार हो जायगा, और उबेद को वह बयान मैजिस्ट्रेट के सामने देना होगा। बड़े साहब ने कहा है कि इस मामले से छूटने पर उबेद को किसी थाने का इन्चार्ज बना कर पच्छिम में भेज देंगे।
सब गिरफ्तार दंगाइयों को पुलिस से फौजदारी करने की दफा में मुलजिम बनाकर जेल हवालात में भेज दिया गया। उबेद भी जेल भेज दिया गया। लेकिन उसे अलग कोठरी में रखा गया। उस पर खास वार्डर की ड्यूटी थी कि उससे कोई मिलने न पाये। सिर्फ पानी देने वाला, खाना पहुंचाने वाला, अस्पताल की कमान के कैदी और भंगी उसकी कोठरी में आते जाते थे। इन्हीं में से कोई उसे खबर दे गया कि उसके बाकी साथी कह रहे है, कि शाहिद को भी उनके साथ रखा जाय और उसे साथ न रखा जाने पर भूख हड़ताल की तैयारी है।
उबेद परेशान था कि क्या करे। उसने कितने ही मुश्किल काम किये थे लेकिन ऐसी मुसीबत कमी न आई थी। कचहरी में खड़े होकर बह इन लोगों के खिलाफ बयान कैसे देगा? कैसी कैसी गालियां वे लोग इसे देंगे और फिर जेल वे लोग किस बात के लिये जा रहे है?
तीसरे दिन उसकी कोठरी में आने जाने वाले कैदियों की आँख बदली हुई दिखाई दी। उस पर ड्यूटी देने वाले जमादार की आंख बचाकर, एक गैर-पहचाना कैदी उसे गाली देकर और उसकी ओर थूक कर कह गया-''साला मुखबिर है।',
उसी दिन शाम को मजिस्ट्रेट उसका बयान कलमबन्द करने के लिए आए। मजिस्ट्रेट ने उससे कहा--खुदा को हाजिर-नाजिर ज्ञान कर हलफिया सच बयान दो।''
शाहिद ने होंठ दबा लिये।
मैजिस्ट्रेट ने पूछा-''तुम्हारा नाम शाहिद है ?''
'वालिद का नाम
शाहिद चुप रहा।
मजिस्ट्रेट ने धमकाया-''बोलते क्यों नहीं
''साथ खड़े सी० आई० डी० के इंसपेक्टर साहब ने भी कहा- बयान दो अपना। शाहिद ने जबाव दिया- मेरा नाम शाहिद नहीं, मैं खुदा को रूबरू जान कर हलफिया झूठ नहीं बोल सकता।''
मैजिस्ट्रेट ने आश्चर्य से अंग्रेजी में कहा-यह क्या तमाशा है।' सी. आई. डी० के इंस्पेक्टर ने उबेद को समझाया - अरे इस में क्या है यह तो जाब्ते की बात है। कचहरी में खुदा थोड़े ही हाजिर हो सकते है, इसमें क्या रखा है?
उबेद ने हकलाते हुए कहा-''हजूर नौकरी करता हूं, जान दे कर सरकार का नमक हलाल कर सकता हूँ। पर ईमान नहीं बेच सकता। उसने छत की तरफ हाथ उठाया। 'वह दुनिया भी तो है।'
मजिस्ट्रेट साहब ने इंसपेक्टर साहब को डाँट दिया-यह सब क्या फरेब है? मैं ऐसा बयान नहीं लिख सकता। मुझे रिपोर्ट में यह सब लिखना होगा।'
इस परेशानी में बयान न लिखा जा सका।
अगले दिन उसे समझाने के लिये दूसरे अफसर आये। बोले - ''ऐसी नमक-हरामी, गद्दारी करोगे तो सात बरस की नौकरी कार गुजारी, सरकार के यहाँ जमा तनख़्वाह तो जब्त होगी ही साथ ही सरकार की नौकरी में रह कर बगावत करने के जुर्म में फांसी, काले पानी की सजा तक हो सकती है।''
उबेद ने जबाब दिया-''सरकार मालिक है। मैंने गद्दारी नहीं की, है.......... नहीं की, लेकिन खुदा के रूबरू दरोगहलफी करके आकबत नहीं बिगाड़ सकता। यहाँ आप मालिक है, वहाँ वो मालिक है...।''
उबेदुल्ला का मामला आई० जी० साहब के यहाँ गया हुआ था। इसी बीच दूसरे ग्यारह आदमियों पर पुलिस से फौजदारी करने का मामला चल रहा था। पुलिस ही मुद्दई थी और पुलिस ही गवाह।
गवाही माकूल नहीं थी। मामला गिर जाने की आशा थी। मुलजिम लारियों में नारे लगाते हुये अदालत आते जाते ये। मुलजिम के वकील बार-बार शाहिद को अदालत में पेश करने की दरखास्तें दे रहे थे।
पुलिस की तरफ से जवाब था कि शाहिद पर से यह फौजदारी का मामला हटा लिया गया है। वह दूसरे मामले में मफरूर था। उसकी तहकीकात अलग से हो रही है।
मजदूरों को विश्वास था कि कामरेड शाहिद को सरकारी गवाह बनाने के लिये पीटा गया है लेकिन उसने अपने साथियों से गद्दारी करना मंजूर नहीं किया। पुलिस उसे परेशान कर रही है। वे नारे लगाते थे-कामरेड शाहिद जिन्दाबाद! कामरेड शाहिद को रिहा करो''
जेल वालों की चौकसी के बावजूद यह खबर भी उबेद तक पहुंची।
उसकी आंखें खुशी से चमक उठी। उसने अल्लाह को याद कर, दुआ के लिये हाथ फैलाकर कहा-''या खुदा शुक्र तेरा! एक बार तो तेरे नाम ने जिन्दगी में मदद की! यही बहुत है !'' 
11.पर्दा
चौधरी पीरबख्श के दादा चुंगी के महकमे में दारोगा थे । आमदनी अच्छी थी । एक छोटा, पर पक्का मकान भी उन्होंने बनवा लिया । लड़कों को पूरी तालीम दी । दोनों लड़के एण्ट्रेन्स पास कर रेलवे में और डाकखाने में बाबू हो गये । चौधरी साहब की ज़िन्दगी में लडकों के ब्याह और बाल-बच्चे भी हुए, लेकिन ओहदे में खास तरक्की न हुई; वही तीस और चालीस रुपये माहवार का दर्जा ।
अपने जमाने की याद कर चौधरी साहब कहते-''वो भी क्या वक्त थे ! लोग मिडिल पास कर डिप्टी-कलेक्टरी करते थे और आजकल की तालीम है कि एण्ट्रेन्स तक अंग्रेज़ी पढ़कर लड़के तीस-चालीस से आगे नहीं बढ पाते ।'' बेटों को ऊँचे ओहदों पर देखने का अरमान लिये ही उन्होंने आँखें मूंद लीं ।
इंशा अल्ला, चौधरी साहब के कुनबे में बरक्कत हुई । चौधरी फ़ज़ल कुरबान रेलवे में काम करते थे । अल्लाह ने उन्हें चार बेटे और तीन-बेटियां दीं। चौधरी इलाही बख्श डाकखाने में थे । उन्हें भी अल्लाह ने चार बेटे और दो लड़कियाँ बख्शीं ।
चौधरी-खानदान अपने मकान को हवेली पुकारता था । नाम बड़ा देने पर जगह तंग ही रही । दारोगा साहब के जमाने में ज़नाना भीतर था और बाहर बैठक में वे मोढ़े पर बैठ नैचा गुड़गुड़ाया करते । जगह की तंगी की वजह से उनके बाद बैठक भी ज़नाने में शामिल हो गयी और घर की ड्योढ़ी पर परदा लटक गया। बैठक न रहने पर भी घर की इज्जत का ख्याल था, इसलिए पर्दा बोरी के टाट का नहीं, बढ़िया किस्म का रहता ।
ज़ाहिर है, दोनों भाइयों के बाल-बच्चे एक ही मकान में रहने पर भी भीतर सब अलग-अलग था । डयोढ़ी का पर्दा कौन भाई लाये? इस समस्या का हल इस तरह हुआ कि दारोगा साहब के जमाने की पलंग की रंगीन दरियाँ एक के बाद एक डयोढ़ी में लटकाई जाने लगीं ।
तीसरी पीढ़ी के ब्याह-शादी होने लगे । आखिर चौधरी-खानदान की औलाद को हवेली छोड़ दूसरी जगहें तलाश करनी पड़ी । चौधरी इलाही बख्श के बड़े साहबजादे एण्ट्रेन्स पास कर डाकखाने में बीस रुपये की क्लर्की पा गये । दूसरे साहबजादे मिडिल पास कर अस्पताल में कम्पाउण्डर बन गये ।ज्यों-ज्यों जमाना गुजरता जाता, तालीम और नौकरी दोनों मुश्किल होती जातीं तीसरे बेटे होनहार थे । उन्होंने वज़ीफ़ा पाया । जैसे-तैसे मिडिल कर स्कूल में मुदर्रिस हो देहात चले गये ।
चौथे लड़के पीरबख्श प्राइमरी से आगे न बढ़ सके । आजकल की तालीम माँ-बाप पर खर्च के बोझ के सिवा और है क्या? स्कूल की फीस हर महीने, और किताबों, कापियों और नक्शों के लिए रुपये-ही-रुपये!
चौधरी पीरबख्श का भी ब्याह हो गया मौला के करम से बीबी की गोद भी जल्दी ही भरी । पीरबख्श ने रौजगार के तौर पर खानदान की इज्ज़त के ख्याल से एक तेल की मिल में मुंशीगिरी कर लीं । तालीम ज्यादा नहीं तो क्या, सफेदपोश खानदान की इज्ज़त का पास तो था । मजदूरी और दस्तकारी उनके करने की चीजें न थीं । चौकी पर बैठते । कलम-दवात का काम था ।
बारह रुपया महीना अधिक नहीं होता । चौधरी पीरबख्श को मकान सितवा की कच्ची बस्ती में लेना पड़ा । मकान का किराया दो रुपया था । आसपास गरीब और कमीने लोगों की बस्ती थी । कच्ची गली के बीचों-बीच, गली के मुहाने पर लगे कमेटी के नल से टपकते पानी की काली धार बहती रहती, जिसके किनारे घास उग आयी थी । नाली पर मच्छरों और मक्खियों के बादल उमड़ते रहते । सामने रमजानी धोबी की भट्ठी थी, जिसमें से धुँआँ और सज्जी मिले उबलते कपड़ों की गंध उड़ती रहती । दायीं ओर बीकानेरी मोचियों के घर थे । बायीं ओर वर्कशाप में काम करने वाले कुली रहते ।
इस सारी बस्ती में चौधरी पीरबख्श ही पढ़े-लिखे सफ़ेदपोश थे । सिर्फ उनके ही घर की डयोढ़ी पर पर्दा था । सब लोग उन्हें चौधरीजी, मुंशीजी कहकर सलाम करते । उनके घर की औरतों को कभी किसी ने गली में नहीं देखा । लड़कियाँ चार-पाँच बरस तक किसी काम-काज से बाहर निकलती और फिर घर की आबरू के ख्याल से उनका बाहर निकलना मुनासिब न था। पीर बख्श खुद ही मुस्कुराते हुए सुबह-शाम कमेटी के नल से घड़े भर लाते ।
चौधरी की तनख्वाह पद्रह बरस में बारह से अठारह हो गयी । खुदा की बरक्कत होती है, तो रुपये-पैसे की शक्ल में नहीं, आल-औलाद की शक्ल में होती है । पंद्रह बरस में पाँच बच्चे हुए । पहलै तीन लड़कियाँ और बाद में दो लड़के ।
दूसरी लड़की होने को थी तो पीरबख्श की वाल्दा मदद के लिए आयीं । वालिद साहब का इंतकाल हो चुका था । दूसरा कोई भाई वाल्दा की फ़िक्र करने आया नहीं; वे छोटे लड़के के यहाँ ही रहने लगीं ।
जहाँ बाल-बच्चे और घर-बार होता है, सौ किस्म की झंझटें होती ही हैं । कभी बच्चे को तकलीफ़ है, तो कभी ज़च्चा को । ऐसे वक्त में कर्ज़ की जरूरत कैसे न हो ? घर-बार हो, तो कर्ज़ भी होगा ही ।
मिल की नौकरी का कायदा पक्का होता है । हर महीने की सात तारीख को गिनकर तनख्वाह मिल जाती है । पेशगी से मालिक को चिढ़ है । कभी बहुत ज़रूरत पर ही मेहरबानी करते । ज़रूरत पड़ने पर चौधरी घर की कोई छोटी-मोटी चीज़ गिरवी रख कर उधार ले आते । गिरवी रखने से रुपये के बारह आने ही मिलते । ब्याज मिलाकर सोलह ऑने हो जाते और फिर चीज़ के घर लौट आने की सम्भावना न रहती ।
मुहल्ले में चौधरी पीरबख्श की इज्ज़त थी । इज्ज़त का आधार था, घर के दरवाजे़ पर लटका पर्दा । भीतर जो हो, पर्दा सलामत रहता । कभी बच्चों की खींचखाँच या बेदर्द हवा के झोंकों से उसमें छेद हो जाते, तो परदे की आड़ से हाथ सुई-धागा ले उसकी मरम्मत कर देते ।
दिनों का खेल ! मकान की डयोढ़ी के किवाड़ गलते-गलते बिलकुल गल गये । कई दफे़ कसे जाने से पेच टूट गये और सुराख ढीले पड़ गये । मकान मालिक सुरजू पांडे को उसकी फ़िक्र न थी । चौधरी कभी जाकर कहते-सुनते तो उत्तर मिलता--''कौन बड़ी रकम थमा देते हो ? दो रुपल्ली किराया और वह भी छः-छः महीने का बकाया । जानते हो लकड़ी का क्या भाव है । न हो मकान छोड़ जाओ ।'' आखिर किवाड़ गिर गये । रात में चौधरी उन्हें जैसे-तैसे चौखट से टिका देते । रात-भर दहशत रहती कि कहीं कोई चोर न आ जाये ।
12.धर्मयुद्ध
श्री कन्हैयालाल के पारिवारिक क्षेत्र में घटी धर्म-युद्ध की घटना की बात कहने से पहले कुछ भूमिका की आवश्यकता है इसलिये कि गलत-फहमी न हो।
कुरुक्षेत्र में जो धर्मयुद्ध हुआ था उसमें शस्त्रों का यानि गाँधीवाद के दृष्टिकोण से पाशविक बल का ही प्रयोग किया गया था। यों तो सतयुग से लेकर द्वापर तक धर्मयुद्ध का काल रहा है। वह युग आध्यात्मिक और नैतिकता का काल था। सुनते हैं कि उस काल में लोग बहुत शांतिप्रिय और संतुष्ट थे परन्तु सभी सदा सशस्त्र रहते थे। न्याय-अन्याय और उचित-अनुचित का प्रश्न जब भी उठता तो निर्णय शस्त्रों के प्रयोग और रक्तपात से ही होता था। झगड़ा चाहे भाइयों में रहा हो या देव-दानवों में या पति पत्नी में...जैसाकि ऋषि जमदग्नि का अपनी पत्नी से या ऋषियों के समाज में....जैसा कि ब्रह्मर्षि वशिष्ठ और राजर्षि विश्वामित्र में।
इधर ज्यों-ज्यों मानव समाज में आध्यात्मिकता का ह्रास होता गया, लोग निःशस्त्र रहने लगे। झगड़े तो होते ही रहे, होते ही हैं; परन्तु निःशस्त्र होने के कारण लोग नैतिक शक्ति का प्रयोग करने लगे। शस्त्रों के बिना नैतिक शक्ति से न्याय और धर्म के लिये लड़ने का संघर्ष करने की विधि का नाम कालान्तर में सत्याग्रह पड़ गया। सत्याग्रह को ही हम वास्तव में धर्मयुद्ध कह सकते हैं क्योंकि युद्ध की इस विधि में मनुष्य पाशविक बल से नहीं बल्कि आत्म-बलिदान से या धर्म बल से ही न्याय की प्रतिष्ठा का यत्न करता है। श्री कन्हैयालाल के पारिवारिक क्षेत्र में विचारों का संघर्ष धर्मयुद्ध की विधि से ही हुआ था।
कुछ परिचय श्री कन्हैयालाल का भी आवश्यक है। यों तो कन्हैयालाल की स्थिति हमारे दफ्तर के सौ-सौ रुपये माहवार पाने वाले दूसरे बाबुओं के समान ही थी परन्तु उनके व्यवहार में दूसरे सामान्य बाबुओं से भिन्नता थी।
सौ सवासौ रुपये का मामूली आर्थिक आधार होने पर भी उनके व्यवहार में एक बड़प्पन और उदारता थी, जैसी ऊँचे स्तर के बड़े-बाबू लोगों में होती है। वे दस्तखत करते थे ‘के. लाल’ और हाथ मिलाते तो जरा कलाई को झटक कर ओठों पर मुस्कराहट आ जाती-हाओ डू यू डू कहिये क्या हाल है और पूछ बैठते, ह्वाट कैन आई डू फार यू ! (आपके लिये क्या करता सकता हूँ !)’
दफ्तर के कुछ तुनक मिजाज लोग के. लाल के
‘व्हाट कैन आई डू फार यू (आपके लिये मैं क्या कर सकता हूँ)’
प्रश्न पर अपना अपमान भी समझ बैठते और कुछ उनकी इस उदारता का मजाक उड़ा कर उन्हें ‘बास’ (मालिक) पुकारने लगे लेकिन के. लाल के व्यवहार में दूसरों का अपमान करने की भावना नहीं थी। दूसरे को क्षुद्र बनाये बिना ही वे स्वयं बड़प्पन अनुभव करना चाहते थे। इसके लिये हमसे और हमारे पड़ोसी दीना बाबू से कभी किसी प्रतिदान की आशा न होने पर भी उन्होंने कितनी ही बार हमें काफी-हाउस में काफी पिलाई और घर पर भी चाय और शरबत से सत्कार किया। लाल की इस सब उदारता का मूल्य हम इतना ही देते थे कि उन्हें अपने से अधिक बड़ा आदमी और अमीर स्वीकार करते रहते। दफ्तर के चपरासी लाल का आदर लगभग बड़े साहब के समान ही करते थे। लाल के आने पर उनकी साइकिल थाम लेते और छुट्टी के समय साइकिल को झाड़-पोंछ कर आगे बढ़ा देते। कारण यह कि लाल कभी पान या सिगरेट का पैकेट मंगाते तो कभी कभार रुपये में से शेष बचे दाम चपरासी को बख्शीश में दे देते।
हम लोग तो इस दफ्तर में तीन चार बरस से काम कर रहे थे; पचहत्तर रुपये पर काम आरम्भ करके सवासौ तक पहुँच गये थे। दफ्तर की साधारण सालाना तरक्की के अतिरिक्त कोई सुनहरा भविष्य सामने था नहीं। वह आशा भी नहीं थी कि हमें कभी असिस्टेन्ट या मैनेजर बन जाना है परन्तु के. लाल शीघ्र ही किसी ऐसी तरक्की की आशा में थे। तीन-चार मास पूर्व ही वे किसी बड़े आदमी की सिफारिश से दफ्तर में आये थे। प्रायः बड़े आदमियों से मिलने-जुलने की बात इस भाव से करते कि अपने समान आदमियों की ही बात कर रहे हों। अक्सर कह देते ग्राहम ऐण्ड ग्रिण्डले के दफ्तर से उन्हें चार सौ का आफर है अभी सोच रहे हैं....या मैकेन्जी एण्ड विनसन उन्हें तीन सौ तनख्वाह और बिक्री पर तीन प्रतिशत मय फर्स्ट क्लास किराये के देने के लिये तैयार है, लेकिन सोच रहे हैं...।
हमारे दफ्तर में उन्हें लोहे की सलाखों और चादरों के आर्डर बुक करने का काम दिया गया था। इस ड्यूटी के कारण उन्हें दफ्तर के समय की पाबन्दी कम रहती, घूमने फिरने का समय मिलता रहता और वे अपने आप को साधारण बाबुओं से भिन्न समझते। इस काम में कम्पनी को कोई विशेष सफलता उनके आने से नहीं हुई थी इसलिये शीघ्र ही कोई तरक्की पा जाने की लाल की आशा हमें बहुत सार्थक नहीं जान पड़ रही थी परन्तु लाल को अपने उज्ज्वल भविष्य पर अडिग विश्वास था। ऊँचे दर्जे के खर्च से बढ़ते कर्जे की चिन्ता के कारण उनके माथे पर कभी तेवर नहीं देखे गये और न उनके चाय, और सिगरेट आफर प्रस्तुत करने में कोई कमी देखी गयी। उन्हें ज्योतिषी द्वारा बताये अपनी हस्तरेखा के फल पर दृढ़ विश्वास था।
जैसे जंगल में आग लग जाने पर बीहड़ झाड़-झंखार में छिपे जानवरों को मैदानों की ओर भागना पड़ता है और टुच्चे-टुच्चे शिकारियों की भी बन आती है वैसे ही पिछले युद्ध के समय महान् राष्ट्रों को परस्पर संहार के लिये साधारण पदार्थों की अपरिचित आवश्यकता हो गयी थी। सर्वसाधारण जनता तो अभाव से मरने लगी, परन्तु व्यापारी समाज की बन आयी। अब हमारी मिल को ग्राहक और एजेण्ट ढूँढ़ने नहीं पड़ रहे थे बल्कि ग्राहक और एजेण्टों से पीछा छुड़ाना पड़ रहा था। लाल का काम सरल हो गया। उनका काम था मिल के लोहे का कोटा बाँटना और मिल के लिये लाभ की प्रतिशत दर बढ़ाना।
दस्तूरन तो के. लाल की तनख्वाह में कोई अन्तर नहीं आया परन्तु अब वे साइकिल पर पाँव चलाते दफ्तर आने के बजाय ताँगे या रिक्शा पर आते दिखाई देते। ताँगे वाले की ओर रुपया फेंककर बाकी रेजगारी के लिये नहीं बल्कि उनके सलाम का जवाब देने के लिये ही उसकी ओर देखते। कई बार उनके मुख से सेकेण्ड हेन्ड-‘शेवरले’ या ‘वाक्सहाल’ गाड़ी का ट्रायल लेने जाने की बात भी सुनाई दी। अब वे चार-चार, पाँच-पाँच आदमियों को काफी हाउस ले जाने लगे और उम्मुक्त उदारता से पूछते-
‘‘व्हाट बुड यू लाइक टु हैव ? (क्या शौक कीजिएगा)’’
अपने घर पर भी अब वे अधिक निमंत्रण देने लगे। उनके घर जाने पर भी हर बार कोई न कोई नयी चीज दिखाई देती। कमरे का आकार बढ़ नहीं सकता था, इसलिये वह फर्नीचर और सामान से अटा जा रहा था। जगह न रहने पर कुर्सियां सोफाओं के पीछे रख दी गयी थीं और टी टेबलें कार्नर टेबलें और पेग टेबलें मेजों और सोफाओं के नीचे दबानी पड़ रही थीं। मेहमानों के सत्कार में भी अब केवल चायदानी या शरवत का जग ही सामने नहीं आता था। के. लाल तराशे हुए बिल्लौर का डिकेण्टर उपेक्षा से उठाकर आग्रह करते-
‘‘हैव ए डैश आफ ह्विस्की ! (एक दौर ह्विस्की का हो जाय ?)’’
धन्यवाद सहित नकारात्मक उत्तर दे देने पर भी वे अपनी उदारता को समेटने के लिये तैयार न थे; आग्रह करते-तो रम लो। अच्छा गिमलेट।’’
युद्ध के दिनों में कुछ समय वैकाइयों (W. A. C. A. I.) की भी बहार आई थी। सर्वसाधारण लोग बाजार में जवान, चुस्त बेझिझक छोकरियों के दलों को देख कर हैरान थे जैसे नीलगायों का कोई दल नगर की सीमा में फाँद आया हो। सामर्थ्य रखने वाले लोग प्रायः इनकी संगति का प्रदर्शन कर गौरव अनुभव करते थे। ऐसी तीन चार हँसमुखियाँ के. लाल साहब की महफिल में भी शोभा बढ़ाने लगीं।
श्री के. लाल के माता-पिता अपेक्षाकृत रुढ़िवादी हैं। आचार-व्यवहार के सम्बन्ध में उनकी धारणा धर्म पाप और पुण्य के विचारों से बँधी है। अपने एक मात्र पुत्र की सांसारिक समृद्धि से उन्हें सन्तोष और गौरव अनुभव होता था परन्तु उसकी आचार सम्बन्धी उच्छृंखलता से अपना धर्म और परलोक बिगड़ जाने की बात की भी वे उपेक्षा न कर सकते थे। एक दिन माता-पिता और पुत्र की आचार सम्बन्धी धारणाओं में परस्पर-विरोध के कारण धर्मयुद्ध ठन गया।
उस दिन के. लाल ने अन्तरंग मित्र मि. माथुर और वैकाई में काम करने वाली उनकी पत्नी तथा उनकी साली को ‘डिनर’ और ‘काकटेल’ (शराब) पार्टी के लिये निमन्त्रित किया था। इस प्रकार की पार्टियाँ प्रायः होती ही रहती थीं। परन्तु इस सावधानी से कि ऊपर को मंजिल में रसोई-चौके के काम में व्यस्त उनकी माँ और संग्रहणी के रोग से जर्जर खाट पर पड़े उनके पिता को पार्टी की बातचीत और खानपान के ढंग का आभास न हो पाता था। पार्टी के कमरे से रसोई तक सम्बन्ध नौकर या श्रीमती लाल द्वारा ही रहता था। मिसेज लाल सास-ससुर की धार्मिक निष्ठा की अपेक्षा अपने पति के सन्तोष को ही अपना धर्म मानती थी। सास के निर्मम अनुशासन की अपेक्षा पति की उच्छृंखलता उनके लिये अधिक सह्य थी।
उस सन्ध्या ऊपर और नीचे की मंजिलों का प्रबन्ध अलग-अलग रखने के प्रसंग में श्रीमती लाल ने पति से पूछा-
‘‘विद्या और आनन्द का क्या होगा ?’’
के. लाल की बहिन विद्या अपने पति आनन्द सहित आगरे से आकर एक सप्ताह के लिये भाई के यहाँ ठहरी हुई थी। बहिन और बहनोई को मेहमानों से मिलने से रोके रहना सम्भव न था। इसमें आशंका भी थी, क्योंकि विद्या को इस कम उम्र में ही धार्मिकता का गर्व अपनी माँ से कुछ कम न था।
दाँत से नाखून खोंटते हुए लाल ने सलाह दी-‘‘तुम विद्या को समझा दो।’’
‘‘यह मेरे बस का नहीं...।’’ श्रीमती लाल ने दोनों हाथ उठा कर दुहाई दी,
‘‘तुम ही आनन्द को समझा दो वही विद्या को संभाल सकता है।’’
यही तय पाया और लाल ने आनन्द को एक ओर ले जाकर उसके हाथ अपने हाथों में थाम विश्वास और भरोसे के स्वर में समझाया-‘आज मेहमान आ रहे हैं।....मेहमानों के लिये तो करना ही पड़ता है। तुम तो होगे ही। अगर विद्या को एतराज हो तो कुछ समय के लिये टाल देना या उसे समझा दो।....तुम जैसा समझो। विद्या को पहले से समझा देना ठीक होगा। उसे शायद यह बात विचित्र जान पड़े। माता जी के विचार और विश्वास तो तुम जानते ही हो। वह जाकर माता जी को न कुछ कह दे !’’ लाल ने मुस्कराकर अपना पूर्ण विश्वास और भरोसा प्रकट करने के लिये बहनोई के हाथ जरा और जोर से दबा दिये।
आनन्द ने विद्या को एक ओर बुलाकर समझाया-‘‘आजकल के जमाने में यह सब होता ही है। भैया की मजबूरी है....। तुम जानती हो मैं तो कभी पीता नहीं। हमारी वजह से इन लोगों के मेहमानों को क्यों परेशानी हो ? तुम इतना ध्यान रखना कि माता जी को नीचे न आना पड़े।’’ विद्या ने सुना और मानसिक आघात से चुप रह गयी।
मिस्टर माथुर, मिसेज माथुर अपनी साली के साथ जरा विलम्ब से पहुँचे। पार्टी शुरू हो गयी थी। पहला पेग चल रहा था। हँसी-मजाक की दबी-दबी आवाजें ऊपर की मंजिल में पहुँच रही थीं। आनन्द कुछ देर नीचे बैठता और फिर ऊपर जाकर देख आता कि सब ठीक है।
13.दुःख का अधिकार
मनुष्यों की पोशाकें उन्हें विभिन्न श्रेणियों में बांट देती है। प्रायः पोशाक ही समाज में मनुष्य का अधिकार और उसका दर्जा निश्चित करती है। वह हमारे लिए अनेक बन्द दरवाजे खोल देती है परन्तु कभी ऐसी भी परिस्थिति आ जाती है कि हम जरा नीचे झुककर समाज की अनुभूति को समझना चाहते हैं, उस समय वह पोशाक ही बन्धन और बड़प्पन बन जाती है। जैसे वायु की लहरें कटी हुई पतंग को सहसा भूमि पर नहीं गिर जाने देती उसी तरह खास परिस्थितियों में हमारी पोशाक हमें झुक सकने से रोके रहती है।
             बाजार में, फुटपाथ पर कुछ खरबूजे डलिया पर कुछ जमीन पर बिक्री के लिए रखे थे । खरबूजे के समीप एक अधेड़ उम्र की औरत  बैठी रो रही थी ।  खरबूजे बिक्री के लिए थे, परंतु उन्हें खरीदने के लिए कोई कैसे आगे बढ़ता । खरबूजे को बेचने वाली तो कपड़े से मुंह छिपाए सिर को घुटने पर रखे फफक फफक कर रो रही थी।
               पड़ोस की दुकानों के तख्तों पर बैठे या बाजार में खड़े लोग घृणा से उस स्त्री के संबंध में बात कर रहे थे । उस स्त्री का रोना देख कर मन में एक व्यथा सी उठी पर उसके रोने का कारण जानने का उपाय क्या था ।
फुटपाथ पर उसके समीप बैठ सकने में मेरी पोशाक ही व्यवधान बन खड़ी हो गई । एक आदमी ने घृणा से एक तरफ ठोकते हुए कहा , "क्या जमाना है । जवान लड़के को मरे पूरा दिन नहीं बीता और यह बेहया दुकान लगाकर बैठी है ।" दूसरे साहब अपनी दाढ़ी खुजाते हुए कह रहे थे, 'अरे जैसी नियत होती है अल्लाह भी वैसी ही बरकत देता है । सामने के फुटपाथ पर खड़े एक आदमी ने दिया सलाई की तीली से कान खुजाते हुए कहा, 'अरे इन लोगों का क्या है । यह कमीने लोग रोटी के टुकड़े पर जान देते हैं । इनके लिए बेटा-बेटी,खसम, लुगाई ,धर्म-ईमान सब रोटी का टुकड़ा है । परचून की दुकान पर बैठे लाल जी ने कहा, ' अरे भाई उनके लिए मरे जिए का कोई मतलब ना हो पर दूसरे के धर्म ईमान का तो ख्याल रखना चाहिए ।जवान बेटे के मरने पर 13 दिन का सूतक होता है और यहां सड़क पर बाजार में आकर खरबूजे बेचने बैठ गई है । हजार आदमी आते जाते हैं । कोई क्या जानता है कि इसके घर में सूतक है । कोई इसके खरबूजे खा ले ले तो उसका धर्म ईमान कैसे रहेगा? क्या अंधेर है।
पास पड़ोस की दुकानों से पूछने से पता लगा उसका 23 बरस का जवान लड़का था । घर में उसकी बहू और पोता पोती है । लड़का शहर के पास डेढ़ बीघा जमीन में कछियारी करके परिवार का निर्वाह करता था। खरबूजो की डलिया बाजार में पहुंचाकर कभी लड़का स्वयं सौदे के पास बैठ जाता कभी मां बैठ जाती।
      लड़का परसों सुबह मुंह-अंधेरे बेलों में से पके खरबूजे चुन रहा था।  गीली मेड़ की तरावट में विश्राम करते हुए एक सांप पर लड़के का पैर पड़ गया। सांप ने लड़के को डस लिया।
      लड़के की बुढ़िया मां बावली होकर ओझा को बुला लाई झाड़ना फुकना हुआ। नाग देव की पूजा हुई । पूजा के लिए दान दक्षिणा चाहिए । घर में कुछ आटा और अनाज था, दान दक्षिणा में उठ गया। मां बहू और बच्चे भगवाना से लिपट लिपट कर रोए और भगवाना जो एक दफे चुप हुआ तो फिर ना बोला। सर्प के विष से उसका सब बदन काला पड़ गया था।
जिंदा आदमी नंगा भी रह सकता है । परंतु मुर्दे को नंगा कैसे विदा किया जाए। उसके लिए बाजार की दुकान से नया कपड़ा तो लाना ही होगा। चाहे उसके लिए मां के हाथों की छन्नी ककना ही क्यों न बिक जाए भगवाना परलोक चला गया घर में जो कुछ चूनी भूसी थी सोउसे विदा करने में चली गई बाप नहीं रहा तो क्या। लड़के सुबह उठते ही भूख से बिलबिलाने लगे। दादी ने उन्हें खाने के लिए खरबूजे दे दिए ,लेकिन बहू को क्या देती । बहू का बदन बुखार से तवे की तरह तप रहा था। अब बेटे के बिना बुढ़िया को दुवन्नी-चवन्नी भी कौन उधार देता। बुढ़िया रोते-रोते और आंखें पोछते-पोछते भगवाना के बटोरे हुए खरबूजे डलिया में समेटकर बाजार की ओर चली।और चारा भी क्या था?
  बुढ़िया खरबूजे बेचने का साहस करके आई थी, परंतु सिर पर चादर लपेटे हुए फफक-फफक कर रो रही थी।
कल जिसका बेटा चल बसा, आज बाजार में सौदा बेचने चली है, हाय रे पत्थर दिल।
उस पुत्र वियोगिनी के दुःख का अंदाजा लगाने के लिए पिछले साल अपने पड़ोस में पुत्र की मृत्यु से दुखी माता की बात सोचने लगा। वह संभ्रांत महिला पुत्र की मृत्यु के बाद अढ़ाई मास तक पलंग से उथ न सकी थी। उन्हें 15-15  मिनट बाद पुत्र वियोग से मूर्छा आ जाती थी और मूर्छा ना आने की अवस्था में आंखों से आंसू ना रुकते थे। दो-दो डॉक्टर हरदम सिरहाने बैठे रहते थे । हरदम सिर पर बर्फ रखी जाती थी। शहर भर के लोगों के मन उस पुत्र शॉप से द्रवित हो उठते थे।
      जब मन को सूझ का रास्ता नहीं मिलता तो बेचैनी से कदम तेज हो जाते हैं । उसी हालत में नाक ऊपर उठाए राह चलने से ठोकरें खाता मैं चला जा रहा था । सोच रहा था .......
शोक करने,गम मनाने के लिए भी सहूलियत चाहिए और... दुखी होने का भी एक अधिकार होता है ।
14.चित्र का शीर्षक
जयराज जाना-माना चित्रकार था। वह उस वर्ष अपने चित्रों को प्रकृति और जीवन के यथार्थ से सजीव बना सकने के लिये, अप्रैल के आरम्भ में ही रानीखेत जा बैठा था। उन महिनों पहाड़ों में वातावरण खूब साफ और आकाश नीला रहता है। रानीखेत से त्रिशूल , पंचचोली और चौखम्बा की बरफानी चोटियाँ, नीले आकाश के नीचे माणिक्य के उज्ज्वल स्तूपों जैसीं जान पड़ती है। आकाश की गहरी नीलिमा से कल्पना होती कि गहरा नीला समुद्र उपर चढ क़र छत की तरह स्थिर हो गया हो और उसका श्वेत फेन, समुद्र के गर्भ से मोतियों और मणियों को समेट कर ढेर का ढेर नीचे पहाड़ों पर आ गिरा हो।
जयराज ने इन दृष्यों के कुछ चित्र बनाये परन्तु मन न भरा। मनुष्य के संसर्ग से हीन यह चित्र बनाकर उसे ऐसा ही अनुभव हो रहा था जैसे निर्जन बियाबान में गाये राग का चित्र बना दिया हो। यह चित्र उसे मनुष्य की चाह और अनुभव के स्पन्दन से शून्य जान पड़ते थे। उसने कुछ चित्र, पहाड़ों पर पसलियों की तरह फैले हुए खेतों में श्रम करते पहाड़ी किसान स्त्री-पुरूषों के बनाये। उसे इन चित्रों से भी सन्तोष न हुआ। कला की इस असफलता से अपने हृदय में एक हाय-हाय का सा शोर अनुभव हो रहा था। वह अपने स्वप्न और चाह की बात प्रकट नहीं कर पा रहा था।
जयराज अपने मन की तड़प को प्रकट कर सकने के लिए व्याकुल था।
वह मुठ्ठी पर ठोडी टिकाये बरामदे में बैठा था। उसकी दृष्टि दूर-दूर तक फैली हरी घाटियों पर तैर रही थी। घाटियों के उतारों-चढावों पर सुनहरी धूप खेल रही थी। गहराइयों में चाँदी की रेखा जैसी नदियाँ कुण्डलियाँ खोल रही थीं। दूध के फेन जैसी चोटियाँ खड़ी थीं। कोई लक्ष्य न पाकर उसकी दृष्टि अस्पष्ट विस्तार पर तैर रही थी। उस समय उसकी स्थिर आँखों के छिद्रों से सामने की चढाई पर एक सुन्दर, सुघड़ युवती को देखने लगी जो केवल उसकी दृष्टि का लक्ष्य बन सकने के लिए ही, उस विस्तार में जहाँ-तहाँ, सभी जगह दिखाई दे रही थी।
जयराज ने एक अस्पष्ट-सा आश्वासन अनुभव किया। इस अनुभूति को पकड़ पाने के लिये उसने अपनी दृष्टि उस विस्तार से हटा, दोनों बाहों को सीने पर बाँध कर एक गहरा निश्वास लिया। उसे जान पड़ा जैसे अपार पारावार में बहता निराश व्यक्ति अपनी रक्षा के लिये आने वाले की पुकार सुन ले। उसने अपने मन में स्वीकार किया, यही तो वह चाहता है :- कल्पना से सौन्दर्य की सृष्टि कर सकने के लिये उसे स्वयं भी जीवन में सौन्दर्य का सन्तोष मिलना चाहिये; बिना फूलों के मधुमक्खी मधु कहाँ से लाये? ऐसी ही मानासिक अवस्था में जयराज को एक पत्र मिला। यह पत्र इलाहाबाद से उसके मित्र एडवोकेट सोमनाथ ने लिखा था। सोमनाथ ने जयराज का परिचय उसकी कला के प्रति अनुराग और आदर के कारण प्राप्त किया था। कुछ अपनापन भी हो गया था। सोम ने अपने उत्कृष्ट कलाकार मित्र के बहुमूल्य समय का कुछ भाग लेने की घृष्टता के लिये क्षमा माँग कर अपनी पत्नी के बारे में लिखा था -
...इस वर्ष नीता का स्वास्थ्य कुछ शिथिल हैं, उसे दो मास पहाड़ में रखना चाहता हूँ। इलाहाबाद की कड़ी ग़र्मी में वह बहुत असुविधा अनुभव कर रही है। यदि तुम अपने पड़ोस में ही किसी सस्ते, छोटे परन्तु अच्छे मकान का प्रबन्ध कर सको तो उसे वहाँ पहुँचा दूँ। सम्भवतः तुमने अलग पूरा बँगला लिया होगा। यदि उस मकान में जगह हो और इससे तुम्हारे काम में विघ्न पड़ने की आशंका न हो तो हम एक-दो कमरे सबलेट कर लेंगे। हम अपने लिए अलग नौकर रख लेंगे .. आदि-आदि।
दो वर्ष पूर्व जयराज इलाहाबाद गया था। उस समय सोम ने उसके सम्मान में एक चाय-पार्टी दी थी। उस अवसर पर जयराज ने नीता को देखा था और नीता का विवाह हुए कुछ ही मास बीते थे। पार्टी में आये अनेक स्त्री-पुरूष के भीड़-भड़क्के में संक्षिप्त परिचय ही हो पाया था। जयराज ने स्मृति को ऊँगली से अपने मस्तिष्क को कुरेदा। उसे केवल इतना याद आया कि नीता दुबली-पतली, छरहरे बदन की गोरी, हँसमुख नवयुवती थी; आँखों में बुध्दि की चमक। जयराज ने पत्र को तिपाई पर एक ओर दबा दिया और फिर सामने घाटी के विस्तार पर निरूद्देश्य नजर किये सोचने लगा - क्या उत्तर दे?
जयराज की निरूद्देश्य दृष्टि तो घाटी के विस्तार पर तैर रही थी परन्तु कल्पना में अनुभव कर रहा था कि उसके समीप ही दूसरी आराम कुर्सी पर नीता बैठी है। वह भी दूर घाटी में कुछ देख रही है या किसी पुस्तक के पन्नों या अखबार में दृष्टि गड़ाये है। समीप बैठी युवती नारी की कल्पना जयराज को दूध के फेन के समान श्वेत, स्फटिक के समान उज्ज्वल पहाड़ क़ी बरफानी चोटी से कहीं अधिक स्पन्दन उत्पन्न करने वाली जान पड़ी। युवती के केशों और शरीर से आती अस्पष्ट-सी सुवास, वायु के झोकों के साथ घाटियों से आती बत्ती और शिरीष के फूलों की भीनी गन्ध से अधिक सन्तोष दे रही थी। वह अपनी कल्पना में देखने लगा - नीता उसकी आँखों के सामने घाटी की एक पहाड़ी पर चढती जा रही है। कड़े पत्थरों और कंकड़ों के ऊपर नीता की गुलाबी एड़ियाँ, सैन्डल में सँभली हुई हैं। वह चढाई में साड़ी क़ो हाथ से सँभाले हैं। उसकी पिंडलियाँ केले के भीतर के डंठल के रंग की हैं, चढाई के श्रम के कारण नीता की साँस चढ ग़ई है और प्रत्येक साँस के साथ उसका सीना उठ आने के कारण, कमल की प्रस्फुटनोन्मुख कली की तरह अपने आवरण को फाड़ देना चाहता है। कल्पना करने लगा - वह कैनवैस के सामने खड़ा चित्र बना रहा है।
नीता एक कमरे से निकली है। आहट ले उसके कान में विघ्न न डालने क लिए पंजों के बल उसके पीछे से होती हुई दूसरे कमरे में चली जा रही है। नीता किसी काम से नौकर को पुकार रही है। उस आवाज से उसके हृदय का साँय-साँय करता सूनापन सन्तोष से बस गया है ...।
ज़यराज तुरन्त कागज और कलम ले उत्तर लिखने बैठा परन्तु ठिठक कर सोचने लगा - वह क्या चाहता है? ...मित्र की पत्नी नीता से वह क्या चाहेगा? . .तटस्थता से तर्क कर उसने उत्तर दिया - कुछ भी नहीं। जैसे सूर्य के प्रकाश में हम सूर्य की किरणों को पकड़ लेने की आवश्यकता नहीं समझते, उन किरणों से स्वयं ही हमारी आवश्यकता पूरी हो जाती है; वैसे ही वह अपने जीवन में अनुभव होने वाले सुनसान अँधेरे में नारी की उपस्थिति का प्रकाश चाहता है।
जयराज ने संक्षिप्त-सा उत्तर लिखा - ...भीड़-भाड़ से बचने के लिए अलग पूरा ही बंगला लिया है। बहुत-सी जगह खाली पड़ी है। सबलेट-का कोई सवाल नहीं। पुराना नोकर पास है। यदि नीताजी उस पर देख-रेख रखेंगी तो मेरा ही लाभ होगा। जब सुविधा हो आकर उन्हें छोड़ ज़ाओ। पहुँचने के समय की सूचना देना। मोटर स्टैन्ड पर मिल जाऊँगा ...।
अपनी आँखों के सामने और इतने समीप एक तरूण सुन्दरी के होने की आशा में जयराज का मन उत्साह से भर गया। नीता की अस्पष्ट-सी याद को जयराज ने कलाकार के सौन्दर्य के आदेशों की कल्पनाओं से पूरा कर लिया। वह उसे अपने बरामदे में, सामने की घाटी पर, सड़क़ पर अपने साथ चलती दिखाई देने लगी। जयराज ने उसे भिन्न-भिन्न रंगों की साड़ियों में, सलवार-कमीज के जोड़ों की पंजाबी पोशाक में, मारवाड़ी अँगिया-लहंगे में फूलों से भरी लताओं के कुंज में, चीड़ क़े पेड़ क़े तले और देवदारों की शाखाओं की छाया में सब जगह देख लिया। वह नीता के सशरीर सामने आ जाने की उत्कट प्रतीक्षा में व्याकुल होने लगा; वैसे ही जैसे अँधेरे में परेशान व्यक्ति सूर्य के प्रकाश की प्रतीक्षा करता है।
लौटती डाक से सोम का उत्तर आया - ...तारीख को नीता के लिये गाड़ी में एक जगह रिजर्व हो गई है। उस दिन हाईकोर्ट में मेरी हाजिरी बहुत आवश्यक है। यहाँ गर्मी अधिक है और बढती ही जा रही है। मैं नीता को और कष्ट नहीं देना चाहता। काठगोदान तक उसके लिए गाड़ी में जगह सुरक्षित है। उसे बस की भीड़ में न फँस कर टैक्सी पर जाने के लिए कह दिया है। तुम उसे मोटर स्टैण्ड पर मिल जाना। तुम हम लोगों के लिये जहाँ सब कुछ कर रहे हो, इतना और सही। हम दोनों कृतज्ञ होंगे ...।
ज़यराज मित्र की सुशिक्षित और सुसंस्कृत पत्नी को परेशानी से बचाने के लिए मोटर स्टैण्ड पर पहुँच कर उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहा था। काठगोदाम से आनेवाली मोटरें पहाड़ी क़े पीछे से जिस मोड़ से सहसा प्रकट होती थीं, उसी ओर जयराज की आँँख निरन्तर लगी हुई थी। एक टैक्सी दिखाई दी। जयराज आगे बढ ग़या। गाड़ी रूक़ी। पिछली सीट पर एक महिला अपने शरीर का बोझ सँभाल न सकने के कारण कुछ पसरी हुई-सी दिखाई दी। चेहरे पर रोग की थकावट का पीलापन और थकावट से फैली हुई निस्तेज आँखों के चारों ओर झाइयों के घेरे थे। ज़यराज ठिठका। महिला की आँखों में पहचान का भाव और नमस्कार में उसके हाथ उठते देख जयराज को स्वीकार करना पड़ा -
मैं जयराज हूँ।
महिला ने मुस्कराने का यत्न किया - मैं नीता हूँ।
महिला की वह मुस्कान ऐसी थी जैसे पीड़ा को दबा कर कर्तव्य पूरा किया गया हो। महिला के साधारणतः दुबले हाथ-पाँवों पर लगभग एक शरीर का बोझ पेट पर बँध जाने के कारण उसे मोटर से उतरने में भी कष्ट हो रहा था। बिखरे जाते अपने शरीर को सँभालने में उसे ही असुविधा हो रही थी जैसे सफर में बिस्तर के बन्द टूट जाने पर उसे सँभलना कठिन हो जाता है। महिला लँगड़ाती हुई कुछ ही कदम चल पायी कि जयराज ने एक डांडी (डोली) को पुकार उसे चार आदमियों के कंधों पर लदवा दिया।
सौजन्य के नाते उसे डांडी के साथ चलना चाहिए था परन्तु उस शिथिल और विरूप आकृति के समीप रहने में जयराज को उबकाई और ग्लानि अनुभव हो रही थी।
नीता बंगले पर पहुँच कर एक अलग कमरे में पलंग पर लेट गई। जयराज के कानों में उस कमरे से निरन्तर आह! ऊँह! की दबी कराहट पहुँच रही थी। उसने दोनों कानों में उँगलियाँ दबा कर कराहट सुनने से बचना चाहा परन्तु उसे शरीर के रोम-रोम से वह कराहट सुनाई दे रही थी। वह नीता की विरूप आकृति, रोग और बोझ से शिथिल, लंगड़ा-लंगड़ा कर चलते शरीर को अपनी स्मृति के पट से पोंछ डालना चाहता था परन्तु वह बरबस आकर उसके सामने खड़ा हो जाता। नीता जयराज को उस मकान के पूरे वातावरण में समा गई अनुभव हो रही थी। जयराज का मन चाह रहा था - बंगले से कहीं दूर भाग जाये।
दूसरे दिन सुबह सूर्य की प्रथम किरणें बरामदे में आ रही थीं। सुबह की हवा में कुछ खुश्की थी। जयराज नीता के कमरे से दूर, बरामदे में आरामकुर्सी पर बैठ गया। नीता भी लगातार लेटने से ऊब कर कुछ ताजी हवा पाने के लिये अपने शरीर को सँभाले, लँगड़ाती-लँगड़ाती बरामदे में दूसरी कुर्सी पर आ बैठी। उसने कराहट को गले में दबा, जयराज को नमस्कार कर हाल-चाल पूछ कर कहा -
मुझे तो शायद सफर की थकावट या नयी जगह के कारण रात नींद नहीं आ सकी ..।
ज़यराज के लिए वहाँ बैठे रहना असम्भव हो गया। वह उठ खड़ा हुआ और कुछ देर में लौटने की बात कह बँगले से निकल गया। परेशानी में वह इस सड़क़ से उस सड़क़ पर मीलों घूमता इस संकट से मुक्ति का उपाय सोचता रहा। छुटकारे के लिए उसका मन वैसे ही तड़प रहा था जैसे चिड़िमार के हाथ में फँस गई चिड़िया फड़फ़ड़ाती है। उसे उपाय सूझा। वह तेज कदमों से डाकखाने पहुँचा। एक तार उसने सोम को दे दिया - अभी बनारस से तार मिला है कि रोग-शैया पर पड़ी माँ मुझे देखने के लिए छटपटा रही हैं। इसी समय बनारस जाना अनिवार्य है। मकान का किराया छः महीने का पेशगी दे दिया है। नौकर यहीं रहेगा। हो सके तो तुम आकर पत्नी के पास रहो।
यह तार दे वह बंगले पर लौटा। नौकर को इशारे से बुलाया। एक सूटकेस में आवश्यक कपड़े ले उसने नौकर को विश्वास दिलाया कि दो दिन के लिये बाहर जा रहा है। सोम को दी हुई तार की नकल अपने जाने के बाद नीता को दिखाने के लिए दे दी और हिदायत की -
बीबी जी को किसी तरह का भी कष्ट न हो।
बनारस में जयराज को रानीखेत से लिखा सोम का पत्र मिला। सोम ने मित्र की माता के स्वास्थ्य के लिये चिन्ता प्रकट की थी और लिखा था कि हाईकोर्ट में अवकाश हो गया है। वह रानीखेत पहुँच गया है। वह और नीता उसके लौट आने की प्रतीक्षा उत्सुकता से कर रहे हैं।
जयराज ने उत्तर में सोम को धन्यवाद देकर लिखा कि वह मकान और नौकर को अपना ही समझ कर निस्संकोच वहाँ रहे। वह स्वयं अनेक कारणों से जल्दी नहीं लौट सकेगा। सोम बार-बार पत्र लिखकर जयराज को बुलाता रहा परन्तु जयराज रानीखेत न लौटा। आखिर सोम मकान और सामान नौकर को सहेज, नीता के साथ इलाहाबाद लौट गया। यह समाचार मिलने पर जयराज ने नौकर को सामान सहित बनारस बुलवा लिया।
जयराज के जीवन में सूनेपन की शिकायत का स्थान अब सौन्दर्य के धोखे के प्रति ग्लानि ने ले लिया। जीवन की विरूपता और वीभत्सता का आतंक उसके मन पर छा गया। नीता का रोग से पीड़ित, बोझिल कराहता हुआ रूप उसकी आँखों के सामने से कभी न हटने की जिद कर रहा था। मस्तिष्क में समायी हुई ग्लानि से छुटकारा पाने का दृढ निश्चय कर वह सीधा कश्मीर पहुँचा। फिर बरफानी चोटियों क बीच कमल के फूलों से घिरी नीली डल झील में शिकारे पर बैठ उसने सौन्दर्य के प्रति अनुराग पैदा करना चाहा। पुरी और केरल में समुद्र के किनारे जा उसने चाँदनी रात में ज्वार-भाटे का दृश्य देखा। जीवन के संघर्ष से गूँजते नगरों में उसने अपने-आप को भुला देना चाहा परन्तु मस्तिष्क में भरे हुए नारी की विरूपता के यथार्थ ने उसका पीछा न छोड़ा। वह बनारस लौट आया और अपने ऊपर किये गये अत्याचार का बदला लेने के लिये रंग और कूची लेकर कैनवेस के सामने जा खड़ा हुआ।
जयराज ने एक चित्र बनाया, पलंग पर लेटी हुई नीता का। उसका पेट फूला हुआ था, चेहरे पर रोग का पीलापन, पीड़ा से फैली हुई आँखें, कराहट में खुल कर मुड़े हुए होंठ, हाथ-पाँव पीड़ा से ऐंठे हुए।
जयराज यह चित्र पूरा कर ही रहा था कि उसे सोम का पत्र मिला। सोम ने अपने पुत्र के नामकरण की तारीख बता कर बहुत ही प्रबल अनुरोध किया था कि उस अवसर पर उसे अवश्य ही इलाहाबाद आना पड़ेग़ा। जयराज ने झुंझलाहट में पत्र को मोड़ क़र फेंक दिया, फिर औचित्य के विचार से एक पोस्टकार्ड लिख डाला - धन्यवाद, शुभकामना और बधाई। आता तो जरूर परन्तु इस समय स्वयं मेरी तबियत ठीक नहीं। शिशु को आशीर्वाद।
सोम और नीता को अपने सम्मानित और कृपालु मित्र का पोस्टकार्ड शनिवार को मिला। रविवार वे दोनों सुबह की गाड़ी से बनारस जयराज के मकान पर जा पहुँचे। नौकर उन्हें सीधे जयराज के चित्र बनाने की टिकटिकी पर ही चढा हुआ था। सोम और नीता की आँखें उस चित्र पर पड़ी और वहीं जम गई।
जयराज अपराध की लज्जा से गड़ा जा रहा था। बहुत देर तक उसे अपने अतिथियों की ओर देखने का साहस ही न हुआ और जब देखा ते नीता गोद में किलकते बच्चे को एक हाथ से कठिनता से सँभाले, दूसरे हाथ से साड़ी क़ा आँचल होठों पर रखे अपनी मुस्कराहट छिपाने की चेष्टा कर रही थी। उसकी आँखें गर्व और हँसी से तारों की तरह चमक रही थीं। लज्जा और पुलक की मिलवट से उसका चेहरा सिंदूरी हो रहा था।
जयराज के सामने खड़ी नीता, रानीखेत में नीता को देखने से पहले और उसके सम्बन्ध में बताई कल्पनाओं से कहीं अधिक सुन्दर थी। जयराज के मन को एक धक्का लगा - ओह धोखा! और उसका मन फिर धोखे की ग्लानि से भर गया।
जयराज ने उस चित्र को नष्ट कर देने के लिए समीप पड़ी छुरी हाथ में उठा ली। उसी समय नीता का पुलक भरा शब्द सुनाई दिया -
इस चित्र का शीर्षक आप क्या रखेंगे?
जयराज का हाथ रूक गया। वह नीता के चेहरे पर गर्व और अभिमान के भाव को देखता स्तब्ध खड़ा था।
कलाकार को अपने इस बहुत ही उत्कृष्ट चित्र के लिए कोई शीर्षक न खोज सकते देख नीता ने अपने बालक को अभिमान से आगे बढा, मुस्कुराकर सुझाया -
इस चित्र का शीर्षक रखिये सृजन की पीड़ा ! 
15.खुदा की मदद
उबेदुल्ला 'मेव' और सैयद इम्तियाज अहमद हाई स्कूल में एक साथ पढ़ रहे थे। उबेद छुट्टी के दिनों में गाँव जाकर अपने गुजारे के लिये अनाज और कुछ घी ले आता। रहने के लिये उसे इम्तियाज अहमद की हवेली में एक खाली अस्तबल मिल गया था। इम्तियाज का बहुत-सा समय कनकैयाबाजी, बटेरबाजी, सिनेमा देखने और मुजरा सुनने में चला जाता, और कुछ फुटबाल, क्रिकेट में। वालिद साहब कुछ पढ़ने-लिखने के लिये परेशान ही कर देते तो वह पलंग पर लेट कर नाविल पढ़ता-पढ़ता सो जाता। जब इम्तियाज यह सब फन और हुनर पास कर रहा था, उबेद अस्तबल में अपनी खाट पर बैठ तिकोन का क्षेत्रफल निकालने, झ' को ज्ञ' से गुणा कर 'जै से भाग देकर, उसे 'मं और ल' के जोड़ के बराबर प्रमाणित करने और इस देश को ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा दी गई बरकतें याद करने में लगा रहता। इम्तियाज को उबेद का बहुत सहारा था। स्कूल में जब मास्टर लोग घर पर काम करने के लिये दिये गये काम के बारे में सख्ती करने लगते, तो बह उबेद की कापियों की मदद ले मास्टरों की तसल्ली कर देता। उबेद यह सब देखता और सोचता था, 'मेहनत और सब्र का फल एक दिन मिलेगा। खुदा सब कुछ देखता है।'
उबेद मैट्रिक के इम्तिहान में पास हो गया। इम्तियाज के वालिद सैयद मुर्तजा अहमद को काफी दौड़ धूप करनी पड़ी। उनका काफी रसूख था। इम्तियाज भी पास हो गया। उबेद का अपने गाँव में गुजारा मुश्किल था। जमीन इतनी कम थी कि सभी लोग घर पर रहते तो निठल्ले बैठे रहते या खेत में मजदूरी करते। जुताई पर जमीन मिलना भी आसान न था। घर वाले कहते थे, ''इतना पढ़ाया-लिखाया है, तो क्या हल चलवाने के लिये? अगर जमीन से ही सिर मारना था, तो इल्म का फायदा क्या ?'' उबेदुल्ला आगरे में कोशिश करता रहा। कभी भट्टे पर नौकरी मिल जाती, कभी किसी जूते के कारखाने में। तनखाह बीस बाइस रुपये, और फिर नौकरी पक्की नहीं। इतने में इम्तियाज मुरादाबाद से सब इंस्पेक्टरी पास करके आ गया, और उसे अपने ही शहर में नौकरी मिल गई। इम्तियाज ने फिर उबेद की मदद की। उबेद कांस्टेबिल हो गया।
यह ठीक है कि लाल पगड़ी और खाकी वर्दी पहन कर उबेद आम लोग-बाग के सामने हुकूमत दिखा सकता था, लेकिन जान-पहचान के लोगों में, साथ पढ़ने वालों का 'सामना होने पर उसके मुंह में कड़वाहट- सी आ जाती, खास तौर पर जब उसे इम्तियाज के सामने सलूट देनी पड़ी। उसे यह न भूलता कि स्कूल में इग्लियाज उसकी कापियों से नकल किया करता था। लेकिन अगर इनसान के किये ही सब कुछ हो सकता तो खुदा कि हस्ती को इनसान कैसे पहचानता सैयद इम्तियाज
रसूल के खानदान से थे। खैर, कमी तो मेहनत और ईमानदारी का ' नतीजा सामने आयेगा। खुदा सब कुछ देखता है। उबेद की ड्यूटी नाके पर लगती या रात की रौंद में पड़ती तौ चवन्नियों, अठन्नियों को शक में फायदा उठा लेने का मौका रहता। उसके साथ के सब लोग ऐसा करते ही थे। वर्ना अठारह रुपये की कांस्टेबिली में क्या रखा था? पर उबेद नियत न बिगाड़ता। उसे ईमानदारी और मेहनत के अंजाम पर भरोसा था। जब वह एड़ी से पड़ी ठोक कर दारोगा साहब को सलूट देता था तो मन में एक आदर्श की पूजा करता था। यह आदर्श था- सिर की लाल पगड़ी पर लटकता सुनहरा झब्बा, पीतल का चमचमाता ताज, कंधे से कमर तक लगी हुई चमड़े की पेटी। तनख्वाह चाहे अधिक न हो, पर वह सरकार का प्रतिनिधि होगा। इतिहास में उसने कई बादशाहों और खलीफाओं का जिक्र पढ़ा था, जो गरीबी में गुजारा कर इनसाफ करते थे। वैसे ही यह भी करेगा। हिन्दुस्तानी अफसर अकसर कमीनापन करते है। अंग्रेज के हाथ में इनसाफ है। इसीलिये खुदा ने उसे इतना रुतबा दिया है'।
सैयद इम्तियाज अहमद सी० आई० डी. डिपार्टमेंट में हो गये थे। उबेद पढ़ा-लिखा था। उन्होंने उसे भरोसे लायक आदमी समझ अपने नीचे ले लिया। उसे अदना सिपाही की वर्दी से मुक्ति मिली, साइकिल का और दूसरे भत्ते मिलने लगे। दही की जहमत के बजाय उसका काम हो गया खबर लेना-देना। सरकार के सामने उसकी बात का मूल्य था। उस ने एक तथ्य समझा-दादर में जितना आतंक, अपराध और सनसनी हो, सरकार की दृष्टि में उसका मूल्य उतना ही अधिक है। सैयद साहब स्वयं जो चाहे करते ही, लेकिन उन्हें आदमियों की जरूरत थी, जो कम-से कम उन्हें तो धोखा न दे। ऐसे मामलों में अक्सर उबेद की ड्यूटी लगती। मेहनत का नतीजा भी उबेद को मिला। जल्दी ही उसकी वर्दी की आस्तीन पर पहले एक बत्ती, फिर दो लग गई।
इस महकमे में नौकरी करते उसे बरस ही पूरा हुआ था कि सन् ४२ का अगस्त आ गया। जगह-जगह से रेलें और तार के खम्भे उखाड़ दिये जाने ओर आने जला दिये जाने के भयंकर समाचार आने लगे। उबेद को लोग-बाग की आँखों में सरकार के लिये और अपने लिये नफरत और सरकशी दिखाई देने लगी। उसे याद आया, कि स्कूल में सन् 1985 के गदर का हाल पढ़ते समय जाहिरा तारीफ अंग्रेज़ों की ही की जाती थी, लेकिन सभी के मन में मुल्क को आजाद करने के लिये विदेशियों से लड़ने वालों की ही इज्जत थी। मालूम होता था कि फिर वही वक्त 'आ रहा है। लेकिन अब वह' अँग्रेज सरकार का नौकर था। एक बार वह मन में सहमा। अगर रिआया और सरकार की इस पकड़ में सरकार चित्त हो जाय तो उसका क्या होगा उस वक उसने रेडियो पर लाट हैलट साहब का फर्मान सुना। लाट साहब ने कहा-इस वक्त सरकार मुल्क के बाहर दुश्मनों से लड़ रही है। कुछ शरारती और सरकश लोग रिआया को सरकार के खिलाफ भड़का कर अमन में खलल और परेशानियों पैदा कर रहे है। हमारी सरकार को अपनी वफादार रिआया, पुलिस और फौज पर पूरा भरोसा है।
हमारी सरकार के जो अगले इस सरकशी और बदअमनी को खत्म करने में जी-जान से इमदाद करेंगे, सरकार उनकी खिदमतों का मुनासिब एतराफ करेगी। पुलिस और फौज को सरकशी खत्म और अमन कायम करने का फर्ज पूरा करने में जो सख्ती करनी पड़ेगी, उसके लिये सरकारी नौकरों, पुलिस या कौन के खिलाफ कोई शिकायत नहीं सुनी जायगी, न उसकी कोई जाँच पड़ताल होगी।''
उबेद का सीना गज भर का हो गया। बाजारों में 'इन्कलाब जिन्दाबाद' और अंग्रेजी सरकार मुरदाबाद' की आसमान फाड़ देने वाली जनता की चिल्लाहटों और थानों, कचहरियों को जला देने की अफवाहों से थर्राते उबेद के दिल को सांत्वना मिली। उसने सोचा. इधर जिन्दाबाद और मुर्दाबाद की चिल्लाहट और लाखों सरकश है तो हमारे पास भी राइफलों से मुसल्लह गारदें, फौज, तोपखाने और हवाई जहाज हैं। अगर एक बम आगरे पर गिरा दिया जाय तो सरकश रिआया का दिमाग दुरुस्त हो जाय।'
थाने में अधिकतर मुसलमान सिपाही थे। कोतवाल साहब भी मुसलमान थे। उन्होंने रेडियो पर हुआ कायदे आजम का एलान सब सिपाहियों को बताया कि हिन्दू कांग्रेस की इस बगावत का मकसद अंग्रेज सरकार को डरा कर मुल्क में हिन्दू-कांग्रेस का राज कायम करना है। मुसलमानों को इस बगावत से कोई सरोकार नहीं मुसलमान हिन्दू कांग्रेस से डर कर, उनका राज हरगिज कायम न होने देंगे। कोतवाल साहब सिपाहियों को यों भी समझाते रहते थे कि मुसलमान हाकिम कौम है। वे हमेशा मुल्क पर हुकूमत करते आये हैं। इसी आगरे के किले में मुसलमान हकूमत करते थे। अंग्रेज हमेशा मुसलमान का एतबार और इज्जत करता है। ईसाई हमारे अहलेकिताब हैं। खुदा पे अंग्रेज को ओहदा दिया है और हम लोगों को उसकी मदद करने का हुक्म है। यह कांग्रेस के बनिये बक्काल क्या हुकूमत करेंगे? इन्हें चरखा कातना है, तो लहँगा पहन लें और बैठ कर सूत काते। मुसलमान शेर कौम है। हमेशा से गोश्त खाता आया है। अब घास कैसे खाने लगे?
उमेद भी सोचता, 'इन लोगों के राज में हम लोगों का गुजारा कैसे हो सकता है। हम लोग भला इनकी गुलामी करेंगे? रिआया की सरकशी और बगावत की जीत का मतलब है कि पुलिस, फौज और हुकूमत तबाह हो जाय। जैसे हम लोग कुछ है ही नहीं। यानी हम लोग दो रोटी के लिये सिर पर झाबा रखे तरकारी बेचते फिरैं, या इनके लिये इक्के हांकें।' उसने मन ही मन सरकश रिआया को गाली दी और उनके प्रति नफरत से थूक दिया।
उस समय रिआया ने सरकार को जाने क्या समझ लिया था। पटवारियों, तहसीलदारों, जैलदारों, की सब ज्यादतियों और जबरन जंगी चन्दा वसूल किये जाने का बदला लेने के लिये, देहातों में खाली हाथ या ढेला, पत्थर और लाठी ले उठ खड़े हुये। ज्यों-ज्यों जनता का विरोध बढ़ता जा रहा था, सरकार सिपाहियों का लाड़ और खुशामद अधिक कर रही थी। 
यू० पी० के पूर्वी जिलों के देहात में विद्रोह अधिक था। पश्चिम के जिलों से वफादार और समझदार पुलिस को स्थानीय पुलिस की सहायता के लिये भेजा गया। सैयद इम्तियाज अहमद की मातहती में उबेद भी बनारस जिले में गया। विशेष भरोसे का और समझदार होने के नाते उसे सदर की पोशाक में देहाती बन कर सरकशों का पता लगाने का काम सौंपा गया। दिन भर गांव-गांव फिर कर अगर वह सांझ को खबर देता कि सब अम्नोआमान है तो सैयद साहब उसे फटकार देते और रपट लिखते कि 'मातबर जरिये से पता चला है कि पड़ोस का थाना फूंक देने वाले सरकश लोग गांव में छिपे हुये हैं।' रपट में कुछ सरकश बनियों के नाम खास तौर पर रहते। साहब के यहाँ उबेद की कारगुजारी पहुँचने पर उसकी पीठ ठोंकी जाती। गारद जाकर गांव को घेर लेती। एक-एक झोंपड़ी और मकान की तलाशी ली जाती। भगोड़ों का पता पूछने के लिये लोगों को मुश्कें बांध का पीटा जाता, औरतों को नंगी कर देने की धमकी दी जाती। तबीयत होती तो धमकी को पूरी कर दिखा देते। इस मुहिम में पुलिस वालों के हाथ जो लग जाता, थोड़ा था। किसी के घर से घी की हांडी, गुड की भेलिया किसी की अंटी से दो-चार रुपये, किसी औरत के गले या कलाई से चांदी के गहने उतर जाने का क्या पता चलता सिपाहियों ने खूब खाया।
सेरों चांदी की गठरियां उनके थैलों में छिपी रहतीं। किसी घर में छबीली औरत या जबान लड़की की झांकी पा जाते तो घर की तलाशी ले लेते। मर्दों को शक में पकड़ कैम्प में भिजवा देते, औरतों से पूछते, ''बताओ भगोड़े बदमाश कहां छिपे हैं ?'' और उन्हें बांह से घसीट कर अरहर के खेतों में ले जाते। शान्ति कायम करने के लिये पुलिस की इन हरकतों के खिलाफ यदि किसी देहाती के माथे पर वल दिखाई देते तो उसे पेड़ से बांध कर उसके सारे शरीर के बाल झाड़ दिये जाते।
पुलिस अनुभव कर रही थी कि वह वास्तव में राज कर रही है। बदमाशों की खोज-खबर लगाने का काम सरकार की दृष्टि में सब से महत्वपूर्ण था। कटौना का थाना फूंकने वालों का पता लगाने के लिये उबेद को मोहरसिंह के साथ ड्यूटी पर लगाया। रघुनाथ पांडे छ: मास से फरार था। उबेद ने साधु का भेष बनाया और काशी जी में फिरता रहा। वह हाथ देख कर भाग्य बताता, रमल बताता और बात- बात में राज-पलट होने, नये राजा, तालुकदार बनने और ताम्बे का सोना बनाने की बातें करता। इसी तरह बातों-बातों में उसने रघुनाथ पांडे को खोज निकाला और गिरफ्तार करवा दिया।
देश में शान्ति स्थापित हो गई। उबेद आगरा लौट आया और उसकी कारगुजारी के इनाम में उसे हेड कांस्टेबिल का ओहदा मिला। आगरे में भी उसे सियासी फरारों की तालाश के काम पर लगाया गया। यहां उसने कुछ दिन इक्का हांक कर, फरार निर्मल चन्द को गिरफ्तार करा दिया। उसे पूरा भरोसा था कि जल्दी ही सब-इन्सपेक्टरी मिल जायगी।
मुल्क में अमनो-आमान कायम हो गया था पर जाने अँगरेजों को क्या सूझा कि उन्होंने सरकार का काम कांग्रेस वालों को सौंप दिया। अफवाहें उड़ रही थीं कि सब जेल जाने वाले ही अफसर बनेंगे और अंग्रेज सरकार से बअदारी निभाने बालों से बदले लिये जायेंगे। कुछ दिनों में ही इतना परिवर्तन हो गया कि जो गांधी टोपी छिपती फिरती थी, अब अकड़ कर मोटर पर सवार थाने में पहुँचने लगी। लाल पगड़ी को उसके सामने झुक कर सलाम करना पड़ता। अँगरेज सरकार के समय जिन अफसरों का मान था वे अब घबरा रहे थे। पुरानी सरकार के प्रति वफादारी नयी सरकार की निगाह में गद्दारी थी। उबेदुल्ला सोचता था-यह अल्लाह ने क्या किया ?'' पुलिस के बड़े मुसलमान अफसर, सैयद इम्तियाज अहमद और दूसरे साहबान, तुर्की टोपी की जगह किश्तीनुमा टोपियां पहनने लगे, और फिर गांधी टोपी। वे अपने से नीचे ओहदे के सहमे हुए लोगों को समझाते-''अपना फर्ज हे हाकिमेवक्त का वफादार रहना। सियासियत से हमें क्या मतलब?
उबेदुल्ला मन ही मन सोचता कि बेइज्जत होकर बर्खास्त होने से बेहतर है कि बाइज्जत रह खुद इस्तीफा दे दे। इस नयी सरकार को उसकी जरूरत क्या १ खास कर सियासी खुफिया पुलिस की उसे क्या जरूरत 'जब रिआया का अपना राज हो गया तो लोग खुद ही कानून बनायेंगे और उन्हें मानेंगे। कौन बगावत करेगा, जिसे हम पकड़ेंगे? यह जनता की सरकार हमें क्यों पालेगी ?'' 
सरकारी नौकरों और पुलिसों को अपनी मर्जी, से हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में बँट जाने. का मौका दिया गया। उबेद ने सोचा कि इस हिन्दू राज से पाकिस्तान ही चला जाय। बड़े-बड़े मुसलमान अफसर भी ऐसी ही बातें कर रहे थे। पुलिस में मुसलमान ही ज्यादा थे। सब पुलिस अगर पाकिस्तान ही पहुँच जाय तो रिआया से ज्यादा तो पुलिस ही हो जायेगी। बह घबरा रहा था। जिन लोगों की चौकसी कर वह डायरी लिखा करता था, वे लोग अब सरकारी परमिट लाकर बड़े-बड़े कारोबार कर रहे थे। जब तक बड़े लाट लोग अँग्रेज थे, कुछ धीरज था। उम्मीद थी कि शायद फिर दिन फिरें। एक बार पहले भी कांग्रेस सरकार हुई थी, और चली गई। लीग वाले भी जोर बांध रहे थे। लेकिन अगस्त १९४७ में जब लाट भी कांग्रेसी बन गये, तो वह धीरज भी जाता रहा। वह देखता रहता था कि सैयद साहब अब इस या उस कांग्रेसी नेता के यहां मिलने आते-जाते रहते थे और प्राय: जिक्र करते रहते थे, कि उनके मरहम वालिद साहब मौलाना शौकत- अली और मुहम्मदअली के जिगरी दोस्त थे, और खिलाफत तथा कांग्रेस में काम करते रहे हैं। वे तो एक बार लखनऊ भी हो आये थे। उबेद सोचता - "ये तो खानदानी और बड़े आदमी हैं। पहले रसूख के जोर पर ओहदे पर चढ़ गए अब भी इनका गुजारा हो जाएगा।अंग्रेजी सरकार के जमाने में इन्होंने मुसाहबियत के सिवा किया क्या है? लेकिन हमने तो ईमानदारी और नमक हलाली निभाई है। ' ऊपर के दफ्तरों में रिकार्ड' देखे जा रहे होंगे और बर्खास्ती का हुक्म आया ही चाहता है।''
अँग्रेजों ने हिन्दुस्तान का शासन कांग्रेस और लीग को ऐसे समय में सौंपा जब युद्ध के बोझ के कारण देश की आर्थिक अवस्था अस्त- व्यस्त हो चुकी थी। कीमतें चौगुनी चढ़ गई थीं। मुनाफे के लोभ में व्यापारियों ने बाजारों को समेट कर गोदामों में बन्द कर लिया था। सरकार राष्ट्र-निर्माण करना चाहती थी। जनता रोटी मांग रही थी। व्यवसायी लोग दाम नीचे न गिरने देने के लिये माल को तैयारी कम कर रहे थे। जो माल बनता, उसे सरकारी कीमत की मोहर लगवाये बिना चोर-बाजार में खींच लेते! मजदूर अपनी मजदूरी से पेट न भर पाने के कारण मजदूरी बढ़ाने की मांग कर रहे थे। मजदूरी न बढ़ने पर मजदूर हड़ताल की धमकी दे रहे थे। सरकार हड़ताल को राष्ट्र के लिए घातक समझ रही थी। हड़ताल-विरोधी कानून बना दिये गये।
इस पर भी हड़तालें न रुकीं। सरकार कम्युानिस्टों को हड़ताल के लिये जिम्मेवार समझ, गिफ्तार करने लगी। कम्युनिस्ट लोग कांग्रेस और अंग्रेजों की लड़ाई परंपरा के अनुसार स्वयं बिस्तर लेकर थाने में पहुंच आने के बजाय फरार होकर, अपना आन्दोलन चलाने लगे। कम्यूनिस्ट नेताओं को गिरफ्तार करना सरकार के लिये एक समस्या हो गई। मि० चक्रवर्ती अंग्रेज सरकार के जमाने में आतंकवादी लोगों के पडयंत्रों की खोज-खबर लगाने और उन्हें गिरफ्तार करने में काफी कीर्ति कमा चुके थे। नयी सरकार ने उन्हें गुप्तचर विभाग का डी. आई० जी० बनाकर यह काम सौंपा। मि० चक्रबर्ती ने ऐसे पडयंत्रों और अपराधियों को पकड़ने की रसायनिक विधि का उपयोग किया।
जैसे कूजे की मिस्री बनाने के लिये मिस्री की एक डली को चाश्नी में लटका देने से चीनी के कण जल से सिमिट कर एक जगह जम जाते हैं, और उन्हें बाहर कर लिया जाता है, वैसे ही उन्होंने अशान्ति की बात धीमे धीमे करने वाले अपने आदमियों को जनता में छोड़ शरारती लोगों को इकट्ठा कर लेने का उपाय सोच निकाला। .. 
अँग्रेज अफसरों के नौकरी छोड़ विलायत चले जाने के कारण, सैयद साहब को डी० एस० पी० की जगह मिल गई थी। उबेद को सैयद साहब के यहाँ हाजिरी का हुक्म आया। उसे मालूम हुआ कि पिछली कारगुजारी की बुनियाद पर उसे स्पेशल ड्यूदी के लिये चुना गया है। दो काम-खास थे-एक तो पाकिस्तानी एजेंटों का पता लगाना और दूसरा मजदूरी में बदअमनी फैलाने वाले कम्युनिस्टों की खोज। उबेद को धीरज हुआ। सरकार चाहे जो हो, इन्तजाम और निजाम तो रहेगा ही। वह फालतू नहीं हो गया। लेकिन अपने बिरादराने-दीन को वह पकड़ेगा उसने मन को समझाया, 'मजहब और सियासियात अलग अलग चीजें है। हाकिमे वक्त से वफादारी भी तो अल्लाह का हुक्म है। मजहब अपनी जगह है, मुल्क अपनी जगह ।ईरानी और तुर्क, दोनों मुसलमान हैं लेकिन अपने-अपने मुल्क के लिये उनमें जंग होती रही है।' फिर भी उसने कोशिश की कि हड़तालियों की पड़ताल पर ड्यूटी रहे तो अच्छा है। ऐसे आदमियों के खिलाफ उबेद को स्वयं ही क्रोध था। गरीब भले आदमी यों ही कपड़े के बिना मरे जा रहे है, ये बेईमान हड़ताल करके और कपड़ा नहीं बनने देंगे। शहर में बिजली, पानी बन्द करके दुनिया को मार देना चाहते हैं। ऐसे कमीनों का तो यह इलाज ही है कि जूते लगायें और काम लें! कमीने लोग कभी खुशी से काम करते हैं? उसका तो इलाज ही डंडा है।
उबेद को फरार कम्युनिस्टों और मजदूरों में असंतोष फैलाने वाले उपद्रवी लोगों का पता लगाने के लिये कानपुर में नियुक्त किया गया। खुफिया पुलिस के महकमे में उसका नाम सब इंस्पेक्टरों में था। लेकिन वह मैले कपड़े और दुपल्ली टोपी पहने, रोजगार की तलाश में कानपुर के बाजारों में घूम रहा था। कुछ रोज उसने एक मिल के इंजन रूम में खलासी का काम किया और फिर आयलमैन हो गया।
सरकार चाहती थी कि हड़ताल किसी तरह न हो इसलिये शहर में दफा १४४ लगी हुई थी। हुक्म था कि जलसा न हो, जुलूस न निकले। कांग्रेस के नेता कलक्टर साहब की इजाजत से सब-कुछ कर सकते थे। मनाही थी सिर्फ मजदूरों को भड़काने वाले लोगों के लिये जिनसे सरकार को हड़ताल और शान्ति-भंग का अंदेशा था। फिर भी बस्तियों में, पुरवों में मकान की दीवारों पर, सड़कों पर, चूने से, कोयले से और गेरू से मजदूरों के नारे लिखे दिखाई देते, 'चोर. बाजारी बन्द करो! मुनाफाखोरों को फांसी दो ! मजदूरों को मंहगाई भत्ता दो ! रोजी-रोटी दो! बिजली पानी लो! जालिम कानून हटाओ ! मजदूर नेताओं को छोड़ो 1' 
उबेदुल्ला कान खोल कर मजदूरों में फैलती अफवाहें सुनता रहता- महंगाई के लिये हड़ताल जरूर होगी, मीटिंग में बात पक्की हो गई है। कल रात मीटिंग में लीडर आये थे। स्वदेशी वाले, म्योर वाले, जर्टन वाले सब तैयार है। देखें कौन रोकता है? उबेद मिल में शाहिद के नाम से भरती हुआ था। वह इन बातों में बहुत उत्साह दिखाता, मज़दूरों की टोलियों में खूब ऊँचे नारे लगाता। वह सोचता कि गुप- चुप होने वाली मीटिंगों में जा पाए तो असली भेद पाये और फरार नेताओं का सुराग मिले। जाहिर है ऐसे नारे लगा कर भी वह मन में सोचता, 'कमीनों का दिमाग कैसा फिर गया है। अंग्रेज के बराबर कुर्सी पर बैठने वाले, इतने बड़े-बड़े नेताओं की सरकार पलट कर अपनी सरकार बनायेंगे। शरीफ अमीर आदमियों का राज उखाड़ कर कोरियों, पासियों, भंगियों और मजदूरों का राज बनेगा? कैसी बदमाशी की साजिश है। कहते हैं, मजदूर की कमेटियाँ मिलें चलायेगी। मालिक महंगाई बनाये रखने के लिये दो तिहाई मिलें बन्द किये हुए हैं। इन लोगों की चल जाय तो दुनिया पलट जाय? ये लोग छिपे- छिपे कितना जोर बाँध रहे हैं। इनके सैंतालीस नेता फरार हैं। सब कानपुर में है और पता नहीं चलता। पिछली बातों से खतरा और भी बढ़ गया था। इनका एक बड़ा नेता गिरफ्तार हुआ था तो पिस्तौल कारतूस भी बरामद हुए थे। पिस्तौल पसली पर रख कर पिट से कर दें इनका क्या भरोसा है। वह अपनी डायरी देने थाने न जाकर, कर्नेंलगंज में रहने वाले एक खुफिया इंस्पेक्टर के यहाँ जाता था। 
यों तो उबेद का सब इंस्पेक्टरी की तनखाह, ड्यूटी का भत्ता और शाहिद आयलमैन की मजदूरी भी मिल रही थी लेकिन मुसीबत कितनी थी! सिर्फ आयलमैन की मजदूरी में ही गुजारा करना पड़ता। बह आराम के लिये पैसा खर्च करता तो साथ के लोगों को शक हो जाता। चार महीने बीत गए। वह अपनी तनख्वाह लेने भी न जा सका। वह सरकार के खजाने में जमा हो रही थी। सचमुच बुरा हाल था। पेट भी ठीक से नहीं भरता था। चबैना और मूंगफली खाते-खाते खुश्की से दिमाग चकराने लगता था। साफ कपड़े पहनने के लिये जी तरस जाता। वह मजदूरों की बाबत सोचता, 'कमीनों का यह तो हाल है कि रोटियों को तरसते हैं और करेंगे राज! कमबख्तों का यही तो इलाज है कि खाने को न दे और जूतियाँ मार-मार कर काम ले। हमेशा से कायदा ही यह रहा है।' वह अपनी ड्य़ूटी की सख्ती से परेशान था। इतनी मुसीबत अंग्रेज के जमाने में कमी न हुई थी।
एक दिन हद हो गई। शाम के वक्त वह थक कर दीवार की कुनिया से पीठ लगा बैठ गया था। इंजीनियर साहब आ रहे थे। वह देख न पाया इसलिये उठ कर खड़ा न हुआ। इंजीनियर साहब ने उसे ठोकर मार कर गाली दी। उबेदुल्ला ने बड़ी मुश्किल से अपना हाथ रोका। मन में तो कहा, 'बेटा, न हुआ मैं बाहर, नहीं तो हथकड़ी लगवा कर थाने ले जाता और सब शेखी झाडू देता? क्या समझते हो अपने आपको दूसरे जैसे आदमी ही नहीं हैं।' फिर गम खा गया कि बहुत बड़े काम के लिये वह यह सब बर्दाश्त कर रहा है।
रात में दूसरे मजदूरों के साथ दर्शनपुरवा की एक कोठरी में लेटा लेटा वह सोचने लगा। 'कम-से-कम मार-पीट, गाली-गलौज तो न होनी चाहिये। मजदूरों में सब कमीने लोग थोड़े ही हैं। और फिर यहाँ पैसा लेकर मजदूरी करते है, अपने घर चाहे जो हो।' उसे अपने दो भाइयों की बात याद आ गई। एक अहमदाबाद में और दूसरा रतलाम में मजदूरी करने चला गया था। इसी सिलसिले में वह यह भी सोचने लगा, कि कम-से-कम पेट भरने लायक मजदूरी तो मिले! जब सरकार अपनी है, तो उसे हालत ठीक से मालूम होनी चाहिये। मजदूरों की भी सुनी जाय। 
मिल के साथी मजदूरों को शाहिद पर विश्वास हो जाने से उसे हाथ की लिखाई में पर्चे पढ़ने को मिलने लगे। इन पर्चों पर प्रेस का नाम नहीं रहता था। इन पर्चों में सरकार के खिलाफ सरकशी की बातें और जंग का एलान रहता-'.... जो सरकार मुनाफाखोरी, चोर बाजारी के हकों को जायज समझती है, उसके राज में मेहनत करने वाली जनता ' कभी सुखी नहीं हो सकती। व्यापार के नाम पर मुनाफे की लूट केवल किसानों और मजदूरों के राज में खत्म हो सकती है, जब पैदावार मुनाफे के लिये नहीं, जनता की जरूरतें पूरी करने के लिये की जायगी। यह पूंजीपतियों का राज जनता का स्वराज्य नहीं, बल्कि सिर्फ हिन्दुस्तानी और विदेशी मुनाफाखोरों का समझौता है। मेहनत करने वालों का स्वराज्य केवल मेहनत करने वालों की अपनी पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी, ही कायम कर सकती है। कम्युनिस्ट पार्टी मेहनत करने बाली जनता के अधिकारों की रक्षा के लिये इस सरमायादारी हुकूमत के खिलाफ जंग का ऐलान करती है। आप लोग अपने नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिये व्यक्तिगत और सुसंगठित तौर पर लड़ने के लिये तैयार हो जाइये। पुलिस के दमन का मुकाबिला कीजिये। अपने गली, मुहल्लों और अहातों में पुलिस राज समाप्त करके, मेहनत करने वाली जनता का राज कायम कीजिये। आदि आदि। उबेद यह खुली बगावत देख सिहर उठता। दुलीचन्द्र ऐसे पर्चे शाहिद को पढ़ाकर वापस ले लेता था। शाहिद पर्चों को दो बार, तीन बार पढ़कर शब्दों को याद कर लेने की कोशिश करता ताकि बिलकुल सही-सही रिपोर्ट दे सके। अकेले में मन-ही.मन उन्हें दोहराता रहता। 
मन-ही-मन वह सोचता, 'कितनी खुली बगावत है।' और साथ ही यह भी सोचता, इन मजदूरों के ख्याल से बातें भी सही है। लाखों लोग तो इसी हालत में है। उसने एक राज फिसल कर दूसरा राज आता देखा था। वह सोचने लगता, 'क्या तीसरा राज आयेगा ?' जैसे इन दोनों राजों में वह एक ही काम करता आया है, वैसे ही वह करता चला जायगा? तब उसे गल्ले और कपड़े के गोदाम छिपाने वालों का पता लगाना होगा, ऐसे आदमियों की पड़ताल करनी होगी जो रिआया को भूखी और नंगी रखते हैं। ऐसे विचारों से कर्नैलगंज में इंस्पेक्टर साहब के यहां रिपोर्ट लिखाने जाने का उत्साह फीका पड़ने लगा। अब उसे अपना काम बहुत कठिन जान पड़ने लगा। लेकिन बह बड़ी होशियारी से आँख बचा कर। अपनी रिपोर्ट पहुँचाता रहा। बह सरकार का नमक खा रहा था और खुदा के रूबरू हाकिमेवक्त का नौकर था। 
एक दिन दुलीचन्द ने उससे कहा-पाल्टी के मेम्बर क्यों नहीं वन जाते ?'' 
उबेद मन-ही-मन सिहर उठा। लेकिन प्रकट में कहा-बन जायेंगे।'' मन में उसने सोचा कि पार्टी के मेम्बर बन जाने पर ही उसे भीतरी षड्यंत्र का पता चलेगा। दूसरा ख्याल आया कि यह तो अपने ऊपर एतबार करने वालों के साथ दगा होगी। उबेद मन-ही-मन बहुत परेशान हुआ। पार्टी का मेम्बर बनने से इनकार करे तो फर्ज में कोताही और खुदा के रूबरू अपनी सरकार से दगा है और पार्टी का मेम्बर बन कर उसका राज दूसरों को दे तो गरीब साथियों और खुदा की खल्क के साथ दगा है। उसने अपने मन को समझाया कि औवल तो वह सरकार का ही नमक खा रहा है और खुदा ने सरकार को रुतबा दिया है। वह खुदा के इन्साफ में क्यों शक करे? उबेद तो परेशानी में था लेकिन दुलीचन्द को शाहिद जैसे समझदार, पक्के और जोशीले साथी को पार्टी का मेम्बर बनाने की धुन सवार थी। उसने उसे पार्टी का कार्ड दिलवा दिया और एक रात उसे पक्के साथियों की मीटिंग में ले गया। मीटिंग में पन्द्रह-बीस साथी थे, दूसरी-दूसरी मिलों के कामरेड लीडर बता रहे थे - "हड़ताल के मतलब होते हैं, मालिकों की हुकूमत के खिलाफ मजदूरों के मोर्चे को मजबूत करना। मजदूरों का मोर्चा सिर्फ पार्टी के मेम्बरों का मोर्चा नहीं है। मजदूरों का मोर्चा तमाम मेहनत करने वाली जनता का मोर्चा है। पार्टी के मेम्बर इस मोर्चे में राह दिखाते हैं. वे मोर्चे के मालिक नहीं हैं। जो लोग बाबू लोगों से, जमादारों से, पुलिस वालों से अपनी दुश्मनी समझते हैं वे गलती पर हैं और मजदूरों के मोर्चे को नुकसान पहुँचाते हैं। हमारे दुश्मन सिर्फ वे लोग हैं जो जनता की मेहनत को लूटना अपना हक समझते हैं। तबके सिर्फ दो हैं। एक लूटने वाला और दूसरा लुटा जाने वाला। नौकर सब लुटने वाले तबके से हैं। फर्क इतना है कि वे लोग अपनी बिरादरी और समाज को न पहचान कर लूटनो वालों के हाथ बिके हुए हैं। उनकी किस्मत मालिकों के हाथ का खेल है। हमारा मोर्चा मार-पीट, जोर-जुल्म का मोर्चा नहीं है। यह मोर्या पक्के इरादे से अपने हक को पाने का मोर्चा है।''
कामरेड लीडर के चेहरे पर बड़ी हुई मूंछें और कतरी हुई दाढ़ी के बावजूद इंसपेक्टर साहब से मालूम हुए हुलिये से उबेद पहचान गया था कि यह फरार लीडर कामरेड नाथ है। फर्ज पूरा करने के लिये उसने इस मीटिंग की ओर नाथ के बदले हुये हुलिये की रिपोर्ट भी इंसपेक्टर साहब के यहां पहुंचा दी। इसके बाद वह दो और मीटिंगों में भी गया। बड़ी भारी मुकम्मल हड़ताल की तैयारी के लिये गुप्त मीटिंगें बार-बार हो रही थी। इंसपेक्टर साहब का हुक्म था कि ऐसी मीटिंग का समय और स्थान मालूम कर, उबेद वक्त रहते उन्हें खबर दे लेकिन उबेद को मीटिंग का पता ऐसे समय लगता कि खबर दे आने का मौका ही न रहता। पांचवी गुप्त मीटिंग हड़ताल के लिये आखिरी बातें तय करने के लिये की जानी थी। मिल से छुट्टी होते ही शाहिद को कहा गया कि ग्वालटोली के चार साथियों, प्यारे, नोतन, लेह. और नब्बन को खबर दे आये। ग्वाल टोली जाते हुए उबेद कर्नैलगंज में खबर देता गया। इस बात के नतीजे से वह खुद घबरा रहा था। लेकिन खुदा के रूबरू वह अपने फर्ज से कोताही कैसे करता? इस मानसिक परेशानी में वह बार-बार अल्लाह को गुहराता कि वही उसकी मदद करे, उसे गुमराह होने से बचाये।
एक हरीकेन लालटेन की रोशनी थी। अलगनियों पर कपड़े और धर का सामान लाद कर सब लोगों के बैठने के लिये जगह बनाई गई थी। कानपुर के एक लाख मजदूरों और शहर के करोड़पतियों और सरकार में जंग का फैसला हो रहा था-पिकेटिंग के समय कौन लोग देख-भाल करेंगे, लाठी चार्ज होने पर क्या किया जाय? गैरकानूनी जुलूस निकला जाय या नहीं ? दूसरे मजदूरों के दिल से खतरा दूर करने के लिए कौन लोग पहले मार खायें और गिरफ्तार हों? खयाल रखा जाय कि इधर से लोग भड़क कर ईंट पत्थर चलाकर पुलिस को गोली चलाने का मौका न दें।
आधी रात के समय मीटिंग हो रही थी। तीन लीडर आये हुये थे। हड़ताल के लिये कामरेड नाथ आखिरी बातें समझा रहे थे।
उबेद के कानों में साँय साँय हो रहा था। उसका कलेजा धकधक कर रहा था। वह लगातार बीड़ी पर बीड़ी सुलगा रहा था। दूसरे कई लोग भी बीड़ी पी रहे थे। लीडर कामरेड मौलाना ने भूरी आंखें निकाल, डाँट कर कहा-''बीड़ी बुझा दो सब लोग। क्या बेवकूफी करते हो? देखते नहीं हो, दम घुट रहा है? तुम लोग क्या जंग लड़ोगे, जो एक घंटे तक बिना बीड़ी के नहीं रह सकते।'
उबेद बीड़ी फर्श पर दवा कर बुझा रहा था। दूसरे लोगों ने भी बीड़ी बुझा दी। उसी समय पड़ोस से ऊँची पुकार सुनाई दही-भूरे ओ भूरे !''
मौलाना की पीठ तन गई। ''पुलिस आ गई !'' उन्होंने कहा। वे तुरन्त कागज समेटने लगे, और बोले-'जगन कामरेडों को निकाल दो। मोती दरवाजे पर डट जाओ, भीतर न आने देना।''
गड़बड़ मच गई। शाहिद का दिल और भी जोर से धड़कने लगा। दस सेकिंड भी नहीं गुजरे थे कि दरवाजे पर से धमकी सुनाई दी-- ''दरवाजे खोलो। तोड़ दो दरवाजा पिस्तौल की दो गोलियाँ चलने की भी आवाज सुनाई दी। सादे कपड़े पहने पुलिस थी। पुलिस और मजदूरों में हाथापाई हो रही थी। तीन गोलियाँ और चलीं। वर्दी वाली पुलिस भी आ गई।
बारह आदमी गिरफ्तार हो गये। दुलीचन्द के घुटने में और नब्वन की बाँह के डौले में गोली लगी थी। दूसरे लोगों को भी चोटें आई थीं। तीनों लीडर कामरेड निकाल दिये गये थे। पुलिस के लोगों में शाहिद को कोई भी नहीं पहचानता था। उसने भागने की कोशिश भी नहीं की। वह भी गिरफ्तार हो गया। मुहल्ले के बाहर चार पुलिस लारियां खड़ी थी। तीन-तीन गिरफ्तारों को पुलिस के साथ इनमें बन्द किया गया, और बड़ी कोतवाली पहुंच गये। सब लोगों को अलग- अलग बन्द कर दिया गया।
अगले दिन चौथे पहर कर्नैलगंज वाले इंस्पैक्टर साहब और उन से बड़े अफसर आए। उन लोगों ने उबेदुल्ला की कारगुजारी की तारीफ की। उन्होंने कहा - "बड़े बड़े मच्छ तो जाल तोड़ कर निकल गये। कितने बदमाश हैं ये लोग। फिर भी इनके बारह खास आदमी हाथ आ गये हैं। फिलहाल इनकी यह हड़ताल तो न हो सकेगी।''
उन्होंने उबेदुल्ला को समझाया-इन बदमाशों पर मामला चलाया जायगा कि इन्होंने सर अन्जाम में पुलिस के काम में अड़चन डाली, पुलिस से मारपीट की, एक दारोगा और चार कांस्टेबिल को जख्मी किया। लेकिन गवाही सब पुलिस की ही है इसलिये उबेद को सरकारी गवाह बनना पड़ेगा। पन्द्रह बीस दिन की ही तो बात है। जेल में सब आराम का इन्तजाम हो जायगा। घबड़ाने की कोई बात नहीं है। कल उन सब लोगों को जेल की हवालात में भेज दिया जायगा। उबेद के लिए जेल में अलग इन्तजाम हो जायगा, दो-एक रोज में बयान तैयार हो जायगा, और उबेद को वह बयान मैजिस्ट्रेट के सामने देना होगा। बड़े साहब ने कहा है कि इस मामले से छूटने पर उबेद को किसी थाने का इन्चार्ज बना कर पच्छिम में भेज देंगे।
सब गिरफ्तार दंगाइयों को पुलिस से फौजदारी करने की दफा में मुलजिम बनाकर जेल हवालात में भेज दिया गया। उबेद भी जेल भेज दिया गया। लेकिन उसे अलग कोठरी में रखा गया। उस पर खास वार्डर की ड्यूटी थी कि उससे कोई मिलने न पाये। सिर्फ पानी देने वाला, खाना पहुंचाने वाला, अस्पताल की कमान के कैदी और भंगी उसकी कोठरी में आते जाते थे। इन्हीं में से कोई उसे खबर दे गया कि उसके बाकी साथी कह रहे है, कि शाहिद को भी उनके साथ रखा जाय और उसे साथ न रखा जाने पर भूख हड़ताल की तैयारी है।
उबेद परेशान था कि क्या करे। उसने कितने ही मुश्किल काम किये थे लेकिन ऐसी मुसीबत कमी न आई थी। कचहरी में खड़े होकर बह इन लोगों के खिलाफ बयान कैसे देगा? कैसी कैसी गालियां वे लोग इसे देंगे और फिर जेल वे लोग किस बात के लिये जा रहे है?
तीसरे दिन उसकी कोठरी में आने जाने वाले कैदियों की आँख बदली हुई दिखाई दी। उस पर ड्यूटी देने वाले जमादार की आंख बचाकर, एक गैर-पहचाना कैदी उसे गाली देकर और उसकी ओर थूक कर कह गया-''साला मुखबिर है।',
उसी दिन शाम को मजिस्ट्रेट उसका बयान कलमबन्द करने के लिए आए। मजिस्ट्रेट ने उससे कहा--खुदा को हाजिर-नाजिर ज्ञान कर हलफिया सच बयान दो।''
शाहिद ने होंठ दबा लिये।
मैजिस्ट्रेट ने पूछा-''तुम्हारा नाम शाहिद है ?''
'वालिद का नाम
शाहिद चुप रहा।
मजिस्ट्रेट ने धमकाया-''बोलते क्यों नहीं
''साथ खड़े सी० आई० डी० के इंसपेक्टर साहब ने भी कहा- बयान दो अपना। शाहिद ने जबाव दिया- मेरा नाम शाहिद नहीं, मैं खुदा को रूबरू जान कर हलफिया झूठ नहीं बोल सकता।''
मैजिस्ट्रेट ने आश्चर्य से अंग्रेजी में कहा-यह क्या तमाशा है।' सी. आई. डी० के इंस्पेक्टर ने उबेद को समझाया - अरे इस में क्या है यह तो जाब्ते की बात है। कचहरी में खुदा थोड़े ही हाजिर हो सकते है, इसमें क्या रखा है?
उबेद ने हकलाते हुए कहा-''हजूर नौकरी करता हूं, जान दे कर सरकार का नमक हलाल कर सकता हूँ। पर ईमान नहीं बेच सकता। उसने छत की तरफ हाथ उठाया। 'वह दुनिया भी तो है।'
मजिस्ट्रेट साहब ने इंसपेक्टर साहब को डाँट दिया-यह सब क्या फरेब है? मैं ऐसा बयान नहीं लिख सकता। मुझे रिपोर्ट में यह सब लिखना होगा।'
इस परेशानी में बयान न लिखा जा सका।
अगले दिन उसे समझाने के लिये दूसरे अफसर आये। बोले - ''ऐसी नमक-हरामी, गद्दारी करोगे तो सात बरस की नौकरी कार गुजारी, सरकार के यहाँ जमा तनख़्वाह तो जब्त होगी ही साथ ही सरकार की नौकरी में रह कर बगावत करने के जुर्म में फांसी, काले पानी की सजा तक हो सकती है।''
उबेद ने जबाब दिया-''सरकार मालिक है। मैंने गद्दारी नहीं की, है.......... नहीं की, लेकिन खुदा के रूबरू दरोगहलफी करके आकबत नहीं बिगाड़ सकता। यहाँ आप मालिक है, वहाँ वो मालिक है...।''
उबेदुल्ला का मामला आई० जी० साहब के यहाँ गया हुआ था। इसी बीच दूसरे ग्यारह आदमियों पर पुलिस से फौजदारी करने का मामला चल रहा था। पुलिस ही मुद्दई थी और पुलिस ही गवाह।
गवाही माकूल नहीं थी। मामला गिर जाने की आशा थी। मुलजिम लारियों में नारे लगाते हुये अदालत आते जाते ये। मुलजिम के वकील बार-बार शाहिद को अदालत में पेश करने की दरखास्तें दे रहे थे।
पुलिस की तरफ से जवाब था कि शाहिद पर से यह फौजदारी का मामला हटा लिया गया है। वह दूसरे मामले में मफरूर था। उसकी तहकीकात अलग से हो रही है।
मजदूरों को विश्वास था कि कामरेड शाहिद को सरकारी गवाह बनाने के लिये पीटा गया है लेकिन उसने अपने साथियों से गद्दारी करना मंजूर नहीं किया। पुलिस उसे परेशान कर रही है। वे नारे लगाते थे-कामरेड शाहिद जिन्दाबाद! कामरेड शाहिद को रिहा करो''
जेल वालों की चौकसी के बावजूद यह खबर भी उबेद तक पहुंची।
उसकी आंखें खुशी से चमक उठी। उसने अल्लाह को याद कर, दुआ के लिये हाथ फैलाकर कहा-''या खुदा शुक्र तेरा! एक बार तो तेरे नाम ने जिन्दगी में मदद की! यही बहुत है !'' 

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